Monday, June 19, 2023

शादी के पहले यह ‘कुंडली’ नहीं मिलाई तो खतरे में पड़ जाएगी जान

मध्‍यप्रदेश के खरगोन, झाबुआ, अलीराजपुर, शहडोल जैसे आदिवासी जिलों में कुछ समय पहले एक अजीब तरह का रोग पैर पसार रहा था. लोगों के जोड़ों में दर्द रहता था. बार-बार पीलिया हो रहा था. खून की कमी होने लगी थी तथा चेहरा पीला हो रहा था. उन्‍होंने झाड़-फूंक करवाई, सरकारी स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र से दवाई ली लेकिन बीमारी ठीक नहीं. ऐसे ही आदिवासी परिवार में एक युवक की स्थिति गंभीर हुई तो घबराहट बढ़ गई. यहां-वहां इलाज करवाते रहे. शारीरिक समस्‍या कि वजह से परिवार में काम करने वाले लोगों की संख्‍या भी कम हो गई. इलाज का खर्च भी बढ़ गया. इलाज के लिए पैसा जुटाते-जुटाते जमीन बिक गई. जब जिला अस्‍पताल में पहुंचे और युवक के खून की जांच हुई तो पता चला कि वह सिकल सेल एनीमिया के रोगी हैं. उनके परिजनों की जांच की गई तो पता चला कि दो बहन सिकल सेल वाहक निकले.

इसके बाद से परिवार की स्थिति में बदलाव आया है. इलाज बदस्‍तूर जारी है, मगर अब रोग न फैलने का तरीका पता चल गया है. सरकार भी इस मुहिम में जुट गई है कि सिकल सेल वाहक ओर रोगियों का डेटा बेस तैयार कर लिया जाए ता‍कि इस आनुवांशिक रोग को फैलने से रोकने के लिए शादी के पहले उचित सलाह दी जा सके.

यह रोग जनजातीय आबादी में अधिक फैला हुआ है इसलिए चिंता का कारण भी है. अब तक उपलब्‍ध आंकड़ें बताते हैं कि देश में करीब 10.30 करोड़ लोग सिकल सेल एनीमिया से पीड़ित हैं. इनमें सबसे अधिक छत्तीसगढ़ में दो करोड़ 55 लाख 40 हजार 192 लोग पीड़ित हैं. दूसरे स्थान पर मध्य प्रदेश है. एमपी में एक करोड़ 53 लाख 16 हजार 784 लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं. तीसरे स्थान पर महाराष्ट्र है, जहां एक करोड़ से ज्यादा मरीज हैं.

बीमारी और शादी का क्या कनेक्शन?

नवंबर 2021 में मध्‍य प्रदेश के आदिवासी बहुल अलीराजपुर और झाबुआ जिलों में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया गया था. इसके तहत दोनों जिलों में दस लाख लोगों की जांच की गई. जांच किए गए 9 लाख 93 हजार 114 व्यक्तियों में से 18 हजार 866 को वाहक के रूप में तथा 1,506 को रोगी के रूप में पाया गया. इसके बाद राज्य के सभी 89 आदिवासी ब्लॉकों में परियोजना का विस्तार किया गया है. इसके साथ ही सिकल सेल वाहक और रोगी को विवाह-पूर्व परामर्श और कार्ड दिए गए हैं, जिससे विवाह के समय सावधानी रखी जा सके. छत्तीसगढ़ ने हिंदी और अंग्रेजी में ‘सिकल कुंडली’ भी तैयार की है कि विशिष्ट सिकल सेल स्थिति वाले दो व्यक्तियों को शादी करनी चाहिए या नहीं.

लोगों को समझाया जा रहा है कि सिकल सेल एनीमिया ऐसा रक्त विकार है, जिसमें लाल रक्त कोशिकाएं जल्दी टूट जाती हैं जिसके कारण एनीमिया तथा अन्य स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍याएं जैसे फेफड़ों में संक्रमण, गुर्दे और यकृत की विफलता, स्ट्रोक आदि होती हैं. समस्‍या बढ़ने पर मृत्यु की आशंका रहती है. सिकल सेल की समस्‍या दो तरह से होती है. एक सिकल सेल वाहक होते हैं जिनमें कोई लक्षण नहीं होते हैं या बहुत कम लक्षण दिखाई देते हैं. दूसरे होते हैं, सिकल सेल रोगी जिनमें गंभीर लक्षण दिखाई देते हैं. सिकल सेल वाहक में गंभीर लक्षण नहीं होते हैं तो उन्‍हें कोई समस्‍या नहीं होती है मगर वे अगली पीढ़ी में असामान्य जीन को संचारित करते हैं, यानी उनके बच्‍चे सिकल सेल एनीमिया पीड़ित हो सकते हैं.

सिकल सेल को यह नाम लैटिन भाषा से मिला है. लैटिन में सिकल का अर्थ हंसिया होता है. जब लाल रक्त कोशिकाओं का आकार का लचीलापन खत्‍म हो जाता है और वह अर्द्ध गोलाकार एवं सख्त हो जाते हैं जिसे सिकल सेल कहा जाता है. यह धमनियों में अवरोध उत्पन्न करती हैं जिससे शरीर में हीमोग्लोबिन व खून की कमी होने लगती है इसलिए इसे सिकल सेल एनीमिया कहा जाता है. इस रोग में व्यक्ति के शरीर में अलग-अलग प्रकार की शारीरिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं- जैसे कि हाथ-पैरों में दर्द, कमर के जोड़ों में दर्द होना, अस्थि रोग, बार-बार पीलिया होना, लीवर पर सूजन आना, मूत्राशय में रुकावट और दर्द, पित्ताशय में पथरी होना.

माता-पिता से बच्चों को हो जाती है ये बीमारी

यह रोग आनुवांशिक है. हर व्यक्ति को अपने माता-पिता के माध्यम से एक जीन मिलता है. यदि माता और पिता में सिकल सेल के गुण अथवा सिकल सेल का रोग नहीं है तो उनके बच्चों को यह रोग नहीं होता है. यदि माता अथवा पिता दोनों में से कोई भी एक व्यक्ति सिकल वाहक होगा तो उसके बच्चे के सिकल वाहक होने 50 फीसदी आशंका होती है. लेकिन इसमें से किसी भी बच्चे को सिकल रोग नहीं होती है.

यदि माता पिता दोनों ही सिकल वाहक होंगे तो उनके 25 फीसदी बच्चों को सिकल रोग, 50 फीसदी बच्चे सिकल वाहक और मात्र 25 फीसदी सामान्य बच्चे होने की संभावना रहती है. खतरे की बात यह है कि यदि माता-पिता में से कोई भी एक व्यक्ति सिकल रोगी होता है और दूसरा व्यक्ति सामान्य है तो 100 यानी कि सभी बच्चे सिकल वाहक हो सकते है परंतु सिकल रोगी नहीं. यदि माता-पिता दोनों में से एक व्यक्ति सिकल रोग वाला और एक व्यक्ति सिकल वाहक वाला होगा तो उनके 50 फीसदी बच्चे सिकल रोग वाले होंगे और 50 फीसदी बच्चे सिकल वाहक वाले होंगे. यदि माता पिता दोनों सिकल रोग वाले होंगे तो 100 फीसदी यानी कि सभी बच्चे सिकल रोग वाले ही जन्म लेंगे.

हल्की नहीं, बड़ी खतरनाक है ये बीमारी

इसे नाम के कारण सामान्‍य एनीमिया नहीं मानना चाहिए, क्‍योंकि इस रोग का यूं कोई कारगर इलाज नहीं है. इससे बचाव ही इसका इलाज है. मतलब यदि शादी के पहले जिस तरह कुंडली मिलाई जाती है उसी तरह ब्‍लड टेस्‍ट करवा कर सिकल सेल एनीमिया रोग या वाहक की जानकारी पता कर ली जाए तो आने वाली पीढ़ी को सिकल रोग से बचाया जा सकता है. यही वजह है कि इसके खतरों और प्रसार के प्रतिलोगों को जागरूक करने के लिए हर साल 19 जून को विश्व सिकल सेल जागरूकता दिवस मनाया जाता है.

सिकल सेल रोग संगठनों के वैश्विक संगठन ने सिकल सेल रोग की स्थिति जानने के लिए आधुनिक उन्नत तकनीक के उपयोग का आग्रह किया है. इस जागरूकता अभियान का मकसद यह सुनिश्चित करना भी है कि विवाह करने वाले दोनों व्यक्तियों में सिकल वाहक अथवा सिकल रोग नहीं होना चाहिए. इसी तरह यदि परिवार में किसी भी सदस्य को सिकल सेल एनीमिया है तो परिवार के सभी सदस्यों के रक्त की सिकल सेल की जांच करवाई जानी चाहिए.

Sunday, June 18, 2023

Father's Day 2023: जिंदगी के थिएटर में 'शक्ति' की स्क्रिप्‍ट

आज फादर्स डे है. पिता को समर्पित एक दिन. ये डे मनाने की संस्कृति पर बहुतों को आपत्ति हो सकती है और है भी, मगर इस संस्‍कृति का दूसरा पहलू है कि अगर ये दिन न होते तो कई रिश्‍तों में अभिव्‍यक्ति की राह कभी खुलती ही नहीं. कभी कहा ही नहीं जा सकता था कि हम परवाह करते हैं. कभी जतलाया ही नहीं जा सकता था कि किसी के होने या न होने के हमारे लिए क्‍या मायने हैं. रिश्‍तों के ताने-बाने में कुछ शहद सा मीठापन किसी गहराई में छिपा रहता, बहुत कुछ कसैला तराई में बना रहता उस रिश्‍ते को कड़वा बनाते हुए. शायद ये दिन नहीं होते तो हमारी कोमल भावनाएं कभी व्‍यक्त ही नहीं होती और व्‍यक्‍त होती भी तो फिल्‍म ‘शक्ति’ के अंतिम सीन की तरह.

1982 में आई फिल्‍म ‘शक्ति’ और उसके क्‍लाइमेक्‍स की बात इसलिए क्‍योंकि मुझ जैसे कई लोगों को लगता है कि भारतीय पिता-पुत्र के रिश्‍ते के ताने-बाने को बताती यह कुछ चुनिंदा फिल्‍मों में से एक है. रमेश सिप्‍पी की अपने बैनर के बाहर निर्देशित की गई पहली फिल्‍म, सलीम जावेद की जोड़ी का कमाल, कई फिल्‍मों में अमिताभ की प्रेमिका बन चुकी राखी का इस फिल्‍म में अमिताभ की मां का किरदार निभाने जैसी विशिष्‍ट बातों के साथ दिलीप कुमार और अमिताभ बच्‍चन का एक साथ पर्दे पर आना इस फिल्‍म की चर्चा के लिए काफी है. मगर आज उन सब की बात नहीं. आज तो पिता के नाम दिन है तो इस रिश्‍ते की बात.

भारतीय समाज में पुत्री को पिता के निकट माना जाता है और पुत्र को मां के. पिता और पुत्र के रिश्‍ते में मर्यादा, अनुशासन, सख्‍ती और खामोशी ने हमेशा दूरी का तार खींच कर रखा है. ऐसे कई पिता रहे हैं जिन्‍होंने मर्यादा के चलते बच्‍चों से कभी खुल कर बात भी नहीं की. पिता-पुत्र के बीच संवाद का सेतु हमेशा मां रही है. इस सामाजिक गूथन के दौर में आई फिल्‍म ‘शक्ति’ पिता-पुत्र के बीच गल‍तफहमियों से उपजी दरार का बेहद सटीक और मार्मिक चित्रण है.

आपको याद दिला दूं कि फिल्म में पिता अश्विनी (दिलीप कुमार) की अनदेखी से नाराज होकर पुत्र विजय (अमिताभ बच्चन) गलत रास्ते पर चल पड़ता है. अपराध का शिंकजा कसता चला जाता है. दूरियां और बढ़ती जाती हैं. एक तरफ फर्ज और ईमानदारी के रास्‍ते पर चलता पिता है तो दूसरी तरफ पिता के फर्ज को बोझ मानता आक्रोशित पुत्र विजय. फिल्‍म में एक मौका ऐसा आता है जब दिलीप कुमार को बेटे अमिताभ के केस से हटने का संकेत देते हुए पुलिस कमिश्‍नर अशोक कुमार कहते हैं कि वे पुलिस अधिकारी पिता को फर्ज के इम्तिहान में नहीं डालना चाहते तो दिलीप कुमार कहते हैं, सवाल फर्ज का नहीं हक का भी है. अपनी बरसों की नौकरी में मैंने जाने कितने मुजरिमों की कलाई में हथकड़ी पहनाई है. अगर आज बेटे को हथकड़ी पहनाते समय मेरे हाथ कांप जाएं तो मुझे क्‍या हक था उन मुजरिमों की कलाइयों में हथकडी पहनाने का? वे सब भी तो किसी न किसी के बेटे थे. अब तो फर्ज निभाने की आदत हो गई है. इस उम्र में ये आदत कहां छूटेगी?

जरा ठहर कर सोचेंगे तो अपने आसपास ऐसे कितने ही किरदार दिखाई दे जाएंगे जिन्‍होंने अपने कर्तव्‍य के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया. जो फर्ज निभाने से कभी रूके ही नहीं. उनके इस कर्तव्‍य बोध से पूरा परिवार तकलीफ में रहा मगर उनके उसूलों पर आंच आना किसी को मंजूर नहीं हुआ. फिल्‍म में एक ऐसा भी दृश्‍य है जब पत्‍नी शीतल (राखी) पति अश्‍विनी से कहती है कि विजय को जेल ही जाना है तो आपके ही हाथों क्‍यों? मेरा दु:ख क्‍यों बढ़ाना चाहते हैं? जवाब में दिलीप कुमार कहते हैं, मेरा गरूर यही है कि मैंने कभी बेइमानी नहीं की, कभी अपने फर्ज से मुंह नहीं मोड़ा, कभी अपने जमीर की आवाज को दबाया नहीं. लेकिन इस गरूर के टूटने से तुम्‍हारा दु:ख कम हो सकता है तो मैं वहीं करूंगा जो तुम चाहोगी. पति के गरूर का टूटना पत्‍नी को कैसे पसंद आ सकता था? वह कहती है, मैं ये नहीं चाहती कि मेरी खातिर आप अपनी नजरों से गिर जाएं. मैं तो सिर्फ इतना चाहती हूं कि किसी भी तरह से हमारा बेटा हमारे पास वापिस चला आए. अगर आप मेरे लिए अपने उसूल बदलने के लिए तैयार हो सकते हैं तो क्‍या वो मेरे लिए अपना रास्‍त नहीं बदल सकता?

तब हमें मां के ऐसे कई रूप याद आ जाते हैं जो पति और पुत्र के बीच पसरे मौन को, तनाव को पिघलाने के जतन करती है. वह दोनों किनारों को जोड़ने वाली नदी बन जाना चाहती है. इस कोशिश में शीतल बेटे विजय के पास जाती भी है लेकिन अपराधी बन चुका बेटा कहता है कि मैं जान गया हूं कि जुर्म तब होता है जब उसे साबित किया जाए. मुजरित तब होता है जब उसे पकड़ा जाए. उनसे कहिए कि सबसे पहले मेरे खिलाफ सबूत लाएं. गवाह ढूंढ़े. तब मां शीतल एक ताना, एक उलाहना दे कर लौट आती है कि वाह बेटे वाह. बहुत कलेजे को ठंडक पहुंचाई आज. दस बार मरोगे और दस बार पैदा होओगे तब भी उनके जैसे नहीं बन पाओगे. तुम वह नहीं हो जो मेरा घर छोड़ कर आया था. शायद मुझे किसी ने गलत पता दे दिया था.

बीमार मां को लेने आया बेटा विजय कहता है, मेरे साथ चलो, मैं बड़े अस्‍पताल में इलाज करवाऊंगा. इस घर में तुम्‍हें क्‍या आराम मिलेगा? उसूलों का बोझ उठाने का जिसे शौक है उसे उठाने दो. तब मां कहती है, वो कितने ऊंचे ओहदे पर हैं, चाहे जितना पैसा आ सकता है लेकिन मेरे घर में बेइमानी का एक पैसा नहीं आया. मैं अभी इतनी कमजोर नहीं हुई कि अपने पति की ईमानदारी का बोझ नहीं उठा सकूं. बेइमानी का पैसा मेरे लिए जहर है. क्‍या तुम मां को दवा में जहर मिला कर पिलाएगा?

ऐसी उलझनों के बीच पिता-पुत्र के बीच एक संवाद है. समुद्र किनारे फिल्‍माए गए इस संवाद में लहरों के शोर ने डायलॉग में भावों का ज्‍वार दिखाने का काम बखूबी किया है. पिता से मिलने आया विजय जब पूछता है कि मुझे यहां क्यों बुलाया तो पिता अश्विनी कहते हैं, इसलिए कि जहां तुम रहते हो वो जगह मेरा घर से इतनी दूर है कि तुम्हारा आना मुश्किल होता. तो पुलिस स्टेशन बुला लिया होता. वह तो मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं है. तब‍ पिता कहते हैं, जो भी हो विजय मगर अब भी तुम मेरे बेटे ही हो. मैं नहीं चाहता तुम्हारा अंजाम वो हो जो… यह कहते हुए दिलीप कुमार चुप हो जाते हैं, मानो पिता का दिल अपने बेटे को अपराधी पुकारना भी नहीं चाहता है.

बेटा विजय बार-बार पिता को उसके उसूलों के लिए ताने मारता है. कहता है, जिस कानून ने आपको मेरे लिए अजनबी बना दिया मैं अपने आप को उस कानून के हवाले कैसे कर सकता हूं? जब पिता अश्विनी कहते हैं कि अगली बार तुम एक बाप से मिलोगे या पुलिस अफसर से इसका फैसला खुद तुम को करना होगा. जब विजय का जवाब आता है, यह फैसला तो आप कई बरस पहले मेरे बचपन में ही कर चुके थे जब मैं उन बदमाशो के अड्डे में कैद था. मैने फोन पर अपने बाप से बात की थी और दूसरी तरफ एक पुलिस ऑफिसर की आवाज सुनाई दी थी. आज भी आपके तरीके में एक पुलिस ऑफिसर के लहजे की बू आती है. पुत्र के कड़वे बोल के आगे पिता खामोश रह जाता है, यह मानते हुए कि बच्‍चे की उद्दंडता का पिता भला क्‍या जवाब दे?

कैद में पहुंचे विजय को जब पिता अश्विनी बताते हैं कि उसे कत्‍ल के इल्‍जाम में गिरफ्तार करवाने की साजिश करने वाला जेके है तो विजय कहता है मैं तो इतना जानता हूं कि जिसके सामने मुझे बेकसूर गिरफ्तार किया गया, जो मुझे बचा सकता था लेकिन खामोश तमाशा देखता रहा. वो कौन है, मेरा अपना बाप. और यूं खामोश तमाशा मेरे बाप ने पहली बार नहीं देखा है. जब विजय कहता है कि उसे हर उस कानून से नफरत है जिसे उसका पिता मानता है तो दर्शकों को विजय के मन में बचपन से बनी एक गलतफहमी के विराट हो जाने का दंश महसूस होता है.

मां शीतल (राखी) की मौत के बाद तो पिता-पुत्र के बीच का सेतु भी बह गया. बहुत चुभता है यह डायलॉग जब पत्‍नी के शव के पास विलाप करते हुए अश्विनी कहता है कि विजय तुम्‍हारी बात ही मानेगा, वह मेरी बात नहीं सुनेगा. पिता की यह असहायता भीतर तक कचोट जाती है.

अंत में जब पिता अश्विनी के हाथों बेटे विजय को गोली लगती है तो सारे दर्शक यह मान ही बैठे थे कि अब पिता और पुत्र के बीच जुड़ाव की कोई गुंजाइश ही नहीं है तब एक नाजुक और भावुक दृश्‍य बुना गया है. दम तोड़ने के पहले विजय कहता है, बहुत कोशिश की कि अपने दिल से आपकी मुहब्‍बत निकाल दूं लेक‍िन मैं हमेशा आपसे प्‍यार करता रहा. चाहा कि न करूं लेकिन ऐसा क्यूं? जवाब में पिता आर्द्र स्‍वर में कहते हैं, इसलिए कि मैं भी तुमसे मुहब्‍बत करता हूं बेटे.

तब विजय कातर स्‍वर में पूछता है, तो कहा क्‍यों नहीं डैड?

इस क्‍यों का जवाब किसी पिता के पास नहीं होता था. इस क्‍यों का जवाब कई बेटों को कभी मिल नहीं सका. पिता के गोद में बेटे का शव है और आखिर में पंक्तियां सुनाई देती है:

ऐ आसमां बता क्‍या तुझको है खबर,

ये मेरे चांद को किस की लगी नजर

मुझसे कहां न जाने कोई भूल हो गई,

मांगी थी जो दुआ कबूल न हुई ….

तभी याद आता है, यही तो वह गाना था जो शुरुआत में नन्‍हे विजय के साथ माता-पिता गाते हैं:

मांगी थी एक दुआ जो कबूल हो गई, उम्‍मीद की कली खिल के फूल हो गई.

शक्ति में दिखाए पिता और पुत्र के फर्ज और उम्‍मीदों के इस द्वंद्व को कई परिवारों ने जिया है. कई पुत्र अंत तक अपने पिता को गलत ही मानते रहे. कई पिता अपने पुत्र को समझ ही नहीं पाए. हम दिल और दिमाग के निर्णय की बात करते हैं. ऐसे मामलों में दिमाग का निर्णय कुछ भी रहे, हमारा दिल तो दोनों को सही मानता है. वह फैसला कर ही नहीं पता कि कौन गलत है और कौन सही? लगता है, जरा वह झुक जाता, जरा वह समझ लेता. जरा वह अपने दिल को बड़ा करता, जरा वह आत्‍मीयता का हाथ बढ़ा देता. जरा वह सुन लेता, जरा वह कह देता. यही कारण है कि ऐस दिवस पर हमें अपने दिल की बात कहने की गुंजाइश मिल जाती है. शायद, हम कह पाएं तो ‘शक्ति’ के क्‍लाइमेक्‍स जैसा हमारी जिंदगी में न हो. कुछ ऐसा कि अंत में पूछना पड़े, मुझसे मुहब्‍बत थी तो आपने अब तक क्‍यों नहीं कहा डैड? तुमने भी कब समझना चाहा मेरे बच्‍चे?

(न्‍यूज 18 हिंदी में प्रकाशित ब्‍लॉग)

Tuesday, June 6, 2023

शिव कुमार बटालवी: प्रेम का कवि और बिरह का सुल्तान, जिसे दर्द में काबा और पीड़ा में अपनापन झलकता है


पंजाबी साहित्य में जब भी प्यार-मोहब्बत और ग़म की चर्चा होगी शिव कुमार बटालवी का जिक्र जरूर किया जाएगा. पंजाबी भाषा के विख्यात कवि शिव कुमार रोमांटिक कविताओं के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते हैं. उनके गीत-कविताओं में भावनाओं का उभार ज्वार लेता है, करुणा की गहराई है तो जुदाई में प्रेमी के दर्द छलक पड़ता है. अमृता प्रीतम ने इन्हें “बिरहा का सुल्तान” कहा था. सच में शिव कुमार तो साहित्य जगत का वह अलमस्त फकीर है जो प्रेम की दुनिया में मगन रहता है, और नदी के पानी की तरह बस बहता, और बहता ही रहता है. शिव कुमार बटालवी से जब कोई उनके हाल-चाल पूछता है तो वे खुद को आशिक बताते हुए कहते हैं- फकीरों का हाल क्या पूछते हो, हम तो नदियों से बिछड़े पानी की तरह हैं. हम आंसूओं से निकले हैं और हमारा दिल जलता है.




की पुच्छदे हाल फ़कीराँ दा
साडा नदियों बिछड़े नीरां दा
साडा हंझ दी जूने आयां दा
साडा दिल जल्या दिलगीरां दा

कितना दर्द समेटे हुए हैं ये पंक्तियां. यहां शिव कुमार कहते हैं- “मैं दर्द को ही काबा मानता हूं और पीड़ा को अपना कहता हूं.”

मेरे गीत वी लोक सुणींदे ने
नाले काफ़र आख सदींदे ने
मैं दरद नूं काअबा कह बैठा
रब्ब नां रक्ख बैठा पीड़ां दा

शिव कुमार बटालवी का जन्म 23 जुलाई, 1936 को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की शकरगढ़ तहसील के गांव बड़ा पिंड लोहटिया में हुआ था. भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद उनका परिवार गुरदासपुर जिले के बटाला चला आया.बताते हैं शिव कुमार बटालबी प्रेमी थे और प्रेम में नाकामी वजह से उनकी रचनाओं में विरह और दर्द का भाव बहुत अधिक है. कहा जाता है कि शिव कुमार को विख्यात पंजाबी लेखक गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी की बेटी से प्यार हो गया था.

गुम है गुम है गुम है
इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत
गुम है गुम है गुम है
साद मुरादी सोहणी फब्बत
गुम है गुम है गुम है

सूरत उसदी परियां वरगी
सीरत दी ओह मरियम लगदी
हसदी है तां फुल्ल झड़दे ने
तुरदी है तां ग़ज़ल है लगदी
लम्म सलम्मी सरूं क़द दी
उम्र अजे है मर के अग्ग दी

प्यार में डूबे शिव कुमार बटालवी अपनी माशूका के लिए लिखते हैं-

मुझ को तेरा शबाब ले बैठा
रंग, गोरा गुलाब ले बैठा

दिल का डर था कहीं न ले बैठे
ले ही बैठा जनाब ले बैठा

जब भी फुर्सत मिली है फर्ज़ों से
तेरे रुख़ की किताब ले बैठा


कितनी बीती है कितनी बाकी है
मुझ को इस का हिसाब ले बैठा

मुझ को जब भी है तेरी याद आई
दिन-दहाड़े शराब ले बैठा

अच्छा होता सवाल ना करता
मुझ को तेरा जवाब ले बैठा

‘शिव’ को इक ग़म पे ही भरोसा था
ग़म से कोरा जवाब ले बैठा।

लेकिन बटालवी का प्यार परवान नहीं चढ़ सका. प्रेमियों के बीच जातिभेद सामने आ गया. प्यार में नाकामी ने उन्हें बुरी तरह से तोड़ कर रख दिया. प्यार में टूटन की पीड़ा उनकी कविता में तीव्रता से परिलक्षित होती है.

शिव कुमार बटालवी का पहला कविता संग्रह 1960 में पीड़ां दा परागा (दु:खों का दुपट्टा) प्रकाशित हुआ. यह संग्रह प्रकाशित होते ही साहित्यिक हलकों में छा गया. इसके बाद उनकी महत्वपूर्ण कृति महाकाव्य नाटिका ‘लूणा’ प्रकाशित हुई तो इसने ने भी कामयाबी के लहरा दिए. ‘लूणा’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 1967 में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले शिव कुमार बटालवी सबसे कम उम्र के साहित्यकार बन गये. ‘लूणा’ को आधुनिक पंजाबी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है. यह महाकाव्य है. इसमें लूणा का ब्याह सियालकोट के राजा के साथ होता है, लेकिन लूणा राजा के बेटे पूरण से मोहब्बत करने लगती है. लूणा दरअसल के नकारात्मक किरदार है, लेकिन शिव कुमार ने इस किरदार को सच्ची मोहब्बत, त्याग और समर्पण की मिसाल बताते हुए नए सिरे गढ़ा है.

शिव कुमार की नज़्मों में आम जनता की हूंक सुनाई देती है. दरअसल, वे जनता के कवि हैं. उनकी कविताएं लोकगीत के रूप में गाई और गुनगुनाई जाती हैं. पंजाब की फिज़ाओं में आज भी कहीं न कहीं ‘मैं कंडयाली थोर वे सजणा’ या ‘जिंदू दे बागीं दरदाँ दा बूटड़ा’ जैसे गीतों की गूंज सुनाई पड़ ही जाती है. मैनूं विदा करो (मुझे विदा करो), अलविदा (विदाई), सोग (शोक) समेत ना जाने कितनी रचनाएं हैं जिनमें शिव कुमार बटालवी की निराशा और मृत्यु की प्रबल इच्छा दिखाई पड़ती है.

मैंनू विदा करो
असां ते जोबन रुत्ते मरना,
मर जाणां असां भरे भराए,
हिजर तेरे दी कर परिकरमा..

(मुझे विदा करो. हमें तो यौवन की ऋतु में मरना है, मर जाएंगे हम भरे पूरे तुम से जुदाई की परिक्रमा पूरी करके)

36 साल की उम्र में शराब की दुसाध्य लत के कारण हुए लीवर सिरोसिस के कारण 7 मई 1973 को पठानकोट के किरी मांग्याल में अपने ससुर के घर पर शिव कुमार बटालवी ने अंतिम सांस ली. उनके अंतिम दिनों के बारे में एक किस्सा मशहूर है कि शिव कुमार बटालवी 1972 में इंग्लैंड गए थे. चूंकि वे मशहूर कवि थे तो इंग्लैंड में उनसे मिलने के लिए लोगों का तांता लगा रहता था. इस मेल-मिलाप में दिन-रात शराब और शायरी का दौर चलता रहता. वे वहां कई महीने रहे. इंग्लैंड प्रवास के दौरान उन्होंने बहुत ज्यादा शराब का सेवन किया. जब वे हमवतन वापस आए तो शराब की बहुत ज्यादा लत लगने के कारण उनकी शरीर अंदर से खराब हो चुका था. इलाज के लिए वे अपनी सुसराल किरी मांग्याल आ गए और यहीं इलाज के दौरान उनकी मृत्यु हो गई.

उनकी एक कविता है, जिसमें वह लिखते हैं- हमें तो जवानी के मौसम में ही मरना है. ऐसे ही भरे-भराए शरीर से लौट जाना है. इन पंक्तियों को पढ़कर लगता है कि शायद उन्होंने ये अपने लिए ही लिखी थीं-

असाँ ताँ जोबन रुत्ते मरना
मुड़ जाणा असाँ भरे-भराए
हिजर तेरे दी कर परकरमा
असाँ ताँ जोबन रुत्ते मरना

शिव कुमार बटालवी की कई रचनाओं का इस्तेमाल हिंदी फिल्मों में किया गया है. समय-समय पर गायक बटालवी के गीतों को अपने सुरों में पिरोकर प्रस्तुत करते रहे हैं. दीदार सिंह परदेसी, जगजीत सिंह-चित्रा सिंह, सुरिंदर कौर, नुसरत फतेह अली खान, रब्बी शेरगिल, हंस राज हंस, महेंद्र कपूर ने बटालवी की रचनाओं को अलग-अलग अंदाज में प्रस्तुत किया है.

(न्‍यूज 18 हिंदी में प्रकाशित ब्‍लॉग) 

Monday, June 5, 2023

विश्‍व पर्यावरण दिवस: प्‍लास्टिक प्रदूषण से हमें एक ही शक्ति बचा सकती है

दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्‍ट हो या हमारे रक्‍त का हिस्‍सा वह सर्वशक्तिमान ही होना चाहिए जो सर्वाधिक ऊंचाई और सबसे सूक्ष्‍म रूप में विद्यमान होगा. ऐसा ही सर्वशक्तिमान है प्‍लास्टिक जो दुनिया को संवार नहीं बल्कि खत्‍म कर रहा है. सर्वविनाशक साबित हो रहा है. और यही कारण है कि दैनिक उपयोग में सबसे बड़ा सहायक प्‍लास्टिक आज पर्यावरण और सेहत के लिए उतना ही बड़ा और व्‍यापक खतरा बन कर डरा रहा है. इसी घातक ताकत के कारण दुनिया ने आह्वान किया है कि सब मिलकर इस प्‍लास्टिक से पृथ्‍वी को बचाएं.

कितना आसान होता है, किसी पॉलीथिन, किसी प्‍लास्टिक के टुकड़े को गुड़ीमुड़ी कर झट से फेंक देना. कितना आसान होता है, कोल्‍ड ड्रिंक और पानी की बोतल, किसी पैकिंग का प्‍लास्टिक रैपर को यहां-वहां फेंक देना. यहां-वहां मतलब माउंट एवरेस्‍ट जैसे गगनचुंबी पहाड़ पर तो समुद्र की तलहटी जैसी गहराई पर. अपने आसपास भी, नदी और पहाड़ पर भी. खेत में, चलती ट्रेन से, जहां मन किया वहां. क्‍या आपने सोचा है, कि बड़े प्‍लास्टिक के कचरे को तो चलो कोई साफ कर भी देगा मगर बोतल के ढक्‍कन को बंद करने के लिए लगाई गई सील या उससे भी छोटे प्‍लास्टिक के टुकड़े को हम जो फेंक देते हैं, लापरवाही से, उसे कोई उठाने आने वाला नहीं है. वह तो जमीन में, पानी में, पहाड़ पर, खाई में, जंगल में पड़ा रहेगा, बरसों बरस और धरती को, इसके पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता रहेगा. वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि इसी तरह चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब खेत में हल चला कर मिट्टी की पलटी करने पर पॉलीथिन भी निकला करेगा. यह तो साबित ही हो चुका है कि हमारे द्वारा फेंका गया प्‍लास्टिक का कूड़ा शहरों में सीवेज को जाम कर जलभराव का कारण बनता है.

यही कारण है कि गुजरात के अहमदाबाद में प्लास्टिक के साथ ही कागज के कप में चाय-काफी परोसने पर रोक लगा दी गई है क्‍योंकि वहां एक दिन में 20 लाख से ज्यादा प्लास्टिक और पेपर कप कचरे में फेंके जाते हैं. चंडीगढ़ में प्‍लास्टिक की तमाम तरह की पैकिंग पर भी रोक है. सरकार सिंगल यूज प्‍लास्टिक को प्रतिबंधित कर ही चुकी है. इसके बाद भी हालात क्‍या हैं, यह जानना बेहद जरूरी है.

हाल ही में एक फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था इसमें बताया गया था कि दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवेरेस्ट असल में ‘कूड़े के पहाड़’ बन रहा है. बेस कैंप के पास सैकड़ों खाली पड़े फूड कंटेनर, ऑक्‍सीजन टैंक, रैपर बिखरे नजर आ रहे हैं. 29 मई 2053 को तेनजिंग नोर्गे और एडमंड हिलेरी ने माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचकर दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ को विजय किया था. इस घटना के सत्‍तर साल बाद आज उस चोटी पर कचरे का पहाड़ हमारी लापरवाही का सबूत है. पहाड़ पर चढ़ कर रिकार्ड अपने नाम करने वाले पर्वतारोह उस पहाड़ के पर्यावरण को लेकर बिल्कुल सतर्क नहीं हैं. नेशनल ज्योग्राफिक का अनुमान है हक एवरेस्ट पर जाने वाला हर पर्वतारोही लगभग आठ किलोग्राम कचरा पैदा करता है. इनमें फूड कंटेनर, टेंट और खाली ऑक्सीजन टैंक शामिल होते हैं. वे कचरा साथ नहीं लाते और इसकी सफाई के लिए सरकारों को अलग से पैसा खर्च करना पड़ता है. जबकि कितना बेहतर हो कि जो सामान ले जा रहा है वही कचरा अपने साथ लाए भी? लेकिन ऐसा होता कहां है?

चिंता का कारण यह कि सूक्ष्‍म रूप में प्‍लास्टिक ध्रुवों पर जलचर के रक्‍त में भी पहुंच चुका है. यह प्‍लास्टिक हमारे रक्‍त में भी है. यह समय उन चेतावनियों को याद करने का भी है जब शोध बताते हैं कि प्‍लास्टिक खाद्य सामग्री के साथ हमारे पेट में जा रहा है.

आज जब प्‍लास्टिक के समाधान की चिंता और आह्वान के साथ विश्‍व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है तो हमारे लिए यह जान लेना भी आवश्‍यक है कि दुनिया फिलहाल हर साल 35 करोड़ टन प्लास्टिक का कचरा फैला रही है. यह कचरा जैवविविधता, हमारी सेहत और खेती यानी हमारे आहार के लिए खतरा बन चुका है. जब हम प्‍लास्टिक के इन खतरों की बात करते हैं तो कुछ आविष्‍कार याद आते हैं. जैसे वह एंजाइम जो सदियों में नष्‍ट होने वाले प्‍लास्टिक को चंद घंटों में खत्‍म कर सकता है. मगर यह एंजाइम भी प्‍लास्टिक के बेतहाशा उपयोग की छूट नहीं देता है क्‍योंकि हमारी लापरवाही तब भी भारी है.

प्‍लास्टिक के इन्‍हीं खतरों को देखते हुए संयुक्‍त राष्‍ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने एक रोडमैप तैयार किया है. बीते सप्‍ताह जारी हुई यह रिपोर्ट 2040 तक दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण को 80 प्रतिशत तक कम करने का आह्वान करती है. इसमें कहा गया है कि सबसे पहले प्‍लास्टिक के कचरे का कम करना होगा. इसके लिए प्‍लास्टिक के फिर से उपयोग, रीसाइकल करना और उत्पादों में विविधता लाने के सुझाव दिए गए हैं. आकलन है कि फिर से उपयोग के प्‍लास्टिक को बढ़ावा देकर 2040 तक 30 प्रतिशत प्लास्टिक प्रदूषण को कम किया जा सकता है. प्लास्टिक रैपर, पाउच और पै‍क आइटम जैसे उत्पादों में प्‍लास्टिक के बदले अन्य सामग्रियों को अपनाने से प्लास्टिक प्रदूषण में 17 प्रतिशत की कमी लाई जा सकती है. चुनौती यह है कि यदि प्लास्टिक उत्पादन पर लगाम लगाने में पांच साल की देरी होती है तो 2040 तक 80 मिलियन मीट्रिक टन प्लास्टिक प्रदूषण बढ़ सकता है.

इसी आह्वान के बीच ग्रीनपीस ने चेताया है कि रीसाइक्लिंग प्लास्टिक प्रदूषण का रामबाण इलाज नहीं है. इसपर हुआ अध्ययन बताता है कि रीसाइकिल करने से वास्तव में प्लास्टिक का जहरीलापन बढ़ जाता है. ‘फॉरएवर टॉक्सिक: द साइंस ऑन हेल्थ थ्रेट्स फ्रॉम प्लास्टिक रीसाइक्लिंग’ बताती है कि खतरे से निपटना है तो प्लास्टिक उत्पादन को सीमित और कम करने के ही प्रयास होने चाहिए. यह रिपोर्ट बताती है कि प्लास्टिक में 13,000 से अधिक केमिकल्स होते हैं जिनमें से 3,200 इंसानी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माने जाते हैं. रीसायकल प्लास्टिक में बहुत ज्यादा मात्रा में केमिकल होते हैं जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं.

ये सभी रिपोर्ट हमें आगाह कर रही हैं कि प्‍लास्टिक के उपयोग को कम करने को लेकर हमने बड़े कदम नहीं उठाए तो 2060 तक प्लास्टिक उत्पादन तिगुना करना पड़ेगा और इतना प्‍लास्टिक कितना नुकसान पहुंचाएगा, समझा जा सकता है. हमें यह समझ लेना होगा कि फिलहाल ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो प्‍लास्टिक को खत्‍म कर दे या उसके नुकसान से हमें बचा ले. यह ताकत हमारे पास ही हैं कि हम खुद अपनी सुरक्षा करें और प्‍लास्टिक के प्रति बेपरवाही का व्‍यवहार छोड़ें. ऐसे मनाएंगे तो पर्यावरण दिवस तो हमारी पृथ्‍वी और मन का पर्यावरण अच्‍छा बना रहेगा.




(न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग) 


Saturday, June 3, 2023

विश्‍व साइकिल दिवस: अनूठी है यह 'साइकिल' और इसकी सवारी


आज जब सड़क पर अपनी गाड़ी से गुजरता हूं और किसी साइकिल सवार को पास से गुजरते देखता हूं तो अपनी गाड़ी जरा स्‍लो कर उसके लिए रास्‍ता बना देता हूं. मुझे वे दिन याद आ जाते हैं जब साइकिल चलाया करता था और किसी गाड़ी को राह देने के फेर में ब्रेक लगाने के बाद फिर साइकिल चलाने के लिए पूरी ताकत लगानी पड़ती थी. यह आदत मुझ में तब से आ गई है जब बाइक चलानी सीखी थी. बाइक से कार तक की यात्रा तो हुई मगर साइकिल की सवारी आज भी जेहन में सुहानी याद की तरह बसी हुई है. हममें से कई के जीवन में साइकिल आज भी बनी हुई लेकिन अब सेहत की फिक्र लिए वजन घटाने और फिट बनने के उपक्रम के रूप में.

यही वजह है कि हर साल 3 जून को साइकिल दिवस मनाने की शुरुआत की गई. ज्‍यादा दिन नहीं हुए हैं, इस दिन को मनाने की शुरुआत 2018 में हुई है और वजह भी वहीं है, लोगों को अपनी सेहत व पर्यावरण के प्रति सजग करना. विश्व साइकिल दिवस 2023 की थीम है, ‘सतत भविष्य के लिए एक साथ सवारी’ Riding Together for a Sustainable Future. एक साथ साइकिल की सवारी, जब यह वाक्‍य पढ़ा और लिख रहा हूं तो कल्‍पना में जाने कितनी छवियां तैर गई हैं जब साथ-साथ साइकिल चलाई गई थी. स्‍कूल के दिनों में दोस्‍तों के समूह के साथ साइकिल की रोमाचंक यात्राएं तो कभी मौजी मन के साथ अकेले में घंटी की ट्रीन-ट्रीन बजाते हुए की गई साइकिल की सवारी याद हो आई. अपने कपड़ों पर दाग मंजूर मगर साइकिल पर निशान भी मंजूर नहीं. चैन चढ़ाने का हुनर. फिल्‍मों के वे दृश्‍य याद हो आए जब नायक-नायिकाओं ने साइकिल की सवारी की, गीत गाएं. जाने कितनी यादें.

फिर धीरे-धीरे सुविधाएं बदली और साइकिल की भूमिका भी. तब साइकिल के कुछ प्रकार थे. आज साइकिल कई-कई प्रकार और डिजाइन में उपलब्‍ध है. बड़े समाज के लिए साइकिल आज भी आजीविका उपार्जन का सहायक साधन है और लगभग उतना ही बड़ा समाज है जिसके लिए साइकिल सेहत पाने का साधन. इस तरह समाज का एक और बंटवारा हुआ है.

लेकिन आज जब हम विश्‍व साइकिल दिवस पर भविष्‍य की बात कर रहे हैं तो मुझे एक दूसरी ‘साइकिल’ की याद आ रही है. यह ‘साइकिल’ है इकतारा प्रकाशन भोपाल की बाल पत्रिका. बच्‍चों को इसका परिचय देते हुए इसके बारे में क्या खूब कहा गया है, ये साइकिल भी तुम्हारी साइकिल की ही तरह है. इसमें भी दो पहिए हैं. एक में अपने आसपास की हवा है जिसमें हम साँस लेते हैं. उसमें धूल है, धुंआ है और मोगरे की खुशबू भी है. दूसरे पहिए में चिड़िया के पंखों से टकराकर लौटी हवा है. इसमें उड़ानें हैं, सपने हैं. यह तुम्हारी भाषा में बोलती है. तुम्हारी भाषा जानती है. इसमें तुम्हारे ठीक पास की अनदेखी दुनिया की कहानी है. जो बार-बार हमारे घर की घंटियां बजाती है मगर अनजान रहती है. ठीक वैसे जैसे जागने से पहले एक लड़का पेपर फेंक जाता है, चुपचाप. साइकिल जागी हुई तथा चुपचाप दोनों, दुनिया की पड़ताल करती है.

कितनी सुंदर बात है कि यह ‘साइकिल’ बच्‍चों से जागी और चुप दोनों तरह की दुनिया की बात करती है. मोबाइल के संसार में कैद बच्‍चों को कल्‍पना के आकाश में ले जाती है. पत्रिका का रंग-रूप, संयोजन, सामग्री इतनी प्रभावी कि बच्‍चे तो ठीक बड़े भी इसे एकबार हाथ में ले लें तो पूरी पढ़े बिना रखते नहीं है. सामग्री की विशिष्‍ट के बारे में क्‍या ही कहा जा सकता है? इस बारे में वरिष्‍ठ साहित्‍यकार कवि, उपन्यासकार, कथाकार विनोद कुमार शुक्ल का यह कहना ही काफी है: साहित्य इत्यादि की पत्रिकाओं में मैंने अब तक जो लिखा पाठकों को सोचकर नहीं लिखा. जो लिख सकता था वही लिखा. इसे कौन पढ़ेगा? या कोई पढ़ेगा! के सुनसान में यह लिखा हुआ छोड़ देता था. साइकिल में यह सोचकर लिखता हूं कि बच्चे पढ़ेंगे. ‘साइकिल’ ने मुझे इस उम्र में पास और दूर के बच्चों तक पहुंचने में मदद की.

इस साइकिल की अपनी दुनिया है. अपने रंग है. इसका हैंडल बच्‍चों का सर्जन और रचनात्‍मकता के आमसान की ओर ले जाता है. इसकी यात्रा करते हुए आनंद की घंटियां बजती हैं. इसकी पुर्जे-पुर्जे में मनभावन संग बसता है. यह बच्‍चों के विकास मार्ग को न अवरूद्ध करती है और किसी दिशा में मोड़ती है. वास्‍तव में यह पंख फैलाती है और एक सुहानी उड़ान के लिए आमंत्रित व तैयार करती है.

अधिक गहराई की बात करूं तो कक्षा 4 से 8 तक के बच्‍चों को ध्‍यान में रखकर प्रकाशित की जा रही यह पत्रिका बच्‍चों को भाषा का अभ्‍यास करवाती है. भाषा के नए रंग-रूप, नए मुहावरों से परिचित करवाती है. यह दायरों को बांधती नहीं, तोड़ती है. यहां कविता अपने भाव में हैं, छंद और तुकबंदी के विन्‍यास में सिमटी नहीं हैं. तय करना मुश्किल होता है कि चित्र अधिक प्रभावी या लेखन और अंत में हम पाते हैं कि दोनों लाजवाब. यानी तो है न साथ-साथ विकास का दृष्टिकोण?

‘साइकिल’ और ऐसी ही कई बेजोड़ पुस्‍तकें तैयार कर रहे इकतारा के सुशील शुक्‍ला और चंदन यादव की यह राय मायने रखती है कि ‘साइकिल’ में हमारी कोशिश रहती है कि उसकी सामग्री बच्चों को एक पाठक के रूप में तैयार कर सके. पढ़ने के प्रति उनकी रुचि जागे. इसके लिए कई चीजें जरूरी हैं मसलन, विविधता से भरी सामग्री मसलन, उसकी प्रस्तुति सामग्री की प्रस्तुति पाठक को आकर्षित करती है कि नहीं? जिस भाषा में सामग्री पेश की जाती है वह पुरानी धूल खाई भाषा तो नहीं है? वह आज की और बोलचाल की भाषा है कि नहीं? उसमें जीवन झलकता है कि नहीं या वह सिर्फ किताबी भाषा है.

बेहद कल्पनाशील, सवाली और जिज्ञासु बच्‍चों और उनके आसपास फैली दुनिया के बीच बने एक पुल का नाम है ‘साइकिल’ जहां से वे अपनी तरह से, अपनी भाषा और अपने रंग में दुनिया को देखते हैं. ‘साइकिल’ के जरिए वे ऐसी जगह पर पहुंचते हैं जहां बराबरी से बात की जाती है, जहां सीमा रेखाएं नहीं खींची जाती बल्कि कल्पनाओं में एक पंख और जोड़ दिया जाता है. बच्चों को रट्टू तोता बनाए रखने की मुहिम पर प्रहार है यह ‘साइकिल’.

और जब इकतारा कहता है कि ‘साइकिल’ बच्‍चों को अनुयायी, संकीर्ण और कूपमंडूक बनाए रखने के चक्र के खिलाफ एक जुगनू बराबर प्रस्ताव है तो हम पाते हैं यह जुगनू भर नहीं है, भोर की किरण है और इसका उजास सब बच्‍चों तक पहुंचना चाहिए. विश्‍व साइकिल दिवस पर इस ‘साइकिल’ की ट्रिन-ट्रिन भी सुनिए, अपना भविष्‍य बेहतर बनाने के लिए सृजन संसार साथ-साथ सवारी के लिए बुला रहा है.

(न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग)