हमें शुक्रगुजार होना चाहिए. हर उस शै के प्रति जो हमें मिली है. हर उस बात के लिए जिससे हमारे जीवन में सुविधाएं है. हर उस व्यक्ति के लिए जिसके होने से हमारे जीवन में आसानियां हैं. हर उस पल के लिए जिसके होने से हमारा होना मायने रखता है. हमें बचपन से सिखाया जाता है कृतज्ञ होना. अध्यात्म भी वही मार्ग दिखाता है जो तनावरहित जीवन प्रबंधन का सूत्र है, प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होना. हमें बार-बार कहा जाता है कि सोते वक्त आभार व्यक्त करो कि आज का दिन बेहतर गुजरा. अगले दिन जागो तो इस कृतज्ञता के साथ कि एक और दिन मिला है. मगर हम शायद कृतज्ञता व्यक्त करने में सबसे अधिक कंजूस हैं. प्रकृति के प्रति कम ही आभारी होते हैं. देवस्थान पर मन्नत मानते हुए झुकने वाले सिर अक्सर आभार जताना चूक जाते हैं. हमारे जीवन में ऐसे बहुसंख्य किरदार हैं जो खामोशी से हमारी जिंदगी को गुलजार किए हुए हैं, हम उनके प्रति कृतज्ञ होना भूल ही जाते हैं.
कृतज्ञता की बात इसलिए कि हमें आभार व्यक्त करना याद दिलाने के लिए एक दिन तय किया गया है और वह दिन आज 21 सितंबर को है. विश्व आभार दिवस मनाने के बारे में जो जानकारी उपलब्ध है वह बताती है कि वर्ष 1965 में अमेरिका के हवाई प्रांत में आभार जताने के लिए प्रति वर्ष एक दिन मनाने का निर्णय लिया गया. 1966 से 21 सितंबर को ‘विश्व आभार दिवस’ के रूप में मनाना शुरू किया गया. जब दिन है तो इसे किसी तरह मनाया भी जाएगा. अन्यथा तो हमें प्रायमरी की किताबों से लेकर धर्म ग्रंथों तक धन्यवाद का महत्व बताया गया है. छुटपन में सिखाया जाता है कि प्लीज, सॉरी और थैंक्यू जैसे तीन मेजिकल वर्ड्स से हर कार्य संभव है. धर्म कोई रहा हो, संस्कृति कोई भी हो, हर जगह सर्वशक्तिमान के प्रति आभार व्यक्त करने का विधान तो किया ही गया है. हमारी भारतीय संस्कृति परम सत्ता से इतर कण मात्र के प्रति भी कृतज्ञ रहने को निर्देशित करती है. शास्त्र न भी पढ़े हों तो भी गुरुओं ने हमें कृतज्ञता भाव सिखलाया है. तभी तो कबीर कह गए हैं:
यानि गुरु और गोविंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो हमें बिना संकोच गुरु के चरणों में शीश झुकाना चाहिए क्योंकि गोविंंद का दर्शन करवाने का कार्य तो गुरु ने ही किया है. मगर हमें हैं कि नाशुक्रा ही रह जाते हैं. जब कृतघ्नता की बात होती है तो बरबस नरेश मेहता की एक कविता याद हो आती है:
कृतघ्न के लिए इससे तीखा तंज और क्या होगा? कृतज्ञ भाव अपना कर विराट हो जाने के हमारे मार्ग सबसे बड़ी बाधा अहम् की लघुता है. स्वयं को शक्तिमान समझ लेने का जवाब है कि हमारा मन प्रकृति के प्रति कृतज्ञ भाव से भरा होना चाहिए. उस वायु के लिए जिसके होने से हम सांस ले पा रहे हैं. उस जल के लिए जो हर बार हमारी प्यास बुझाता है. उस अग्नि के लिए जो हमारा भोजन पकाती है. उस आकाश के लिए जो हमारी विस्तार की सीमा है. उस धरती के लिए जो हमारे अस्तित्व का आधार है. जैसे, प्रियंकर अपनी एक कविता में कहते हैं:
मगर हम कृतज्ञ होना हर बार भूल जाते हैं. अपनों के प्रति सर्वाधिक धन्यवादविहीन होते हैं हम. बड़ों के प्रति श्रद्धानवत हो भी सकते हैं, समवय के प्रति कुछ न्यून तथा छोटों के प्रति अल्प कृतज्ञ ही होते हैं. हां, आजकल शब्दावली में थैंक्यू, सॉरी और प्लीज शब्दों ने कुछ ज्यादा जगह घेर ली है मगर वह केवल कहने तक ही सीमित है. व्यवहार में कृतज्ञता का भाव दुर्लभ श्रेणी का ही है.
कुछ लोग, कुछ घटनाएं हमें आभारी बने रहने को प्रेरित करती हैं. मजबूर करती हैं कि हमारी संवेदना जागृत हो. जैसे ‘धन्यवाद’ कविता में लीलाधर जगूड़ी लिखते हैं:
थैंक्यू, मेहरबानी, शुक्रिया, धन्यवाद जैसे शब्दों का अपने जीवन में होना वैसी औपचारिकता नहीं हैं जैसी किसी समारोह के अंत में आभार प्रदर्शन एक औपचारिकता है. धन्यवाद कह देना हमें जरा विनम्र बना देता है. धन्यवाद भाव हमें अधिक मानव बना देता है. कृतज्ञता हमें अधिक तरल बना देती है. सोचिए, कितने लोगों को जाने कब से कहना है धन्यवाद. जाने कब से स्थगित है अपनी कृतज्ञता को व्यक्त करना. आज के दिन आभार जता देना, थोड़ा अधिक सुखी होने का मार्ग है. ज्ञानीजनों की बात मानिए, आज से ही इस राह पर चल दीजिए.
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