Monday, August 3, 2015

... क्योंकि सिर्फ पत्तियां नोंचने से नहीं बदलती तस्वीर


क्या आपको प्रिंस याद है? जरा याददाश्त पर जोर डालिए और याद कीजिए। आपको याद आएगी साल 2006 की 21 जुलाई। तब कुरुक्षेत्र के गांव हल्दाहेड़ी में घर से कुछ दूर खेलते समय प्रिंस खुले पड़े 50 फीट गहरे बोरवेल में जा गिरा था। उस दिन उसका पांचवां जन्मदिन था। तीन दिन चले अभियान में सेना ने बोरवेल के साथ सुरंग बनाकर 23 जुलाई को उसे निकाल लिया था। याद आया न। थोड़ा और सोचेंगे तो प्रिंस जैसे कई ओर नाम याद आ जाएंगे, अपने आसपास के बच्चे, जो लापरवाही के गड्ढे में गिरे, कुछ जिंदा बाहर निकले तो कुछ तो मौत अपने साथ ले गई।
प्रिंस खुशकिस्मत है कि वह बच गया। पूरा देश उसके लिए दुआएं कर रहा था। ऐसी ही एकजुटता तब भी दिखाई दी थी, जब दिल्ली में गैंगरेप हुआ था या भ्रष्टाचार के खिलाफ हुंकार भरी गई थी। लेकिन फिर क्या हुआ? असल में यह सवाल मेरे पहले सवाल का ही दूसरा भाग है। यदि हमें प्रिंस याद रहता तो हमें यह भी याद रहता कि ऐसे जानलेवा गड्ढे खुले न रहें। यदि हमें निर्भया याद रहती तो यह भी याद रहता कि ऐसे मामलों का दोहराव न हो। भ्रष्टाचार के लिए खिलाफ तो लड़ाई अंतहीन है। असल में, इसे सुविधा से जोड़ लिया गया है। काम आसानी से नहीं होता तो भ्रष्टाचार को शिष्टाचार मान लिया जाता है और तब यह किसी को बुरा नहीं लगता। हम में से अधिकांश भ्रष्टाचार को तभी कोसते हैं जब हम काम के दायरे में नहीं होते। यदि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई याद रहती तो किसी सुविधा के लिए भ्रष्ट आचरण की पहल नहीं करते। लेकिन हुआ इसका उल्टा। हम दिनों के साथ हर उस घटना को भूलाते गए जिसने हमें भीतर तक आहत किया था। ऐसा नहीं है कि लापरवाही गांवों में है। शहरों में भी सीवर के खुले मैनहोल, टेलीफोन, बिजली पानी आदि की लाइनें ठीक करने के मकसद से खोदे गए गड्ढों में जब-तब लोगों के गिर कर घायल हो जाने या दम तोड़ देने की घटनाएं आम हैं। पिछली बरसात दिल्ली के विभिन्न इलाकों में खुले सीवर में तीन बच्चे बह गए। रात के अंधेरे में बच्चे ही नहीं, बड़े भी गिर जाते हैं। 
बच्चों का गड्ढे में गिर जाना महज एक हादसा नहीं होता। यह  ठेकेदार या जमीन के मालिक या प्रबंधक का अपनी जिम्मेदारी से पलट जाने का उदाहरण भी है। जो बच्चे ऐसे हादसों के शिकार होते हैं, वे गरीबों व मजदूरों के होते हैं। मां-बाप काम पर लगे होते हैं और बच्चे भाग्यभरोसे। खेलते-खेलते बच्चे लापरवाही के इन गड्ढों में गिर पड़ते हैं। हमारे लिए उन बच्चों की कीमत नहीं है। कीमत तो मीडिया के लाईव कवरेज और उसके बाद कि बेमतलब बहस की होती है। बच्चा कहां अटका है। बचाव में क्या कुछ किया जा रहा है। नामी-गिरामी लोग आ-जा रहे हैं। दुखी, परेशान, चिंतित मां-बाप पूजा पाठ कर रहे हैं। उनके लिए दुआओं में सैकड़ों हाथ उठ जाते हैं। मंदिरों में पूजा, मस्जिदों में नमाज के दौर शुरू हो जाते हैं। एसएमएस कर लोग अपनी भावनाएं व्यक्त करने लगते हैं। ऐसा लगता है, जैसे सारा देश उस बच्चे की जिंदगी की जंग में शामिल हो। सबकुछ ‘पीपली लाइव’ की तरह।
बच्चे के बोरवेल के खुले गड्ढे में गिरने की घटनाओं के बाद देश में एक के बाद एक ऐसे कई मामले आए लेकिन ऐसा कहीं सुनाई नहीं दिया कि कहीं छोटे स्तर से लेकर जिला स्तर तक कोई मुहिम चलाई गई हो, जहां ऐसे जानलेवा गड्ढों को बंद किया गया हो। ऐसी कोई जागरूकता नहीं दिखाई दी जिसमें मामूली खर्च कर लोगों ने स्वयं अपने आसपास खुले ऐसे मौत के सामान को बंद करवाने की पहल की हो। क्या प्रशासन और हम खुद इतना भी सुनिश्चित नहीं कर सकते कि ऐसे गड्ढे खुदे न रहें, चाहे वे बोरवेल के लिए खोदे जा रहे हों या किसी अन्य वजह से। अपने आसपास के मसलों से ज्यादा हमें देष और दुनिया के मसले चिंतित करते हैं। इन राष्ट्रीय चिंताओं में वे मसले गौण होते जाते हैं जो हमारे जीवन में बड़ा महत्व रखते हैं। ये मसले गौण क्यों होते हैं? यह सवाल हम सबसे है, उस प्रशासन से भी जिसकी चमड़ी आमतौर पर मोटी ही होती है। 

145 की जान गई, केवल वेदघोषे साहब ने दिखाई चेतना :

लापरवाही की धुंध ही धुंध नजर आती है चारों ओर। ऐसे में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने साथ हुए हादसों को नहीं भूलते। बल्कि, उस दुख को बदलाव की प्रेरणा बना लेते हैं। ऐसे ही हैं भोपाल के विश्वास वेदघोषे। उन्होंने अपने 15 साल के बेटे मंदार को खोया है पिछली मार्च को। मंदार 10 वीं में पढ़ता था और अपने दोस्तों के साथ केरवा डेम गया था, नहाने के लिए। वहां एक निरापद से दिखाई देने वाले पानी भरे गड्ढे में मंदार और उसका दोस्त गिए गए। दोस्त तो बच गया लेकिन मंदार को बचाया न जा सका। इस क्रूर घटना के पहले 144 लोगों की केरवा में डूब कर मृत्यु हो चुकी है। सभी भूल गए लेकिन विश्वास वेदघोषे ने भूलाया नहीं। बेटे की चिता की अग्नि बुझी भी नहीं थी कि जुट गए उस पानी भरे जानलेवा गड्ढे से औरों के बच्चों को बचाने में। सबसे पहले वहां अपनी ओर से सुरक्षाकर्मी तैनात किए। फिर सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा-लगा कर घोषे दम्पत्ति ने उसे बंद करवाया। इस काम में 3-4 लाख खर्च भी हुए लेकिन परवाह नहीं की। मानते हैं बेटे की याद में इससे बड़ा कार्य ओर क्या होगा कि किसी और का बच्चा यहां अपनी जान गंवाए।
क्या यह लापरवाही, कामचोरी, गैरजिम्मेदारी के दौर में उम्मीद का घोष नहीं है?

अंत में :

लडे बिना जीना मुहाल नहीं है,
गा रही थी एक बया,
घौंसला बुनते हुए,
कुछ चींटियां फुसफुसा रही थीं आपस में
कि जितने लोग होते हैं,
गोलियां अक्सर उतनी नहीं हुआ करतीं।
लोग लड़ेंगे,
लड़ेंगे और सीखेंगे,
लड़कर ही यह सीखा जा सकता है,
कि सिर्फ पत्तियां नोंचने से नहीं बदलती तस्वीर। 
- रवि कुमार




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