Wednesday, September 21, 2022

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला उस उस राही को धन्यवाद

हमें शुक्रगुजार होना चाहिए. हर उस शै के प्रति जो हमें मिली है. हर उस बात के लिए जिससे हमारे जीवन में सुविधाएं है. हर उस व्‍यक्ति के लिए जिसके होने से हमारे जीवन में आसानियां हैं. हर उस पल के लिए जिसके होने से हमारा होना मायने रखता है. हमें बचपन से सिखाया जाता है कृतज्ञ होना. अध्‍यात्‍म भी वही मार्ग दिखाता है जो तनावरहित जीवन प्रबंधन का सूत्र है, प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होना. हमें बार-बार कहा जाता है कि सोते वक्‍त आभार व्‍यक्‍त करो कि आज का दिन बेहतर गुजरा. अगले दिन जागो तो इस कृतज्ञता के साथ कि एक और दिन मिला है. मगर हम शायद कृतज्ञता व्‍यक्‍त करने में सबसे अधिक कंजूस हैं. प्रकृति के प्रति कम ही आभारी होते हैं. देवस्‍थान पर मन्‍नत मानते हुए झुकने वाले सिर अक्‍सर आभार जताना चूक जाते हैं. हमारे जीवन में ऐसे बहुसंख्‍य किरदार हैं जो खामोशी से हमारी जिंदगी को गुलजार किए हुए हैं, हम उनके प्रति कृतज्ञ होना भूल ही जाते हैं.


कृतज्ञता की बात इसलिए कि हमें आभार व्‍यक्‍त करना याद दिलाने के लिए एक दिन तय किया गया है और वह दिन आज 21 सितंबर को है. विश्व आभार दिवस मनाने के बारे में जो जानकारी उपलब्‍ध है वह बताती है कि वर्ष 1965 में अमेरिका के हवाई प्रांत में आभार जताने के लिए प्रति वर्ष एक दिन मनाने का निर्णय लिया गया. 1966 से 21 सितंबर को ‘विश्व आभार दिवस’ के रूप में मनाना शुरू किया गया. जब दिन है तो इसे किसी तरह मनाया भी जाएगा. अन्‍यथा तो हमें प्रायमरी की किताबों से लेकर धर्म ग्रंथों तक धन्‍यवाद का महत्‍व बताया गया है. छुटपन में सिखाया जाता है कि प्‍लीज, सॉरी और थैंक्‍यू जैसे तीन मेजिकल वर्ड्स से हर कार्य संभव है. धर्म कोई रहा हो, संस्‍कृ‍ति कोई भी हो, हर जगह सर्वशक्तिमान के प्रति आभार व्‍यक्‍त करने का विधान तो किया ही गया है. हमारी भारतीय संस्‍कृति परम सत्‍ता से इतर कण मात्र के प्रति भी कृतज्ञ रहने को निर्देशित करती है. शास्‍त्र न भी पढ़े हों तो भी गुरुओं ने हमें कृतज्ञता भाव सिखलाया है. तभी तो कबीर कह गए हैं:


गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय

बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय.


यानि गुरु और गोविंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो हमें बिना संकोच गुरु के चरणों में शीश झुकाना चाहिए क्‍योंकि गोविंंद  का दर्शन करवाने का कार्य तो गुरु ने ही किया है. मगर हमें हैं कि नाशुक्रा ही रह जाते हैं. जब कृतघ्‍नता की बात होती है तो बरबस नरेश मेहता की एक कविता याद हो आती है:


पसीने से लथपथ

वह उस वृक्ष की छाया तले पहुंचा.

छाया क्या थी

जल था,


टिका दी तने से कुल्हाड़ी

और गमछा बिछा लेट गया

निश्चिंत.


नींद जब खुली

पहर ढल रहा था,

वह हड़बड़ाता उठा

और लगा पेड़ काटने.


कृतघ्‍न के लिए इससे तीखा  तंज और क्‍या होगा? कृतज्ञ भाव अपना कर विराट हो जाने के हमारे मार्ग सबसे बड़ी बाधा अहम् की लघुता है. स्‍वयं को शक्तिमान समझ लेने का जवाब है कि हमारा मन प्रकृति के प्रति कृतज्ञ भाव से भरा होना चाहिए. उस वायु के लिए जिसके होने से हम सांस ले पा रहे हैं. उस जल के लिए जो हर बार हमारी प्‍यास बुझाता है. उस अग्नि के लिए जो हमारा भोजन पकाती है. उस आकाश के लिए जो हमारी विस्‍तार की सीमा है. उस धरती के लिए जो हमारे अस्तित्‍व का आधार है. जैसे, प्रियंकर अपनी एक कविता में कहते हैं:


कृतज्ञ हूं मैं

जैसे आसमान की कृतज्ञ है पृथ्वी

जैसे पृथ्वी का कृतज्ञ है किसान.


कृतज्ञ हूं मैं

जैसे सागर का कृतज्ञ है बादल

जैसे नए जीवन के लिए

बादल का आभारी है नन्हा बिरवा.


कृतज्ञ हूं मैं

जिस तरह कृतज्ञ होता है

अपने में डूबा ध्रुपदिया

सात सुरों के प्रति

जैसे सात सुर कृतज्ञ हैं

सात हजार वर्षों की काल-यात्रा के.


कृतज्ञ हूं मैं

जैसे सभ्यताएं कृतज्ञ हैं नदी के प्रति

जैसे मनुष्य कृतज्ञ है अपनी उस रचना के प्रति

जिसे उसने ईश्वर नाम दिया है.


मगर हम कृतज्ञ होना हर बार भूल जाते हैं. अपनों के प्रति सर्वाधिक धन्‍यवादविहीन होते हैं हम. बड़ों के प्रति श्रद्धानवत हो भी सकते हैं, समवय के प्रति कुछ न्‍यून तथा छोटों के प्रति अल्‍प कृतज्ञ ही होते हैं. हां, आजकल शब्दावली में थैंक्‍यू, सॉरी और प्‍लीज शब्‍दों ने कुछ ज्‍यादा जगह घेर ली है मगर वह केवल कहने तक ही सीमित है. व्‍यवहार में कृतज्ञता का भाव दुर्लभ श्रेणी का ही है.


कुछ लोग, कुछ घटनाएं हमें आभारी बने रहने को प्रेरित करती हैं. मजबूर करती हैं कि हमारी संवेदना जागृत हो. जैसे ‘धन्यवाद’ कविता में लीलाधर जगूड़ी लिखते हैं:


भिखारी

बच्‍चों को सड़कों पर छोड़ देते हैं

रेलवे स्‍टेशनों पर छोड़ देते हैं

ताकि ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों को

वे दिख सकें


भिखारी

सोते हुए भी अपने को नहीं ढँकते

ताकि निर्लज्‍ज दया आती रहे

सलज्‍ज लोगों को


भिखारी दया और दान का गुण

बचाए हुए हैं पूरी मानवता में

भिखारियों को दिया जाए

या मानवता को दिया जाए धन्‍यवाद.


जरा याद कीजिए, कितने ही किरदार होते हैं हमारे जीवन में, दिन में कितने ही लोग मिलते हैं, जिनके होने से हमारे जीवन में मायने हैं, आसानियां हैं, खुशियां हैं, मगर जान कर भी इनके महत्‍व को, उनके होने के प्रति अपनी कृतज्ञता को व्‍यक्‍त करने में हम पीछे ही रह जाते हैं. कभी संकोच में, कभी बाद में कह देंगे के भरोसे के फेर में. और जो कभी दुर्भाग्‍य से हमें आभार जताने का अवसर न मिले तो नाशुक्रा रह जाने की पीड़ा संग हो जाती है.

यहां शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की कविता रह-रह कर याद आती है:


जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद.


जीवन अस्थिर अनजाने ही

हो जाता पथ पर मेल कहीं

सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल

तय कर लेना कुछ खेल नहीं


दाएं-बाएं सुख-दुख चलते

सम्मुख चलता पथ का प्रमाद

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद.


सांसों पर अवलम्बित काया

जब चलते-चलते चूर हुई

दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली

नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई


पथ के पहचाने छूट गए

पर साथ-साथ चल रही याद

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद.


जो साथ न मेरा दे पाए

उनसे कब सूनी हुई डगर

मैं भी न चलूं यदि तो भी क्या

राही मर लेकिन राह अमर


इस पथ पर वे ही चलते हैं

जो चलने का पा गए स्वाद

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद.


कैसे चल पाता यदि न मिला

होता मुझको आकुल-अन्तर

कैसे चल पाता यदि मिलते

चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर


आभारी हूं मैं उन सबका

दे गए व्यथा का जो प्रसाद

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद.


थैंक्‍यू, मेहरबानी, शुक्रिया, धन्‍यवाद जैसे शब्‍दों का अपने जीवन में होना वैसी औपचारिकता नहीं हैं जैसी किसी समारोह के अंत में आभार प्रदर्शन एक औपचारिकता है. धन्‍यवाद कह देना हमें जरा विनम्र बना देता है. धन्‍यवाद भाव हमें अधिक मानव बना देता है. कृतज्ञता हमें अधिक तरल बना देती है. सोचिए, कितने लोगों को जाने कब से कहना है धन्‍यवाद. जाने कब से स्‍थगित है अपनी कृतज्ञता को व्‍यक्‍त करना. आज के दिन आभार जता देना, थोड़ा अधिक सुखी होने का मार्ग है. ज्ञानीजनों की बात मानिए, आज से ही इस राह पर चल दीजिए.

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