Wednesday, September 21, 2022

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला उस उस राही को धन्यवाद

हमें शुक्रगुजार होना चाहिए. हर उस शै के प्रति जो हमें मिली है. हर उस बात के लिए जिससे हमारे जीवन में सुविधाएं है. हर उस व्‍यक्ति के लिए जिसके होने से हमारे जीवन में आसानियां हैं. हर उस पल के लिए जिसके होने से हमारा होना मायने रखता है. हमें बचपन से सिखाया जाता है कृतज्ञ होना. अध्‍यात्‍म भी वही मार्ग दिखाता है जो तनावरहित जीवन प्रबंधन का सूत्र है, प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होना. हमें बार-बार कहा जाता है कि सोते वक्‍त आभार व्‍यक्‍त करो कि आज का दिन बेहतर गुजरा. अगले दिन जागो तो इस कृतज्ञता के साथ कि एक और दिन मिला है. मगर हम शायद कृतज्ञता व्‍यक्‍त करने में सबसे अधिक कंजूस हैं. प्रकृति के प्रति कम ही आभारी होते हैं. देवस्‍थान पर मन्‍नत मानते हुए झुकने वाले सिर अक्‍सर आभार जताना चूक जाते हैं. हमारे जीवन में ऐसे बहुसंख्‍य किरदार हैं जो खामोशी से हमारी जिंदगी को गुलजार किए हुए हैं, हम उनके प्रति कृतज्ञ होना भूल ही जाते हैं.


कृतज्ञता की बात इसलिए कि हमें आभार व्‍यक्‍त करना याद दिलाने के लिए एक दिन तय किया गया है और वह दिन आज 21 सितंबर को है. विश्व आभार दिवस मनाने के बारे में जो जानकारी उपलब्‍ध है वह बताती है कि वर्ष 1965 में अमेरिका के हवाई प्रांत में आभार जताने के लिए प्रति वर्ष एक दिन मनाने का निर्णय लिया गया. 1966 से 21 सितंबर को ‘विश्व आभार दिवस’ के रूप में मनाना शुरू किया गया. जब दिन है तो इसे किसी तरह मनाया भी जाएगा. अन्‍यथा तो हमें प्रायमरी की किताबों से लेकर धर्म ग्रंथों तक धन्‍यवाद का महत्‍व बताया गया है. छुटपन में सिखाया जाता है कि प्‍लीज, सॉरी और थैंक्‍यू जैसे तीन मेजिकल वर्ड्स से हर कार्य संभव है. धर्म कोई रहा हो, संस्‍कृ‍ति कोई भी हो, हर जगह सर्वशक्तिमान के प्रति आभार व्‍यक्‍त करने का विधान तो किया ही गया है. हमारी भारतीय संस्‍कृति परम सत्‍ता से इतर कण मात्र के प्रति भी कृतज्ञ रहने को निर्देशित करती है. शास्‍त्र न भी पढ़े हों तो भी गुरुओं ने हमें कृतज्ञता भाव सिखलाया है. तभी तो कबीर कह गए हैं:


गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय

बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय.


यानि गुरु और गोविंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो हमें बिना संकोच गुरु के चरणों में शीश झुकाना चाहिए क्‍योंकि गोविंंद  का दर्शन करवाने का कार्य तो गुरु ने ही किया है. मगर हमें हैं कि नाशुक्रा ही रह जाते हैं. जब कृतघ्‍नता की बात होती है तो बरबस नरेश मेहता की एक कविता याद हो आती है:


पसीने से लथपथ

वह उस वृक्ष की छाया तले पहुंचा.

छाया क्या थी

जल था,


टिका दी तने से कुल्हाड़ी

और गमछा बिछा लेट गया

निश्चिंत.


नींद जब खुली

पहर ढल रहा था,

वह हड़बड़ाता उठा

और लगा पेड़ काटने.


कृतघ्‍न के लिए इससे तीखा  तंज और क्‍या होगा? कृतज्ञ भाव अपना कर विराट हो जाने के हमारे मार्ग सबसे बड़ी बाधा अहम् की लघुता है. स्‍वयं को शक्तिमान समझ लेने का जवाब है कि हमारा मन प्रकृति के प्रति कृतज्ञ भाव से भरा होना चाहिए. उस वायु के लिए जिसके होने से हम सांस ले पा रहे हैं. उस जल के लिए जो हर बार हमारी प्‍यास बुझाता है. उस अग्नि के लिए जो हमारा भोजन पकाती है. उस आकाश के लिए जो हमारी विस्‍तार की सीमा है. उस धरती के लिए जो हमारे अस्तित्‍व का आधार है. जैसे, प्रियंकर अपनी एक कविता में कहते हैं:


कृतज्ञ हूं मैं

जैसे आसमान की कृतज्ञ है पृथ्वी

जैसे पृथ्वी का कृतज्ञ है किसान.


कृतज्ञ हूं मैं

जैसे सागर का कृतज्ञ है बादल

जैसे नए जीवन के लिए

बादल का आभारी है नन्हा बिरवा.


कृतज्ञ हूं मैं

जिस तरह कृतज्ञ होता है

अपने में डूबा ध्रुपदिया

सात सुरों के प्रति

जैसे सात सुर कृतज्ञ हैं

सात हजार वर्षों की काल-यात्रा के.


कृतज्ञ हूं मैं

जैसे सभ्यताएं कृतज्ञ हैं नदी के प्रति

जैसे मनुष्य कृतज्ञ है अपनी उस रचना के प्रति

जिसे उसने ईश्वर नाम दिया है.


मगर हम कृतज्ञ होना हर बार भूल जाते हैं. अपनों के प्रति सर्वाधिक धन्‍यवादविहीन होते हैं हम. बड़ों के प्रति श्रद्धानवत हो भी सकते हैं, समवय के प्रति कुछ न्‍यून तथा छोटों के प्रति अल्‍प कृतज्ञ ही होते हैं. हां, आजकल शब्दावली में थैंक्‍यू, सॉरी और प्‍लीज शब्‍दों ने कुछ ज्‍यादा जगह घेर ली है मगर वह केवल कहने तक ही सीमित है. व्‍यवहार में कृतज्ञता का भाव दुर्लभ श्रेणी का ही है.


कुछ लोग, कुछ घटनाएं हमें आभारी बने रहने को प्रेरित करती हैं. मजबूर करती हैं कि हमारी संवेदना जागृत हो. जैसे ‘धन्यवाद’ कविता में लीलाधर जगूड़ी लिखते हैं:


भिखारी

बच्‍चों को सड़कों पर छोड़ देते हैं

रेलवे स्‍टेशनों पर छोड़ देते हैं

ताकि ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों को

वे दिख सकें


भिखारी

सोते हुए भी अपने को नहीं ढँकते

ताकि निर्लज्‍ज दया आती रहे

सलज्‍ज लोगों को


भिखारी दया और दान का गुण

बचाए हुए हैं पूरी मानवता में

भिखारियों को दिया जाए

या मानवता को दिया जाए धन्‍यवाद.


जरा याद कीजिए, कितने ही किरदार होते हैं हमारे जीवन में, दिन में कितने ही लोग मिलते हैं, जिनके होने से हमारे जीवन में मायने हैं, आसानियां हैं, खुशियां हैं, मगर जान कर भी इनके महत्‍व को, उनके होने के प्रति अपनी कृतज्ञता को व्‍यक्‍त करने में हम पीछे ही रह जाते हैं. कभी संकोच में, कभी बाद में कह देंगे के भरोसे के फेर में. और जो कभी दुर्भाग्‍य से हमें आभार जताने का अवसर न मिले तो नाशुक्रा रह जाने की पीड़ा संग हो जाती है.

यहां शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की कविता रह-रह कर याद आती है:


जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद.


जीवन अस्थिर अनजाने ही

हो जाता पथ पर मेल कहीं

सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल

तय कर लेना कुछ खेल नहीं


दाएं-बाएं सुख-दुख चलते

सम्मुख चलता पथ का प्रमाद

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद.


सांसों पर अवलम्बित काया

जब चलते-चलते चूर हुई

दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली

नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई


पथ के पहचाने छूट गए

पर साथ-साथ चल रही याद

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद.


जो साथ न मेरा दे पाए

उनसे कब सूनी हुई डगर

मैं भी न चलूं यदि तो भी क्या

राही मर लेकिन राह अमर


इस पथ पर वे ही चलते हैं

जो चलने का पा गए स्वाद

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद.


कैसे चल पाता यदि न मिला

होता मुझको आकुल-अन्तर

कैसे चल पाता यदि मिलते

चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर


आभारी हूं मैं उन सबका

दे गए व्यथा का जो प्रसाद

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद.


थैंक्‍यू, मेहरबानी, शुक्रिया, धन्‍यवाद जैसे शब्‍दों का अपने जीवन में होना वैसी औपचारिकता नहीं हैं जैसी किसी समारोह के अंत में आभार प्रदर्शन एक औपचारिकता है. धन्‍यवाद कह देना हमें जरा विनम्र बना देता है. धन्‍यवाद भाव हमें अधिक मानव बना देता है. कृतज्ञता हमें अधिक तरल बना देती है. सोचिए, कितने लोगों को जाने कब से कहना है धन्‍यवाद. जाने कब से स्‍थगित है अपनी कृतज्ञता को व्‍यक्‍त करना. आज के दिन आभार जता देना, थोड़ा अधिक सुखी होने का मार्ग है. ज्ञानीजनों की बात मानिए, आज से ही इस राह पर चल दीजिए.

Saturday, September 17, 2022

Cheetah is Back: इतिहास रच दिया, चिंता है इतिहास खुद को दोहराए नहीं

17 सितंबर 2022। आज मध्‍य प्रदेश ही नहीं समूचे देश के लिए ऐतिहासिक दिन है। वह दिन जब करीब सात दशक बाद भारत में चीतों का आगमन हुआ है। अब हम ‘टाइगर इज बैक’ कहे या न कहे लेकिन ‘चीता इज बैक’ तो कह ही सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने जन्मदिन के मौके पर तीन चीतों को कूनो नेशनल पार्क में छोड़ा और एक इतिहास रच दिया। अब चीता प्रोजेक्‍ट के ‘जिंदा’ रहने की चिंता है। चीता के खत्‍म होने से भारत के घास के मैदानी क्षेत्र की ईकोलॉजी बुरी तरह बिगड़ी है। खुशी है कि चीता की वापसी से फुड चेन कायम की जा सकेगी। इस खुशी की बेला में आशंका का कुहांसा भी है। बिग कैट यानी बिल्‍ली वर्ग के इस सबसे नाजुक प्रकृति के प्राणी के लिए मुफीद वातावरण तैयार करना उतना मुश्किल नहीं है जितना दुरूह इसे मौत की परिस्थितियों से बचाना है। 

भारत सरकार ने आधिकारिक तौर पर 1952 में चीता को देश में विलुप्त घोषित किया था। माना जाता है कि इसके पहले देश में करीब 1000 चीते थे। मध्‍य प्रदेश के सरगूजा (अब छत्तीसगढ़ में) के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने 1947 में देश के अंतिम तीन चीतों को मार डाला था। उसके बाद से देश में चीता देखा नहीं गया। सार्वजनिक रूप से उपलब्‍ध तथ्‍य बताते हैं कि 70 के दशक में ईरान से एशियाई चीतों को भारत लाने का प्रयास किया गया था। वर्ष 2000 में हैदराबाद में 'सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी' ने ईरान से एशियाई चीतों का क्लोन बनाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन यह प्रस्ताव भी असफल रहा। फिर केंद्र सरकार के निर्देश पर वर्ष 2009 में देहरादून में 'इंडियन वाइल्ड लाइफ सोसाइटी' और 'वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया' ने चीते को अफ्रीका से भारत लाने का प्रस्ताव तैयार किया।

वर्ष 2009 में भी चीता आयात करने के निर्णय का विरोध हुआ था। तब वर्ष 2012 में यह विवाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था। इस बीच मध्‍य प्रदेश के कूनो में गुजरात से एशियाई सिंह यानी लायन लाने की तैयारी पूरी हो चुकी थी। गुजरात की अस्मिता से शेर को जोड़ दिए जाने की राजनीति का परिणाम यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी 2013 से अब तक गुजरात सरकार ने मध्‍य प्रदेश को सिंह लाने की इजाजत नहीं दी। वर्ष 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को विदेश से चीता लाने की अनुमति दी तो सिंह के लिए तैयार कूनो को चीता पुनर्वास के लिए उपयुक्‍त पाया गया। कूनो में चीता ला कर सिंह के पुनर्वास की तैयारी पर किए गए खर्च और सिंह को न भेजने से उपजे दाग को कम करने का प्रयत्‍न किया गया है। 

वैसे, चीता पुनर्वास के लिए भारत सरकार की मंशा ईरान से एशियाई चीतों को लाने की थी। अभी ईरान के पास लगभग 20 एशियाई चीते ही बचे हैं और इस कारण उसने भारत का आग्रह नहीं माना। ईरान के इंकार के बाद सरकार ने अफ्रीका की तरफ देखा। अफ्रीका में लगभग 7 हजार चीते हैं। 12 साल से अधिक की बातचीत के बाद नामीबिया अगले पांच सालों में 50 चीते भारत भेजने के लिए राजी हो गया है। नामीबिया से भारत लाए गए चीतों पर पांच सालों में कुल 75 करोड़ रुपए खर्च होंगे। इसके लिए इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन और पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के बीच अनुबंध हुआ है। 

अफ्रीका महाद्वीप से चीतों को लाकर रक्षित करने का प्रयोग पूर्वी अफ्रीकी देश मलावी में सफल रहा है। वहां 1980 के दशक के अंत तक चीता विलुप्त हो गया था। वर्ष 2017 में दक्षिण अफ्रीका से चार चीतों को मलावी में लाया गया था। अब वहां 24 चीते हैं। इसी प्रयोग से प्रेरित होकर चीतों को अफ्रीका महाद्वीप से भारत लाने का निर्णय लिया गया है।  भारत में चीता संरक्षण के लिए कई जगहों का चयन किया गया है। चीतों को रखने के लिए उपयुक्त स्‍थानों में गुरु घासीदास नेशनल पार्क छत्तीसगढ़, बन्नी ग्रासलैंड्स गुजरात, डुबरी वाइल्डलाइफ सेंचुरी, संजय नेशनल पार्क, बागडारा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी, नौरादेही वाइल्ड लाइफ सेंचुरी और कूनो नेशनल पार्क मध्यप्रदेश, डेजर्ट नेशनल पार्क वाइल्ड लाइफ सेंचुरी, शाहगढ़ ग्रासलैंड्स राजस्थान और कैमूर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी उत्तर प्रदेश शामिल हैं। चीता प्रोजेक्‍ट के तहत पहले चरण में आठ चीतों को मध्य प्रदेश के मिश्रित वन और घास के मैदान के 730 वर्ग किलोमीटर में फैले कूनो पार्क में लाया गया है। इसके बाद अगले चरण में मध्य प्रदेश के नौरादेही वन्यजीव अभयारण्य और राजस्थान के जैसलमेर जिले के शाहगंज में भी चीतों को लाया जाएगा। 

वैसे देश में चीता की वापसी 2011 से कर्नाटक के मैसूर शहर के श्री चमाराजेंद्र जूलॉजिकल पार्क में हुई थी। यहां जर्मनी से लाए गए चार चीता की मौत हो चुकी है। फिर 2020 में अफ्रीका से चीते लाए गए। इन 1 नर और 2 मादा चीतों को बाड़े में रखा गया है। आज उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। मैसूर में बाड़े में चीता रखने के प्रयोग के विपरीत कूनो में चीते को अपने प्राकृतिक आवास घास के मैदान में रखा गया है। 

एक तरफ यह उम्‍मीद है कि चीतों को कूनो में उन परेशानियों का जिनका सामना नहीं करना पड़ेगा जो वे मैसूर के बाड़ों या पिंजड़े में कर रहे हैं। लेकिन घास के मैदान वैसे नहीं है जैस बरसों पहले हुआ करते थे या अफ्रीकी देशों में अभी है। यही कारण है कि भारत में चीता आने के बाद चीतों के संरक्षण और पुनर्वास को लेकर संदेह गहरा गया है। खासकर तब जब देश में चीते का परंपरागत आवास घास के मैदान सिमट रहे हैं। चीता बिग कैट फैमिली का सबसे तेज रफ्तार जानवर है। तीन सेकंड में 100 किमी प्रति घंटे तक की रफ्तार हासिल कर लेता है। यह सवाल उठ रहे हैं कि अफ्रीकी महाद्वीप के लंबे-लंबे घास के मैदानों में फर्राटा भरने वाले चीते भारत के माहौल में कैसे ढलेंगे? घास के बड़े मैदानों के बिना चीतों के संरक्षण और पुनर्वास की योजना कैसे संचालित की जा सकती है?

चीता दहाड़ नहीं सकता है 

चीता बिग कैट फैमिली का अकेला ऐसा सदस्य है जो दहाड़ नहीं सकता। वह सिर्फ गुर्राता है। 96 प्रतिशत शावक बड़े होने से पहले ही मर जाते हैं। तेंदुआ, जंगली कुत्‍ते सहित अन्‍य जानवर चीते के बच्‍चों का शिकार कर लेते हैं। पारिस्थिति असंतुलन, नाजुक प्रकृति और ऐसे अन्‍य कारणों के चलते चीता के बच्‍चों के जिंदा रहने की दर 36 फीसदी के आसपास ही है। यही कारण है कि कूनो से सारे तेंदुओं को हटाया गया है। यहां उनके खाने की कमी को दूर करने के लिए चीतल लाए गए हैं। पेंच नेशनल पार्क को कुल 500 चीतल कूनो में शिफ्ट करने का टारगेट दिया गया है। चीतों के आगमन के बाद सांभर हिरणों के झुंड को छोड़ा जाएगा। 

वहीं, कई विशेषज्ञों का आरोप है कि वन्यजीवों और पक्षियों के संरक्षण या पुनर्वास को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता है। हमने जब वन्‍यप्राणी विशेषज्ञों से बात कि तो उन्‍होंने चीता के आहार को लेकर बड़ी आशंका व्‍यक्‍त की है। विशेषज्ञों का कहना है कि चीता का जीवन चक्र उनके दौड़ने पर निर्भर करता है। जितना तेज वह दौड़ता है उसका पसंदीदा शिकार सांभर, ब्लैक बक आदि तेजी से भागते हैं। जबकि चीतल कम गति से भागता है। उसे शिकार करने में चीता को अधिक मेहनत नहीं करनी होगी। ऐसे में मात्र 12 किलोमीटर के बाड़े में रहना उसके लिए अनुकूल नहीं होगा। चीतों के लिए चीतल का शिकार करना नया अनुभव होगा क्योंकि चीतल अफ्रीका में नहीं पाए जाते हैं। 

इस बात की फिक्र है कि नामीबिया के और भारत के जंगलों और जानवरों दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। बाघ को बचाने के तमाम उपायों के बाद भी टाइगर स्‍टेट में बाघों का शिकार आम बात है। इस कारण स्‍थानीय जानवर और फिर भारत का मौसम भी चीतों के लिए मुश्‍किल खड़ी कर सकता है। मानव-वन्यजीवों के बीच बढ़ता संघर्ष और चीतों के लिए भोजन की अनुपलब्धता जैसे कारणों के चलते इस दिशा में कई स्तरों पर चुनौतीपूर्ण स्थितियां बनी हुई हैं।

चीता संरक्षण के लिए बनाई गई कार्य योजना में कहा गया है कि यदि पांच वर्ष की अवधि के दौरान चीता जीवित रहने या प्रजनन करने में विफल रहते हैं तो ऐसी स्थिति में एक वैकल्पिक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा या फिर पूरे कार्यक्रम की ही समीक्षा की जा सकती है। यदि लगा कि कार्यक्रम बंद किया जा सकता है तो कार्यक्रम को बंद कर दिया जाएगा। 

चीतों को भारत लाए जाने के मुद्दे पर केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा है कि चीतों को भारत लाना उन गलतियों को सुधारने की दिशा में एक कदम है, जिनकी वजह से कभी भारत में यह जीव विलुप्त हो गए थे। पिछले कुछ सालों में भारत ने शेर, एशियाई हाथी, घड़ियाल और एक सींग वाले गैंडे जैसे विलुप्‍त होने की कगार पर पहुंच चुके कई प्राणियों को बचाया है। उन्होंने कहा कि चीतों को भारत लाना देश में ऐतिहासिक विकासवादी संतुलन को बनाए रखने की ओर अहम कदम साबित होगा।

हम उम्‍मीद भी यही करते हैं कि यह प्रयास सफल हों मगर वन्‍य प्राणी विशेषज्ञों की चिंताओं को नजरअंदाज करने से बात नहीं बनेगी। अगर इन चिंताओं का निराकरण नहीं किया गया तो देश के चीता विहीन होने का इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराएगा। 

(17 सितंबर 2022 को https://www.humsamvet.com में प्रकाशित) 


Monday, September 12, 2022

कर्मकांड की भेंट चढ़ गए थे ‘उसने कहा था’ वाले चंद्रधर शर्मा गुलेरी

Chandradhar Sharma Guleri Death Anniversary: जाने कितनी किताबों के प्रकाशन के आधार रहे चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की जीते जी कोई किताब नहीं छपी थी. वे कम लेकिन बेहतर लेखन के हिमायती थे. 'उसने कहा था' कहानी इसका प्रमाण है. जितनी यादगार उनकी कहानी और जीवन है, मृत्‍यु प्रसंग उतना ही कष्‍टदायक.

हिंदी साहित्‍य में रूचि रखने वाला शायद ही कोई होगा जिसने ‘उसने कहा था’ कहानी न पढ़ी हो. जिसने भी यह कहानी पढ़ी है वह इसके लेखक चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लेखन क्षमता का कायल हुए बिना नहीं रह सकता है. फिर यह पता चले कि गुलेरी ने मात्र तीन कहानियां ही लिखी हैं तो अचरज और भी बढ़ जाता है. उस पर यह भी एक तथ्‍य है कि आजीवन हिंदी की सेवा करने वाले प्रकांड विद्वान, जाने कितनी किताबों के प्रकाशन के आधार रहे गुलेरी जी की जीते जी कोई किताब नहीं छपी थी. वे कम लेकिन बेहतर लेखन के हिमायती थे और मात्र 39 वर्ष की उम्र में जब उनका देहांत हुआ तो यादगार लेखन व समृद्ध साहित्‍य सेवा का इतिहास छोड़ कर गए. जितनी यादगार उनकी कहानी और जीवन है, मृत्‍यु प्रसंग उतना ही कष्‍टदायक. उनकी मृत्‍यु प्राकृतिक न थी बल्कि एक शास्‍त्रज्ञाता ‘कर्मकांड’ की भेंट चढ़ गया.

आज पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की पुण्‍यतिथि है. लेखक, पत्रकार, विमर्शकार, अनुसंधनकर्ता और शास्त्रज्ञ आदि जैसे रूपों में गुलेरी जी को सम्‍मान के साथ याद किया जाता है. यूं तो उनके कार्यों की सूची लंबी है मगर समाज उन्हें केवल एक कहानी ‘उसने कहा था’ से जानता है. ‘उसने कहा था’ और गुलेरी जी इस बात के उदाहरण हैं कि किसी लेखक की केवल एक रचना उसे किस तरह अमरत्व प्रदान कर सकती है. ‘उसने कहा था’ एक ऐसी अविस्मरणीय कहानी है जिसने भारतीय साहित्य में गुलेरी को अक्षय कीर्ति प्रदान की, जिसने हिंदी कहानी को नई दिशा दी.









पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्‍म 7 जुलाई, 1883 को हुआ था. उनके पिता पंडित शिवराम जी ‘महाराज’ का जन्म गुलेर (कांगडा जिला तब पंजाब प्रांत, अब हिमाचल प्रदेश) में हुआ था. काशी में शास्त्रार्थ में अनेक विद्वानों को परास्त करने के बाद वे जयपुर राज्य के सवाई राम सिंह के आग्रह पर प्रधान पंडित नियुक्‍त हुए थे. अपने पिता के संघर्षपूर्ण जीवन, विद्वता और मान प्रतिष्ठा का गुलेरी जी के जीवन पर गहरा प्रभाव पडा. उनकी विद्वता का प्रमाण है कि मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में जयपुर वेधशाला के जीर्णोद्धार में प्रमुख भूमिका निभाई थी. गुलेरी जी ने जब लिखना शुरू किया तो अपने गांव के साथ गहरे सम्‍बन्‍ध को दर्शाने के लिए गुलेर से ‘गुलेरी’ उपाधि धारण कर ली.

गुलेरी जी दर्शन-शास्त्र में एमए करने के इच्छुक थे किंतु परीक्षा के एक दिन पहले वे देर रात तक अध्ययन करते रहे. नींद पूरी नहीं हुई और परीक्षा भवन में तंद्रा की अवस्था में ही रहे. स्‍वयं गुलेरी जी के शब्दों में ‘परीक्षा की आवश्यकता से भी बढ़कर विषय का अनुशीलन किया किन्तु अस्वस्थता के कारण परीक्षा न दे सका.’’ फिर 1904 में गुलेरी जी जयपुर राज्य के आग्रह पर खेतडी नरेश जयसिंह के शिक्षक और अभिभावक बनकर मेयो कॉलेज अजमेर चले गए. इस प्रकार उनका एमए करने का विचार पूरा न हो सका.

उनके विवाह की भी बडी अद्भुत कहानी हैं. गुलेरी जी की पुत्री डॉ. अदिति गुलेरी ने एक संस्‍मरण में बताया है कि लगभग बीस-बाइस वर्ष की अवस्था में गुलेरी जी का विवाह पद्मावती से हुआ था. प्रसंग है कि गुलेर गांव में उनके विवाह की तैयारियों हो चुकी थीं. दुर्भाग्यवश कन्या के पिता का देहांत हो गया. पिता शिवरामजी असमंजस में पड गए. वह बेटे को अविवाहित लेकर जयपुर नहीं लौटना चाहते थे क्‍योंकि उन्हें जयपुर राज्य की ओर से विवाह के लिए पांच सौ रुपये की सहायता प्राप्‍त हुई थी. इसीलिए शीघ्र ही ‘हरिपुर’ निवासी कवि रैणा की पुत्री पद्मावती से उनका विवाह करवाया गया.

जुलाई 1916 में गुलेरी जी ने मेयो कॉलेज अजमेर में संस्कृत विभागाध्यक्षक का पद संभाला. मेयो कॉलेज अजमेर में गुलेरी जी की कार्यदक्षता और योग्यता की धाक दूर-दूर तक फैल गई थी. उन दिनों महामना पंडित मदन मोहन मालवीय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए घूम-घूम कर धन एकत्र कर रहे थे. उनका गुलेरी जी से परिचय हुआ. मालवीय जी भी देश के कोने-कोने से चोटी के विद्वानों को बुलाकर हिन्दू विश्वविद्यालय में लाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे.

‘श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी: व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व’ के लेखक पीयूष गुलेरी ने एक संस्‍मरण में लिखा है कि हिंदी के प्रति उनकी आस्था इतनी गहरी थी कि उन्होंने अंग्रेज़ी के प्रयोग करने पर अपने मित्र रहे पंडित मदन मोहन मालवीय की भी आलोचना की. महामना पंडित मदन मोहन मालवीय सरल हिंदी की जगह अन्‍य भाषा के साथ मिश्रित हिंदी की पैरोकारी करने लगे. इसपर गुलेरी जी का विरोध ‘खुली चिठ्ठी’ के माध्यम से समालोचकः 1904 ईसवी में प्रकाशित हुआ. वे लिखते हैं:

‘वैसे ही जिन लोगों ने मालवीय जी की देखादेखी हिंदी का पक्ष लिया था, जो मालवीय जी की हिंदी को हिंदी मानते थे, वे आज मालवीय जी की दूसरी डिबिया को देखकर, चकराते हुए कह रहे हैं – सरल हिंदी, उर्दू मिश्रित हिंदी. जिज्ञासा यह है कि डिबिया जेब में कहां से आ गई? पहले ही से थी, या अब इसकी जरूरत पड़ी है?”

‘खरे सज्जनों को हरी चिट्ठियां’ वे व्यंग्यात्मक ढंग से लिखते हैं-

‘श्रीमान् ऑनरेबल पंडित मदन मोहन मालवीय: बीए, एलएलबी के नाम: ‘हमारे एक दयालु मित्र खो गए हैं. वे हमारे कृपालु थे, हमारी हिंदी के बड़े भारी सेवक और लेखक थे. उनका आपको कुछ पता है? कहां हैं? क्यों एकांतवास करते हैं? उनकी बोलती क्यों बंद हो गई है, इसका आपको पता है? हमारे वे सौम्यदर्शन ब्राह्मण मित्र’ पंडित मदनमोहन बीए इस नाम को भूषित करते थे और दैनिक हिन्दुस्तान के वे चिराग थे. कुछ लोग तो कहते हैं कि वे ही महाशय शैलूप की तरह नई भूमिका में ‘ऑनरेबल मालवीय’ के नाम से आ गए हैं. क्या यह भी सच है? युक्तप्रांत की कचहरियों में नागरी का चंचुप्रवेश करने वाला जो प्रसिद्ध है, वह और जो किसी काल में हिंदी का लेखक था, क्या एक ही व्यक्ति की सविधि (…) है? तो क्या वह महाशय धूपछाया के रंग का है? या अनेक रूपरूपाय का भक्त होने से ‘रूपं रूपं प्रति रूपो बभूव’ हो गया है? या लोगों के चश्मे का रंग बदल गया? या उसे हिंदी लिखने में लज्जा मालूम होती है? या इसमें यश नहीं मिलेगा? क्या कारण है कि उसके हाथ में नड़ की ग्रामीण क़लम न देखकर सभ्य फाउंटेन पेन देखते हैं! (-चिट्ठीवाला)’

गुलेरी जी ने सन् 1900 से 1922 के दौरान में हिंदी में बहुत लेखन किया. यहां तक कि उन्होंने छद्म नामों से भी कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेख लिखे. उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के प्रभावी संचालन के लिए बाबू श्याम सुन्दर दास को भी यथासम्भव सहयोग प्रदान किया. वे नागरी प्रचारिणी सभा के लिए तन-मन-धन से समर्पित रहे. वे सभा के लिए कुछ देना ही चाहते थे. वहां से कुछ लिया ही नहीं. यहां तक कि सभा का पानी भी ग्रहण नहीं करते थे. इस विषय में बाबू श्याम सुन्दर दास द्वारा पूछने पर उन्होंने कहा था, “मैं सभा को बेटी मानता हूं, बेटी के यहां का अन्न-जल ग्रहण करना निषिद्ध है.’

मित्रों की सहायता के लिए वे सदैव तत्‍पर रहते थे. उन्हें साहित्य-प्रकाशन से धन अर्जित करने या यश कमाने का जैसे कोई लालच ही न था. वे दूसरों के प्रेरणा -स्रोत रहे. राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त को साहित्यिक सम्मतियां दीं, राय कृष्णदास की पाण्डुलिपियों को सुधारा और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे विद्वानों के आदि देव बन गए. उन्होंने अपने मित्रों को रचनाओं के प्रकाशनार्थ उत्साहित किया किन्तु अपनी पुस्तक तक न छपवाई. साहित्य प्रकाशन में वे संख्‍या की जगह गुणवत्‍ता के पक्षधर थे. थोडा लिखा जाए परंतु स्तरीय लिखा जाए.

गुलेरी जी ने काशी पहुंच कर प्राच्य-विभाग का पुनर्गठन किया. लेकिन गुलेरी जी को काशी जाना फला नहीं. वह जिन भावनाओं को लेकर वहाँ गए थे, वे सब धरी की धरी रह गईं. वहां पहुंचने के कुछ समय पश्चात् उन पर एक-एक कर विपत्तियां टूटने लगीं.

अपने शोध ग्रथ में डॉ. पीयूष गुलेरी गुलेरी जी के अंतिम रोग के कष्‍ट का उल्‍लेख करते हैं. अपने भाई की पत्‍नी के अंतिम संस्कार के लिए वे काशी के ‘मणिकर्णिका घाट’ गए हुए थे. उनकी तबीयत ठीक नहीं थी. अतः उन्होंने स्‍नान न करते हुए गंगाजल का आचमन और छिडकाव ही किया. तब मृतका के भाई पंडित पद्मानाभ ने क्रोधित होकर कहा- ‘‘क्या तुम नहाओगे नहीं? जान पडता है तू ब्रह्म राक्षस है.’’

गुलेरी जी सनातनी थे. यदि उन्हें श्मशानघाट पर नहाना होता तो वस्त्रों सहित नहाते. उन्हें पद्मानाभ की बात से बडा क्षोभ हुआ. उन्होंने कहा- ‘अरे चाण्डाल! जो तू मेरे प्राण लेना चाहता है तो ले.’ यह कहकर वह गंगा में कूद गए, उसी दिन से उन्हें हल्का ज्वर रहने लगा. इस ज्‍वर को खत्‍म करने के अनेक उपाय हुए. उन्‍हें बर्फ की शीलाओं पर सुलाया जाता मगर रोग कम न हुआ. सोलह दिन उपरांत 12 सितंबर 1922 को हिंदी का यह भास्‍कर अस्‍त हो गया. उस समय उनकी दैहिक आयु उनतालीस वर्ष दो महीने और पांच दिन थी. ‘उसने कहा था’ जैसी कहानी व हिंदी सेवा के माध्‍यम से वे अमर हैं.


(Source: News18 Hindi में 12 September 2022 को प्रकाशित) 


Friday, September 9, 2022

भारतेंदु हरिश्‍चंद्र: जब महावीर प्रसाद द्विवेदी को झेलना पड़ा था व्‍यंग्‍य प्रहार

भारतेंदु हरिशचंद्र ने देहांत से पहले नवंबर 1884 में बलिया के ददरी मेले में आर्य देशोपकारिणी सभा में एक भाषण दिया था. इस भाषण का विषय था-भारत वर्ष उन्नति कैसे हो सकती है. उस समय अंग्रेजों का शासन था, और आजादी की कोई संभावना सामने नहीं दिखती थी. ऐसे में भारतेंदु ने देश की उन्नति के लिए देशवासियों को सुझाव दिए थे. लगता है 138 सालों बाद आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है. मानो यह भाषण आज के लिए ही दिया गया है.

आज भले ही नई हिंदी की बात हो रही है मगर हिंदी तो नई चाल में 1873 में ढली थी. भारतेंदु हरिशचंद्र ने लिखा था कि हिंदी नई चाल में ढली और हिंदी को इस चाल में ढालने के लिए भारतेंदु को मात्र दस वर्ष का समय मिला. इन दस वर्षों में हिंदी की सेवा में भारतेंदु हरिशचंद्र ने वो रच दिया जो इतिहास बन गया. आलोचकों की नजर में भाषा के बाद भारतेंदु का सबसे बड़ा योगदान नाटक और रंगमंच के क्षेत्र में रहा. उन्होंने पहली बार हिंदी में मौलिक नाटकों की रचना की. उन्हें हिंदी नाटक का युग प्रवर्त्तक करार दिया गया.









भारतेंदु हरिशचंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 बनारस के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था. 6 जनवरी 1885 को उनका देहांत हो गया. उनका मूल नाम ‘हरिश्चंद्र’ था और ‘भारतेंदु’ उनकी उपाधि थी. वे अत्‍यंत धनाढ्य परिवार से थे मगर साहित्‍य की सेवा और गरीबों के प्रति उदारता के कारण सबकुछ लुटा दिया. किसी को दु:खी और परेशान देखकर उसे तन के वस्त्र तक उतारकर दे देना भारतेंदु का सामान्‍य व्‍यवहार था. धनहीन होने पर उन्हें सबसे ज्यादा अफसोस इसी बात का होता था कि वह निर्धनों की सहायता नहीं कर पा रहे थे.

भारतेंदु के दान की बहुत-सी कहानियां प्रसिद्ध हैं. सर्दियों की रात में बाहर घूमते हुए उन्हें एक दरिद्र सोता हुआ मिला. उसे सर्दी से ठिठुरता देखकर उन्होंने उसे अपना दुशाला ओढ़ा दिया. एक बार नीचे फकीर को ओढना मांगते देखकर ऊपर से ही उसे दुशाला भेंट किया. किसी गरीब को फूलों का गजरा उतारकर उसमें पांच का नोट छिपाकर दे दिया. किसी को बेटी ब्याहने के लिए पेटी में दो सौ रुपये और साड़ियां भेंट की. कुछ न रहने पर एक निर्धन को लड़कियां ब्याहने के लिए उन्होंने हाथ की अंगूठी उतारकर दे दी और अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा, “मेरे यहां धन का अभाव है; यह अंगूठी आप ही के भाग्य से बची रह गई थी, इसे लीजिए.”

यह भी सर्वविदित है कि पुस्तकें और पत्रिकाएं छापने के लिए उन्होंने अपना खजाना खोल दिया. पुस्तकों के लिए पुरस्कार देने, दूसरों को पुस्तकें देने, साहित्यकारों की आर्थिक सहायता करने में उन्‍होंने कितना खर्च किया इसका कोई हिसाब नहीं है.

प्रख्‍यात आलोचक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्‍तक ‘भारतेंदु हरिश्‍चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्‍याएं’ में भारतेंदु के जीवन के कई अनजाने पहलुओं का उल्‍लेख किया है. इसमें भारतेंदु की पत्रिका में प्रकाशित एक विज्ञापन में हुई मात्रा की त्रुटि पर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को मिले व्‍यंग्‍य प्रत्‍युत्‍तर का भी जिक्र है. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने भारतेंदु हरिशचंद्र द्वारा लिखे एक विज्ञापन में ‘का’ की जगह ‘को’ लिख दिए जाने की भूल दिखाते हुए कहा था कि संभव है, उन्होंने वाक्य ठीक लिखा हो, लेकिन छापे वालों की असावधानी से त्रुटियां रह गई हों.

इस पर बालमुकुंद गुप्त ने तीखा व्यंग्य लिखा. ‘भाषा की अनस्थिरता’ नाम के अपने ऐतिहासिक निबंध में बालमुकुंद गुप्‍त ने लिखा था, “एक तो काशी ऐसा स्थान है, जिसकी विद्या के हिसाब से कुछ गिनती ही नहीं. जहां न कोई संस्कृत जानता है न संस्कृत का व्याकरण, हिंदी पढ़ा-लिखा तो वहां होगा ही कौन, क्योंकि हिन्दी वहां की मातृ भाषा है. फिर हरिश्चंद्र जैसा विद्या-शून्य आदमी, जिसने लाखों रुपए हिंदी के लिए स्वाहा कर डाले और पचासों ग्रंथ हिन्दी के रच डाले, भला वह क्या एक पूरे पौने दो वाक्य का विज्ञापन शुद्ध लिख सकता था? कभी नहीं, तीन काल में नहीं! छापे वाले कभी नहीं भूले, हरिश्चंद्र ही भूला; क्योंकि वह व्याकरण नहीं जानता था. न तो उसे कर्म के चिह्न ‘को’ का विचार था, न वह सर्वनाम की जरूरत की खबर रखता था. क्या अच्छा होता कि द्विवेदीजी का दो दर्जन साल पहले जन्म होता और हरिश्चंद्र को आपके शिष्यों में नाम लिखाने तथा कुछ व्याकरण सीखने का अवसर मिल जाता! अथवा यही होता कि दो दर्जन वर्ष हरिश्चंद्र और जीता, जिससे द्विवेदीजी से व्याकरण सीख लेने का अवसर उसे मिल जाता.”

रामविलास शर्मा लिखते हैं बालमुकुंद गुप्‍त ने भारतेन्दु के सम्मान की रक्षा के लिए यूं व्यंग्णास्त्र उठाया है मानो किसी ने पवित्र देवमंदिर को भ्रष्ट कर दिया हो या उनके गुरु को ही गाली दी हो.

मात्र 34 वर्ष 4 महीने की छोटी सी आयु में भारतेंदु ने भाषा, साहित्य और समाज में व्यापक परिवर्तन कर दिया. उनके लिखे और अनुवादित किए हुए नाटक साढ़े आठ सौ पृष्ठों में छपे हैं. साढ़े आठ सौ से कुछ ऊपर पृष्‍ठों में उनकी कविताएं छपी हैं. उनके लेख कई हजार पन्ने घेरेंगे. उनके लिखे हुए पत्रों की कोई गणना नहीं है. इतने परिमाण में साहित्य रचना परिश्रम करने की अद्भुत क्षमता प्रकट करता है. कहा जाता है कि भारतेंदु का पुस्तकालय एक लाख रुपये में बिक सकता था, लेकिन उन्होंने बेचने से इंकार कर दिया था. उन्होंने इस पुस्तकालय की तो पुस्तकें पड़ी ही होंगी? इसके सिवा जो पढ़ा हो, सो थोड़ा.

भारतेंदु  ने अपने देहांत से पहले नवंबर 1884 में बलिया के ददरी मेले में आर्य देशोपकारिणी सभा में एक भाषण दिया था. यह नवोदिता हरिश्‍चंद्र चंद्रिका में दिसंबर 1884 के अंक में छपा था. इस भाषण का विषय था-भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है. उस समय अंग्रेजों का शासन था, और आजादी की कोई संभावना सामने नहीं दिखती थी. देश की उन्नति कैसे हो, इसके बारे में भारतेंदु ने देशवासियों को सुझाव दिए थे. इस भाषण के केंद्र में यह चिंता थी कि देश की उन्नति कैसे हो सकती है.

चर्चित नाटक ‘भारत दुर्दशा’ में भारतेंदु ने अंग्रेजी राज की जितनी तीखी आलोचना की है उतनी ही तीखी आलोचना भारतीय जनता की भी की है. इसमें एक ओर अंग्रेजी शासन और शोषण के दृश्‍य हैं तो दूसरी ओर भारतीय जनता के आलस्‍य, अंधविश्वास, भाग्यवाद और जातिवाद की तस्‍वीरें भी है. इन दृश्‍यों में भारत की उन्‍नति के बीज छिपे हैं. बलिया वाले भाषण में भी भारतेंदु ने भारत की गुलामी के कारण बताए हैं :

  • हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं. यद्यपि फर्स्ट क्लास, सेकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी हैं पर बिना इंजन ये सब नहीं चल सकतीं, वैसे ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते. 
  • राजे-महाराजों को अपनी पूजा भोजन झूठी गप से छुट्टी नहीं. हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है, कुछ बॉल, घुड़दौड़, थिएटर, अखबार में समय गया. कुछ बचा भी तो उनको क्या गरज है कि हम गरीब गंदे काले आदमियों से मिलकर अपना अनमोल समय खोएं.
  • पहले भी जब आर्य लोग हिंदुस्तान में आकर बसे थे, राजा और ब्राह्मणों ही के जिम्मे यह काम था कि वे देश में नाना प्रकार की विद्या और नीति फैलाएं। ये लोग चाहें तो हिंदुस्तान प्रतिदिन-प्रतिक्षण बढ़ सकता है पर इन्हीं लोगों को सारे संसार के निकम्मेपन ने घेर रखा है.
  • अंग्रेजों के राज्य में सब प्रकार का सामान पाकर, अवसर पाकर भी हम लोग जो इस समय पर उन्नति न करें तो हमारा केवल अभाग्य और परमेश्वर का कोप ही है. अंगरेजों के राज्य में भी हम कूंए के मेंढ़क, काठ के उल्लू, पिंजड़े के गंगाराम ही रहें तो हमारी कमबख्त कमबख्ती फिर कमबख्ती है.क्या इंग्‍लैंड में किसान, खेतवाले, गाड़ीवान, मजदूर, कोचवान आदि नहीं है? किसी देश में भी सभी पेट भरे हुए नहीं होते. किंतु वे लोग जहां खेत जोतते, बोते हैं वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं कि ऐसी और कौन नई मशील या मसाला बनाएं जिसमें इस खेती में आगे से दूना अन्न उपजे. विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढ़ते हैं. जब मालिक उतरकर किसी दोस्त के यहां गया उसी समय कोचवान ने गद्दी के नीचे से अखबार निकाला. यहां उतनी देर कोचवान हुक्का पीएगा या गप्प करेगा. यह गप्प भी निकम्मी. वहां के लोग गप्प ही में देश के प्रबंध करते है. सिद्धांत यह कि वहां के लोगों का यह सिद्धांत है कि एक क्षण भी व्यर्थ न जाएं. यहां लोगों में जितना निकम्मापन होगा उसे उतना ही अमीर समझा जाता है.
  • राजा महाराजों का मुंह मत देखो, मत यह आशा रखो कि पंडितजी कथा में कोई देश का रुपया और बुद्धि बढ़ाने के उपाय बताएंगे. तुम खुद ही कमर कसो, आलस छोड़ो. दौड़ो इस घोड़दौड़ में जो पीछे रह गए तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है.


लगता है 138 सालों बाद आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है. मानो यह भाषण आज के लिए ही दिया गया है. अब यह प्रश्न होगा कि उन्नति और सुधार कैसे होगा? इसके भी सूत्र उसी भाषण में हैं :

  • सब उन्नतियों का मूल धर्म है. इससे सबके पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है. देखो, अंग्रेजों की धर्मनीति और राजनीति परस्पर मिली है, इससे उनकी दिन दिन कैसी उन्नति है. बीच में जो खराबी हुई है वह इसलिए कि लोगों ने धर्म का मतलब नहीं समझा. वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरणकमल का भजन है. बाकी सब तो समाजधर्म हैं जो देशकाल के अनुसार बदले जा सकते हैं.
  • महात्मा- ऋषियों के वंशजों ने बहुत से नए नए धर्म बनाकर रख दिए. सभी तिथियां व्रत और सभी स्थान तीर्थ हो गए. आंख खोलकर देख-समझ लीजिए कि ऋषियों ने कोई बात क्यों बनाई और उनमें देश और काल के जो अनुकूल और उपकारी हो उसको ग्रहण कीजिए.
  • बहुत सी बातें जो समाज-विरुद्ध मानी हैं किंतु धर्मशास्त्रों में जिनका विधान है उनको चलाइए. जैसे जहाज का सफर, विधवा विवाह आदि. लड़कों को छोटेपन ही में ब्याह करके उनका बल, वीर्य, आयुष्य सब मत घटाइए. आप उनके मां बाप हैं या उनके शत्रु हैं. कुलीन प्रथा, बहुविवाह को दूर कीजिए.
  • हिंदू, जैन, मुसलमान सब आपस में मिलिए. जाति में कोई चाहे ऊंचा हो चाहे नीचा हो सबका आदर कीजिए, जो जिस योग्य हो उसको वैसा मानिए. छोटी जाति के लोगों को तिरस्कार करके उनका जी मत तोड़िए. सब लोग आपस में मिलिए.
  • मुसलमान भाइयों इस हिंदुस्तान में बस कर वे हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें. ठीक भाइयों की भांति हिंदुओं से बरताव करें. ऐसी बात, जो हिंदुओं का जी दुखाने वाली हो, न करें. जो बात हिंदुओं को नहीं मयस्सर हैं वह धर्म के प्रभाव से मुसलमानों को सहज प्राप्त हैं. उनमें जाति नहीं, खाने पीने में चौका चूल्हे का भेद नहीं, विलायत जाने में रोक टोक नहीं. फिर भी बड़े ही सोच की बात है, मुसलमानों ने अभी तक अपनी दशा कुछ नहीं सुधारी. अब आलस हठधर्मी यह सब छोड़ो. चलो, हिंदुओं के साथ तुम भी दौड़ो, एकाएक दो होंगे. पुरानी बातें दूर करो. मीरहसन की मसनवी और इंदरसभा पढ़ाकर छोटेपन ही से लड़कों का सत्यानाश मत करो. अच्छी से अच्छी उनको तालीम दो. लड़कों को रोजगार सिखलाओ. विलायत भेजो. छोटेपन से मेहनत करने की आदत दिलाओ. सौ सौ महलों के लाड़ प्यार दुनिया से बेखबर रहने की राह मत दिखलाओ.
  • भाई हिंदुओ! तुम भी मतमतांर का आग्रह छोड़ो. आपस में प्रेम बढ़ाओ. इस महामंत्र का जप करो. जो हिंदुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग किसी जाति का क्यों न हो, वह हिंदू. हिंदू की सहायता करो. बंगाली, मराठी, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो.
  • अब तो नींद से चौंको, अपने देश की सब प्रकार उन्नति करो. जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी ही बातचीत करो. अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो.


(Source: News18Hindi में 9 September 2022 को प्रकाशित)