1982 में आई फिल्म ‘शक्ति’ और उसके क्लाइमेक्स की बात इसलिए क्योंकि मुझ जैसे कई लोगों को लगता है कि भारतीय पिता-पुत्र के रिश्ते के ताने-बाने को बताती यह कुछ चुनिंदा फिल्मों में से एक है. रमेश सिप्पी की अपने बैनर के बाहर निर्देशित की गई पहली फिल्म, सलीम जावेद की जोड़ी का कमाल, कई फिल्मों में अमिताभ की प्रेमिका बन चुकी राखी का इस फिल्म में अमिताभ की मां का किरदार निभाने जैसी विशिष्ट बातों के साथ दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन का एक साथ पर्दे पर आना इस फिल्म की चर्चा के लिए काफी है. मगर आज उन सब की बात नहीं. आज तो पिता के नाम दिन है तो इस रिश्ते की बात.
भारतीय समाज में पुत्री को पिता के निकट माना जाता है और पुत्र को मां के. पिता और पुत्र के रिश्ते में मर्यादा, अनुशासन, सख्ती और खामोशी ने हमेशा दूरी का तार खींच कर रखा है. ऐसे कई पिता रहे हैं जिन्होंने मर्यादा के चलते बच्चों से कभी खुल कर बात भी नहीं की. पिता-पुत्र के बीच संवाद का सेतु हमेशा मां रही है. इस सामाजिक गूथन के दौर में आई फिल्म ‘शक्ति’ पिता-पुत्र के बीच गलतफहमियों से उपजी दरार का बेहद सटीक और मार्मिक चित्रण है.
आपको याद दिला दूं कि फिल्म में पिता अश्विनी (दिलीप कुमार) की अनदेखी से नाराज होकर पुत्र विजय (अमिताभ बच्चन) गलत रास्ते पर चल पड़ता है. अपराध का शिंकजा कसता चला जाता है. दूरियां और बढ़ती जाती हैं. एक तरफ फर्ज और ईमानदारी के रास्ते पर चलता पिता है तो दूसरी तरफ पिता के फर्ज को बोझ मानता आक्रोशित पुत्र विजय. फिल्म में एक मौका ऐसा आता है जब दिलीप कुमार को बेटे अमिताभ के केस से हटने का संकेत देते हुए पुलिस कमिश्नर अशोक कुमार कहते हैं कि वे पुलिस अधिकारी पिता को फर्ज के इम्तिहान में नहीं डालना चाहते तो दिलीप कुमार कहते हैं, सवाल फर्ज का नहीं हक का भी है. अपनी बरसों की नौकरी में मैंने जाने कितने मुजरिमों की कलाई में हथकड़ी पहनाई है. अगर आज बेटे को हथकड़ी पहनाते समय मेरे हाथ कांप जाएं तो मुझे क्या हक था उन मुजरिमों की कलाइयों में हथकडी पहनाने का? वे सब भी तो किसी न किसी के बेटे थे. अब तो फर्ज निभाने की आदत हो गई है. इस उम्र में ये आदत कहां छूटेगी?
जरा ठहर कर सोचेंगे तो अपने आसपास ऐसे कितने ही किरदार दिखाई दे जाएंगे जिन्होंने अपने कर्तव्य के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया. जो फर्ज निभाने से कभी रूके ही नहीं. उनके इस कर्तव्य बोध से पूरा परिवार तकलीफ में रहा मगर उनके उसूलों पर आंच आना किसी को मंजूर नहीं हुआ. फिल्म में एक ऐसा भी दृश्य है जब पत्नी शीतल (राखी) पति अश्विनी से कहती है कि विजय को जेल ही जाना है तो आपके ही हाथों क्यों? मेरा दु:ख क्यों बढ़ाना चाहते हैं? जवाब में दिलीप कुमार कहते हैं, मेरा गरूर यही है कि मैंने कभी बेइमानी नहीं की, कभी अपने फर्ज से मुंह नहीं मोड़ा, कभी अपने जमीर की आवाज को दबाया नहीं. लेकिन इस गरूर के टूटने से तुम्हारा दु:ख कम हो सकता है तो मैं वहीं करूंगा जो तुम चाहोगी. पति के गरूर का टूटना पत्नी को कैसे पसंद आ सकता था? वह कहती है, मैं ये नहीं चाहती कि मेरी खातिर आप अपनी नजरों से गिर जाएं. मैं तो सिर्फ इतना चाहती हूं कि किसी भी तरह से हमारा बेटा हमारे पास वापिस चला आए. अगर आप मेरे लिए अपने उसूल बदलने के लिए तैयार हो सकते हैं तो क्या वो मेरे लिए अपना रास्त नहीं बदल सकता?
तब हमें मां के ऐसे कई रूप याद आ जाते हैं जो पति और पुत्र के बीच पसरे मौन को, तनाव को पिघलाने के जतन करती है. वह दोनों किनारों को जोड़ने वाली नदी बन जाना चाहती है. इस कोशिश में शीतल बेटे विजय के पास जाती भी है लेकिन अपराधी बन चुका बेटा कहता है कि मैं जान गया हूं कि जुर्म तब होता है जब उसे साबित किया जाए. मुजरित तब होता है जब उसे पकड़ा जाए. उनसे कहिए कि सबसे पहले मेरे खिलाफ सबूत लाएं. गवाह ढूंढ़े. तब मां शीतल एक ताना, एक उलाहना दे कर लौट आती है कि वाह बेटे वाह. बहुत कलेजे को ठंडक पहुंचाई आज. दस बार मरोगे और दस बार पैदा होओगे तब भी उनके जैसे नहीं बन पाओगे. तुम वह नहीं हो जो मेरा घर छोड़ कर आया था. शायद मुझे किसी ने गलत पता दे दिया था.
बीमार मां को लेने आया बेटा विजय कहता है, मेरे साथ चलो, मैं बड़े अस्पताल में इलाज करवाऊंगा. इस घर में तुम्हें क्या आराम मिलेगा? उसूलों का बोझ उठाने का जिसे शौक है उसे उठाने दो. तब मां कहती है, वो कितने ऊंचे ओहदे पर हैं, चाहे जितना पैसा आ सकता है लेकिन मेरे घर में बेइमानी का एक पैसा नहीं आया. मैं अभी इतनी कमजोर नहीं हुई कि अपने पति की ईमानदारी का बोझ नहीं उठा सकूं. बेइमानी का पैसा मेरे लिए जहर है. क्या तुम मां को दवा में जहर मिला कर पिलाएगा?
ऐसी उलझनों के बीच पिता-पुत्र के बीच एक संवाद है. समुद्र किनारे फिल्माए गए इस संवाद में लहरों के शोर ने डायलॉग में भावों का ज्वार दिखाने का काम बखूबी किया है. पिता से मिलने आया विजय जब पूछता है कि मुझे यहां क्यों बुलाया तो पिता अश्विनी कहते हैं, इसलिए कि जहां तुम रहते हो वो जगह मेरा घर से इतनी दूर है कि तुम्हारा आना मुश्किल होता. तो पुलिस स्टेशन बुला लिया होता. वह तो मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं है. तब पिता कहते हैं, जो भी हो विजय मगर अब भी तुम मेरे बेटे ही हो. मैं नहीं चाहता तुम्हारा अंजाम वो हो जो… यह कहते हुए दिलीप कुमार चुप हो जाते हैं, मानो पिता का दिल अपने बेटे को अपराधी पुकारना भी नहीं चाहता है.
बेटा विजय बार-बार पिता को उसके उसूलों के लिए ताने मारता है. कहता है, जिस कानून ने आपको मेरे लिए अजनबी बना दिया मैं अपने आप को उस कानून के हवाले कैसे कर सकता हूं? जब पिता अश्विनी कहते हैं कि अगली बार तुम एक बाप से मिलोगे या पुलिस अफसर से इसका फैसला खुद तुम को करना होगा. जब विजय का जवाब आता है, यह फैसला तो आप कई बरस पहले मेरे बचपन में ही कर चुके थे जब मैं उन बदमाशो के अड्डे में कैद था. मैने फोन पर अपने बाप से बात की थी और दूसरी तरफ एक पुलिस ऑफिसर की आवाज सुनाई दी थी. आज भी आपके तरीके में एक पुलिस ऑफिसर के लहजे की बू आती है. पुत्र के कड़वे बोल के आगे पिता खामोश रह जाता है, यह मानते हुए कि बच्चे की उद्दंडता का पिता भला क्या जवाब दे?
कैद में पहुंचे विजय को जब पिता अश्विनी बताते हैं कि उसे कत्ल के इल्जाम में गिरफ्तार करवाने की साजिश करने वाला जेके है तो विजय कहता है मैं तो इतना जानता हूं कि जिसके सामने मुझे बेकसूर गिरफ्तार किया गया, जो मुझे बचा सकता था लेकिन खामोश तमाशा देखता रहा. वो कौन है, मेरा अपना बाप. और यूं खामोश तमाशा मेरे बाप ने पहली बार नहीं देखा है. जब विजय कहता है कि उसे हर उस कानून से नफरत है जिसे उसका पिता मानता है तो दर्शकों को विजय के मन में बचपन से बनी एक गलतफहमी के विराट हो जाने का दंश महसूस होता है.
मां शीतल (राखी) की मौत के बाद तो पिता-पुत्र के बीच का सेतु भी बह गया. बहुत चुभता है यह डायलॉग जब पत्नी के शव के पास विलाप करते हुए अश्विनी कहता है कि विजय तुम्हारी बात ही मानेगा, वह मेरी बात नहीं सुनेगा. पिता की यह असहायता भीतर तक कचोट जाती है.
अंत में जब पिता अश्विनी के हाथों बेटे विजय को गोली लगती है तो सारे दर्शक यह मान ही बैठे थे कि अब पिता और पुत्र के बीच जुड़ाव की कोई गुंजाइश ही नहीं है तब एक नाजुक और भावुक दृश्य बुना गया है. दम तोड़ने के पहले विजय कहता है, बहुत कोशिश की कि अपने दिल से आपकी मुहब्बत निकाल दूं लेकिन मैं हमेशा आपसे प्यार करता रहा. चाहा कि न करूं लेकिन ऐसा क्यूं? जवाब में पिता आर्द्र स्वर में कहते हैं, इसलिए कि मैं भी तुमसे मुहब्बत करता हूं बेटे.
तब विजय कातर स्वर में पूछता है, तो कहा क्यों नहीं डैड?
इस क्यों का जवाब किसी पिता के पास नहीं होता था. इस क्यों का जवाब कई बेटों को कभी मिल नहीं सका. पिता के गोद में बेटे का शव है और आखिर में पंक्तियां सुनाई देती है:
ऐ आसमां बता क्या तुझको है खबर,
ये मेरे चांद को किस की लगी नजर
मुझसे कहां न जाने कोई भूल हो गई,
मांगी थी जो दुआ कबूल न हुई ….
तभी याद आता है, यही तो वह गाना था जो शुरुआत में नन्हे विजय के साथ माता-पिता गाते हैं:
मांगी थी एक दुआ जो कबूल हो गई, उम्मीद की कली खिल के फूल हो गई.
शक्ति में दिखाए पिता और पुत्र के फर्ज और उम्मीदों के इस द्वंद्व को कई परिवारों ने जिया है. कई पुत्र अंत तक अपने पिता को गलत ही मानते रहे. कई पिता अपने पुत्र को समझ ही नहीं पाए. हम दिल और दिमाग के निर्णय की बात करते हैं. ऐसे मामलों में दिमाग का निर्णय कुछ भी रहे, हमारा दिल तो दोनों को सही मानता है. वह फैसला कर ही नहीं पता कि कौन गलत है और कौन सही? लगता है, जरा वह झुक जाता, जरा वह समझ लेता. जरा वह अपने दिल को बड़ा करता, जरा वह आत्मीयता का हाथ बढ़ा देता. जरा वह सुन लेता, जरा वह कह देता. यही कारण है कि ऐस दिवस पर हमें अपने दिल की बात कहने की गुंजाइश मिल जाती है. शायद, हम कह पाएं तो ‘शक्ति’ के क्लाइमेक्स जैसा हमारी जिंदगी में न हो. कुछ ऐसा कि अंत में पूछना पड़े, मुझसे मुहब्बत थी तो आपने अब तक क्यों नहीं कहा डैड? तुमने भी कब समझना चाहा मेरे बच्चे?
(न्यूज 18 हिंदी में प्रकाशित ब्लॉग)
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