साहित्यकार, कला-साहित्य आलोचक, ब्यूरोक्रेट और भारत भवन के शिल्पकार अशोक वाजपेयी पिछले दिनों फिर चर्चा में आये जब उन्होंने साहित्य अकादेमी अवार्ड लौटाते हुए असहमति की स्वंतत्रता पर आसन्न खतरे का विरोध किया। यह सम्मान उन्हे 1994 में मिला था। वे मानते हैं कि असहिष्णुता इस देश का चरित्र नहीं है। भोपाल प्रवास पर आये वाजपेयी ने चर्चा करते हुए साहित्यकारों के विरोध और इस विरोध की आलोचना में उठे स्वरों पर विस्तार से बात की। वाजपेयी ने कहा कि यह संघर्ष यात्रा बहुत लंबी है। ये उन सामाजिक तत्वों से भी संघर्ष है जिनको सत्ता का मौन समर्थन प्राप्त है। उनको इतनी आसानी से अपदस्थ नहीं किया जा सकता। सत्ता तो फिर भी बदली जा सकती है लेकिन जो सामाजिक वृत्तियां विकसित हो गई हैं उन्हें एकदम से नहीं बदल सकते। वाजपेयी से दृढ़ता सेे कहा कि भाजपा की समस्या यह है कि इनकी विचार दृष्टि इतनी बांझ और अनउर्वर है कि उससे उत्कृष्टता निकल ही नहीं सकती। इस बातचीत के प्रमुख अंश:
सम्मान लौटाने के पीछे दो चीजें थी। एक तो यह कि लोगों का ध्यान इस आकर्षित हो कि देश में सामाजिक समरसता, परस्पर संवाद, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि क्षेत्रों में क्या हो रहा है और उसके दूरगामी परिणाम क्या होने वाले हैं। इसतरह एक तरफ तो सरकार को चेताना था और उससे ज्यादा लोगों को बताना था कि इस समय सावधानी और सतर्कता की आवष्यकता थी। लेखक लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं? एक तो वे लिख कर सकते हैं जो दूरगामी प्रोजेक्ट होता है। पहले भी लिखते रहे हैं और अभी भी लिख रहे हैं सम्मान लौटाने जैसा कुछ नाटकीय भी करना आवष्यक है। चूंकि ऐसा निजी फैसले थे, आपस में मिल कर तय नहीं हुई थी। मुझे उदय प्रकाश ने फोन किया था। उदय प्रकाश साहित्य अकादेमी के लिए मुझ पर एक फिल्म बना रहे हैं तो मुझे लगा कि मैं साथ जाऊंगा तो सम्मान लौटाने को उस फिल्म से जोड़ा जायेगा। लेकिन जब नयनतारा सहगल जैसी साहित्यकार ने सम्मान लौटाया और फिर जब अंग्रेजी साहित्यकारों ने भी सम्मान लौटाये तो मैंने इस पर विचार किया। आमतौर पर अंग्रेजी के साहित्यकार ऐसे कार्यों में हिन्दी वालों का साथ नहीं देते हैं। लेकिन ये नहीं सोचा था कि इनका इतना व्यापक असर होगा। अब तो वैज्ञानिकों-कलाकारों ने भी इस विरोध में साझा करना आरंभ कर दिया है।
भाजपा सरकारों ने संस्थाओं को नष्ट ही किया :
विरोध में यदि में वैकल्पिक दृष्टि लायें तो ठीक है लेकिन भाजपा की समस्या यह है कि इनकी विचार दृष्टि इतनी बांझ और अनउर्वर है कि उससे उत्कृष्टता निकल ही नहीं सकती। ये लोग चुन-चुन कर बौनों को रख रहे हैं जैसे राष्ट्रीय पुस्तक न्यास में किसी को नियुक्त कर दिया। ये इसलिये सुनियोजित हैं कि जहां-जहां भाजपा सत्तारूढ़ हैं वहां इन्होंने संस्थाओं को नष्ट ही किया है। कोई नई संस्था नहीं बनाई। भोपाल में बनाया गया आदिवासी संग्रहालय एकमात्र अपवाद है लेकिन इसे भी आप भारत भवन से प्रेरित कह सकते हैं। पूरे देश में उनका काम संस्थाओं को नष्ट करना, उन्हें हथियाना, उनका कद गिराना। यही हो सकता है क्योंकि उनके पास उत्कृष्ट विकल्प है ही नहीं। जब आप रोमिला थापर और इरफान हबीब के मुकाबले दीनानाथ बत्रा को खड़ा करेंगे तो सारे बौद्धिक जगत में आपकी जग हंसाई होगी। वामपंथी इतिहासकारों ने ज्यादती की है तो उनके तर्क को काटने के लिए उस स्तर के लोग को चाहिये जो उसी दर्जे का तर्क दे सकें।
बाइबल-कुरान एक, हमारे पास 4 वेद :
अब तो मैं कहता हूं कि आरएसएस और भाजपा से हिन्दुत्व पर बहस की जाये। हम उनसे कहें कि हमारी दृष्टि में हिन्दू धर्म क्या है और हमारी समझ क्या है। आप लाइये साक्ष्य और हम देते हैं साक्ष्य। जिस धर्म में स्वयं देवताओं, भाषा, खानपान की इतनी बहुलता है। जिसमें 33 करोड़ देवी देवता हैं। उस धर्म में बहुलता के खिलाफ आप तर्क देते हैं। कुरान और बाइबिल के मुकाबले हमारे पास चार वेद हैं, उपनिषद अठारह हैं, दो महाकाव्य हैं। इन सबके बीच षैव और षाक्य के बीच, षैव और सांख्य के बीच झगड़े भी होते रहे हैं। जिस धर्म में एक आदिवासी महिला को भगवान को झूठे बैर खिलाने का सौभाग्य प्राप्त है, जिस धर्म में उडू़पी में एक दलित को मंदिर में प्रवेश न देने पर भगवान कृष्ण की प्रतिमा का मुख उस ओर पलट गया जिस ओर दलित पूजा कर रहा था। ये हिन्दू धर्म है। इसे एक ही में कैसे बदल सकते हैं? हमारे तर्क का जवाब प्रतितर्क से दीजिये। ये कहिये कि यह प्रतितर्क है। आप कहेंगे कि हम उल्लू है तो यह तो गाली हुई। तर्क का उत्तर प्रतितर्क से दिया जा सकता है। लात तो गधे भी मारते हैं।
विरोध का स्तर ही विरोधियों का चरित्र :
आप जिसका विरोध करते हैं वह क्या प्रत्युत्तर में क्या कर रहा है इससे सामने वाले की गुणवत्ता और स्तर भी पता चलता है। मैं तो सोशल मीडिया देखता नहीं हूं लेकिन सुनता हूं कि उसमें बहुत घटिया स्तर पर चरित्र हनन की कोषिषें की गई। ठीक है। यह बताता है कि हमारे विरोधी किस स्तर पर हैं।
आपातकाल या 1984 में क्यों नहीं लौटाया :
ऐसा है कि कोई कब विरोध करे, यह तो उसका निर्णय है। आप तो तय नहीं कर सकते कि कोई कब विरोध किया जाये। यह तो पहली बात। दूसरी बात यह कि 1984 या आपातकाल के दौरान इन साहित्यकारों को पुरस्कार मिला ही नहीं था। वे सारी घटनायें निंदनीय थीं लेकिन वे वैसी सुनियोजित नहीं थीं जैसी आज की घटनायें हैं। ये हर क्षेत्र में धीरे-धीरे फैल रही हैं। तीन लेखक और बुद्धिजीवी तो जान से मारे गये हैं लेकिन इसके अलावा भी काफी काम हो रहे हैं। संस्थाओं का अधिग्रहण हो रहा है। ललित कला अकादेमी को भंग कर दिया गया। जवाहर लाल नेहरू स्मारक पुस्तकालय में घुसपैठ की गई है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का अध्यक्ष अज्ञात कुलशील व्यक्ति को बना दिया गया है। आईआईटी में सामिष भोजन मांगने पर छात्रों को देशद्रोही तथा हिन्दुद्रोही कहा गया। इस तरह का वातावरण फैलेगा तो विरोध तो होगा। ये भी तर्क दिया गया कि ये घटनायें तो उन राज्यों में हुई जहां कांग्रेस या सपा जैसे दलों की सरकारें थीं। सही है। हमें भी पता है। लेकिन ये सारी सरकारें भी इन चीजों के प्रति असंवेदनषील भाव रख रही हैं। हमारा उद्देष्य किसी एक सरकार की निंदा करना नहीं है। जब इतने बहुमत से आई सरकार केन्द्र में है तो उसकी जिम्मेदारी बनती है।
मुखर प्रधानमंत्री चुप क्यों?
जिस दिन हमने सम्मान लौटाया उसी दिन राष्ट्रपति ने इस देश की एकता के खतरे पर ध्यान आकृष्ट किया। उसी दिन प्रधानमंत्री ने भी राष्ट्रपति की चेतावनी पर ध्यान देने की बात कही थी। हम सिर्फ विरोध के लिए तो विरोध नहीं कर रहे हैं। आपके आचरण से भी पता चला रहा है कि यह हो रहा है। फिर आप चुप क्यों हैं? एक इतना मुखर-वाचाल प्रधानमंत्री जिसकी हर छोटी-बड़ी चीज पर अपना मत प्रकट कर रहा है, वो फिर क्यों चुप है? छोटी-छोटी बातों पर आप एडवाइजरी जारी करते हैं तो फिर ये तो उनसे बड़ा खतरा है। ये तो देष के टूटने का खतरा है। एक तरह से असहमति के असम्मान का खतरा है। इसकी ओर क्यों ध्यान आकर्षित नहीं कर रहे?
सरकार कैसे बतायेगी कि हम क्या करें?
सरकार ने एक नया तरीका अपनाया है। राजनीतिक दृष्टि से उचित, संवैधानिक दृष्टि से वैध वक्तव्य देना। कहो कि हम देश की एकता पर किसी भी खतरे का मुकाबला डट कर करेंगे जैसा कि वित्तमंत्री अरूण जेटली ने कहा। लेेकिन अपने आचरण में प्रकट मत होने दो। अब यदि यह सरकार तय करने लगे कि हम क्या सोचें और क्या न सोचें, क्या लिखें और क्या न लिखें, क्या खायें और क्या न खायें तो सोचना चाहिये कि हम कहां जा रहे हैं। ये न तो हमारे संविधान से निकलती हुई दृष्टि है और न हमारी परम्परा से निकलती हुई दृष्टि है। यह तो हमारी परम्परा का घोर अपमान है। हमारी परम्परा में शास्त्रार्थ जैसी सामाजिक संस्था थी। किसी नये विचार को तब तक प्रतिष्ठित तथा स्थापित नहीं किया जा सकता था जब तक कि खुले वाद-विवाद में उसे सिद्ध न कर दें। जिस देष में यह परम्परा रही है, उस देश में क्या आप ये कहेंगे कि जो हमसे अलग है, वह देशद्रोही है, जो हमारे धर्म को नहीं मानेगा वो हमारे धर्म का विरोधी है? फिर वो किसी भी तरह के अल्पसंख्यक सिर्फ धर्म के ही अल्पसंख्यक नहीं आप अगर विचार में अल्पसंख्यक, आप अगर मूल्य दृष्टि में अल्पसंख्य है तो क्या देष में जगह नहीं रहेगी? फिर लोकतंत्र क्या है?
आगे क्या?
ये एक लम्बी संघर्ष यात्रा है। ये उन सामाजिक तत्वों से भी संघर्ष है जिनको सत्ता का मौन समर्थन प्राप्त है। उनको इतनी आसानी से अपदस्थ नहीं किया जा सकता। सत्ता तो फिर भी बदली जा सकती है लेकिन जो सामाजिक वृत्तियां विकसित हो गई हैं उन्हें एकदम से नहीं बदल सकते। दूसरी तरफ, मंत्रियों के इस तरह से गैर जिम्मेदार, बचकाना बयान आते रहते हैं, एक के बाद एक। उनको आप चुप नहीं करवा सकते? हम 1 नवंबर को दिल्ली में एक राष्ट्रीय अधिवेशन कर रहे हैं। इसमें बड़ी संख्या में लेखकों-कलाकारों के भाग लेने की उम्मीद है। फिर सोचेंगे कि क्या किया जाना चाहिये।
भारत भवन को स्थानीय संस्था बना दिया :
भारत भवन मेरी दुखती रग है। वो इसलिये कि इसे बनाने में, दस साल तक इसे चलाने में, इसको अंतराष्ट्रीय कीर्ति के षिखर तक पहुंचाने में हम लोगों की भूमिका रही है। हमने अबाध ढंग से यह काम किया था। कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था। कोई नौकरशाही या प्रशासनिक हस्तक्षेप नहीं था। हमें पूरी तरह स्वतंत्रता थी और हमने एक बहुलतावादी परिसर बनाया था। उसमें वो लोग भी बुलाते थे जो हमारी दृष्टि से सहमत नहीं थे। जैसे विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा आदि। कह सकते हैं कि ये भाजपा की विचारधारा से अधिक निकट माने जाते थे। हम उन्हें भी आदर से बुलाते थे क्योंकि वे जिम्मेदार लोग थे। वे अपने से अलग दृष्टि का भी सम्मान करने वाले लोग थे। अब धीरे-धीरे जिस तरह से हस्तक्षेप बढ़ते गये हैं, भारत भवन एक स्थानीय संस्था बन कर रह गया है। यह भाजपा सरकार के पहले एक-दो वर्षों में बन गई थी।