Monday, July 31, 2023

प्रेमचंद: हिंदी वाले इन्‍हीं की बदौलत दूसरी भाषा वालों के सामने इठला सकते हैं

 साहित्य का प्रभाव चरित्र पर बहुत पडता है. साहित्य का उद्देश्य ही चरित्र का निर्माण है, इसलिए इस काम में अपने आदर्शी और उद्देश्यो को पवित्र रखना चाहिए. मुंशी प्रेमचंद ने यह बात एक पत्र में साहित्‍यकार-संपादक बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखी थी. कमोबेश यही बात प्रेमचंद ने पत्रकार-कहानीकार प्रभाकर माचवे को भी लिखते हुए कहा था कि कहानी वही श्रेष्‍ठ जिसका कोई उद्देश्‍य हो. बिना समाज को संदेश दिए लिखा गया साहित्‍य कितना भी श्रेष्‍ठ क्‍यों न हो, अच्‍छा नहीं कहा जा सकता है.

अपनी इस कसौटी पर साहित्‍य रचने वाले मुंशी प्रेमचंद लेखन के लिहाज से अपने समय से आगे थे और आज भी अधिक प्रासंगिक मालूम होते हैं. उनकी रचनाओं को पढ़ कर लगता ही नहीं है ये रचनाएं सौ साल पहले लिखी गई थीं. हमें यूं लगता है जैसे ये हमारे समय में ही लिखी गई हैं, हमारा वह समय जब नैतिकता, मूल्‍यों और मानवता का ह्रास हो रहा है. मुंशी प्रेमचंद के नाम से मशहूर साहित्‍यकार का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव है. 31 जुलाई 1880 को उत्‍तर प्रदेश के लमही में जन्‍मे प्रेमचंद का देहांत 8 अक्टूबर 1936 को हुआ. वर्ष 1901 से ही प्रेमचंद की साहित्यिक यात्रा आरंभ हो गई थी. शुरुआत में वो नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखा करते थे. उनका पहला उर्दू उपन्यास “असरारे मआबिद” है यह धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ. 1908 में प्रकाशित पहला कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ देशभक्ति की भावना से परिपूर्ण था. अंग्रेज सरकार ने इस संग्रह को प्रतिबंधित कर सभी प्रतियां जब्त कर ली थीं.

उन्‍हें भविष्य में न लिखने की हिदायत दी गई थी. यही कारण है कि उन्‍होंने अपना नाम बदल कर प्रेमचंद रख लिया था. 1918 में उनका पहला उपन्यास ‘सेवासदन’ प्रकाशित हुआ. लोकप्रिय हुए इस उपन्‍यास के बाद वे उर्दू के बाद हिंदी में समान रूप से ख्‍यात हो गए. प्रेमाश्रम, रंगभूमि, सेवासदन, निर्मला, कर्मभूमि, गोदान, गबन उपन्यास और पूस की रात, बड़े घर की बेटी, कफन, पंच परमेश्वर, दो बैलों की कथा, बूढी काकी जैसी कहानियां प्रेमचंद के रचना संसार की प्रतीक रचनाएं हैं.

ऐसी रचनाएं जिनके संदर्भ में साहित्‍यकार बनारसी दास चतुर्वेदी ने कहा है कि हिंदी वाले उन्हीं की बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूंछों पर ताव दे सकते हैं. यद्यपि इस बात में संदेह है कि प्रेमचंद हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे जितने कविवर मैथिलीशरण जी हैं. पर प्रेमचंद के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंदी कलाकार इस समय हिंदी जगत में विद्यमान नहीं. लोग उनको उपन्यास सम्राट कहते हैं, पर कोई भी समझदार आदमी उनसे दो ही मिनट बातचीत करने के बाद समझ सकता है कि प्रेमचंद में साम्राज्यवादिता का नामोनिशान नहीं है. कद के छोटे है, शरीर निर्बल-सा है. चेहरा भी कोई प्रभावशाली नहीं और श्रीमती शिवरानी देवी हमें क्षमा करें, यदि हम कहे कि जिस समय ईश्वर के यहां शारीरिक सौंदर्य बंट रहा था. प्रेमचंद जरा देर से पहुंचे थे. पर उनकी उन्मुक्त हंसी की ज्योति पर, जो एक सीधे-सादे सच्चे स्नेहमय हृदय से ही निकल सकती है, कोई भी सहदया सुकुमारी पतंगवत अपना जीवन निछावर कर सकती है.

प्रेमचंद का संपूर्ण जीवन साहित्‍य को समर्पित था. उन्‍होंने खूब लिखा, तमाम विपरीत परिस्थि‍तियों में भी ‘हंस’ का संपादन किया. लेकिन इस संघर्षों तथा विपरीत स्थितियों का स्‍वयं के व्‍यक्तित्‍व पर असर नहीं पड़ने दिया. बनारसी दास चतुर्वेदी अपने संस्‍मरण में लिखते हैं, प्रेमचंदजी ने बहुत से कष्ट पाए हैं, अनेक मुसीबतों का सामना किया है, पर उन्होंने अपने हृदय में कटुता को नहीं आने दिया. वे शुष्क बनियापन से कोसों दूर रहे. प्रेमचंदजी में सबसे बड़ा गुण यही है कि उन्हें धोखा दिया जा सकता है. जब इस चालाक साहित्य-संसार में बीसियों आदमी ऐसे पाए जाते हैं, जो दिन-दहाड़े दूसरों को धोखा दिया करते हैं, प्रेमचंदजी की तरह के कुछ आदमियों का होना गनीमत है. उनमें दिखावट नहीं, अभिमान उन्हें छू भी नहीं गया और भारत व्यापी कीर्ति उनकी सहज विनमता को उनसे छीन नहीं पाई.

प्रख्‍यात लेखिका महादेवी वर्मा ने लिखा है, प्रेमचंद के व्यक्तित्व में एक सहज संवेदना और ऐसी आत्मीयता थी. जिस युग में उन्होंने लिखना आरंभ किया था, उस समय हिंदी कथा-साहित्य जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत में ही सीमित था. उसी बाल-सुलभ कुतूहल में प्रेमचंद उसे एक व्यापक धरातल पर ले आए, जो सर्व सामान्य था. उन्होंने साधारण कथा, मनुष्य की साधारण घर-घर की कथा, हल-बैल की कथा, खेत-खलि-हान की कथा, निर्झर, वन, पर्वतों की कथा सब तक इस प्रकार पहुंचाई कि वह आत्मीय तो थी ही, नवीन भी हो गई.

प्रेमचंद के जीवन संघर्षों को कई साहित्‍यकारों ने करीब से देखा है और उनके व्‍यक्तित्‍व के प्रति आदर व्‍यक्‍त किया है. महादेवी वर्मा अपने संस्‍मरण में यही बात रेखांकित करती हैं. वे लिखती हैं कि प्रेमचंद ने जीवन के अनेक संघर्ष झेले और किसी संघर्ष में उन्होंने पराजय की अनुभूति नहीं प्राप्त की. पराजय उनके जीवन में कोई स्थान नहीं रखती थी. संघर्ष सभी एक प्रकार से पथ के बसेरे के समान ही उनके लिए रहे. वह उन्हें छोड़ते चले गए. ऐसा कथाकार जो जीवन को इतने सहज भाव से लेता है, संघर्षों को इतना सहज मानकर, स्वाभाविक मानकर चलता है, वह आकर फिर जाता नहीं. उसे मनुष्य और जीवन भूलते नहीं. वह भूलने के योग्य नहीं है. उसे भूलकर जीवन के सत्य को ही हम भूल जाते हैं. जिस पर उन्होंने विश्वास किया, जिस सत्य को उनके जीवन ने, आत्मा ने स्वीकार किया उसके अनुसार उन्होंने निरंतर आचरण किया. इस प्रकार उनका जीवन, उनका साहित्य दोनों खरे स्वर्ण भी हैं और स्वर्ण के खरेपन को जांचने की कसौटी भी है.

काम के प्रति प्रेमचंद का आग्रह कैसा था, यह बनारसीदास चतुर्वेदी के संस्‍मरण से ही समझा जा सकता है. वे लिखते हैं, यदि प्रेमचंद को अपनी डिक्टेटर शिवरानी देवी का डर न रहे तो वे चौबीस घंटे यही निष्काम कर्म कर सकते हैं. एक दिन बात करते-करते काफी देर हो गई घड़ी देखी तो पता लगा कि पौन दो बजे हैं. रोटी का वक्त निकल चुका था. प्रेमचंद ने कहा ‘खैरियत यह है कि घर में ऊपर घड़ी नहीं है, नहीं तो अभी अच्छी खासी डांट सुननी पड़ती. घर में एक घड़ी रखना, और सो भी अपने पास बात सिद्ध करती है कि पुरुष यदि चाहे तो स्त्री से कहीं अधिक चालाक बन सकता है और प्रेमचंद में इस प्रकार का चातुर्य बीजरूप में तो विद्यमान है ही.

बकौल बनारसीदास चतुर्वेदी प्रेमचंद में मानसिक स्फूर्ति चाहे कितनी ही अधिक मात्रा में क्यों न हो, शारीरिक फुर्ती का प्रायः अभाव ही है. यदि कोई भला आदमी प्रेमचंद तथा कथाकार सुदर्शन को एक मकान में बंद कर दे तो सुदर्शन तिकड़म भिड़ाकर छत से नीचे कूद पड़ेंगे और प्रेमचंद वही बैठे रहेंगे. यह दूसरी बात है कि प्रेमचंद वहां बैठे-बैठे कोई गल्प लिख डालें. जम के बैठ जाने में ही प्रेमचंद की शक्ति और निर्बलता का मूल स्रोत छिपा हुआ है. प्रेमचंद ग्रामों में जमकर बैठ गए और उन्होंने अपने मस्तिष्क के सुपरफाइन कैमरे से वहां के चित्र-विचित्र जीवन का फिल्म ले लिया.

जीवित रहते हुए भी प्रेमचंद के नाम के साथ विवाद जुड़े थे, खासकर हंस के प्रकाशन के दौरान. उनके निजी जीवन पर भी तंंज किए गए.  आज भी प्रेमंचद और उनके साहित्‍य को तरह-तरह की दृष्टि से देखा जा रहा है. उनकी आलोचना की जा रही है मगर जो उन्‍होंने जिया और रचा है, वह आज के समय में भी एक व्‍यक्ति को ठीक एक समूह के बस की भी बात नहीं है. इसीलिए प्रेमचंद का लिखा हमें पसंद आता है.


(न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग) 

Thursday, July 27, 2023

मिसाइल मैन डॉ. कलाम: एक ब्रेक ने दूर कर दी थी अग्नि मिसाइल परीक्षण की घबराहट

वह 27 जुलाई 2015 की शाम थी. भारत के पूर्व राष्‍ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलांग में व्याख्यान दे रहे थे. इस दौरान उन्हें जोरदार कार्डियक अरेस्ट हुआ और वे बेहोश हो कर गिर पड़े. यह दिल का दौरा इतना ताकतवर था कि उन्‍हें बचाया नहीं जा सका. जीवन भर अपने कार्य के प्रति समर्पित और निष्‍ठावान रहे डॉ. कलाम का इस तरह सक्रिय रहते हुए निधन भी जैसे उनकी कर्मठता का अभिनंदन था. डॉ. कलाम को प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह (एस.एल.वी. तृतीय) प्रक्षेपास्त्र बनाने का श्रेय हासिल है. कलाम ने ही पोखरण में दूसरी बार परमाणु परीक्षण कर देश को परमाणु हथियार निर्माण की क्षमता दिलवाई. वे ऐसे तीसरे राष्ट्रपति हैं जिन्हें भारत रत्न से सम्‍मानित किया गया.

15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु में रामेश्वरम के धनुषकोडी गांव में जन्‍मे डॉ. कलाम का जीवन आसान नहीं रहा. मध्‍यमवर्गीय संयुक्‍त परिवार में जन्‍मे अबुल पाकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल कलाम के भारत रत्‍न डॉ. एपीजे अब्‍दुल कलाम बनने तक के सफर में अनेक मील के पत्‍थर हैं जो हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत हो सकते हैं. इस सफलता के पीछे के कारकों को उन्‍होंने अपनी पुस्‍तक ‘द ट्री लाइफ’ में दर्ज किया है. ‘क्या मैं अकेला हूं’ शीर्षक से वे लिखते हैं:

मैं और मेरे मित्र प्रो. विद्यासागर हवाई जहाज से हैदराबाद से दिल्ली आ रहे थे. हमारा हवाई जहाज घने बादलों में परत-दर-परत ऊपर उठता हुआ ऊंची उड़ान भर रहा था. उस अद्भुत दृश्य ने हमारी अंतरात्मा को झकझोर दिया. उसके बाद, एक दिन हम एशियाड विलेज कांप्लैक्स के बागीचे में घूम रहे थे तो वहां फूलों से लदे हुए नागफनी के खूबसूरत पौधे ने एक ईश्वरीय अनुभव से हमारी आत्मा को भिगो दिया और मुझे ‘जीवन वृक्ष’ लिखने के लिए प्रेरित किया.

सांप्रदायिक सोच हमारे देश में हमेशा से एक मसला रही है. इस सोच देश को कई हिस्‍सों में बांट दिया है. मुस्लिम परिवार में जन्‍मे डॉ. कलाम का भी इस सोच से सामना हुआ होगा. उन्‍होंने ऐसे मामलों पर अपने अनुभव को यूं लिखा है:

जब भी मैं सांप्रदायिकता और सामाजिक असमानता की बातें सुनता हूं तो मुझे रामेश्वरम् के अपने प्राइमरी स्कूल की एक घटना तुरंत याद आ जाती है. मैं पांचवीं कक्षा में पढ़ता था. हमें पढ़ाने के लिए स्कूल में एक नए शिक्षक आए थे. मैं हमेशा अपने परम मित्र रामनाथन के साथ सबसे आगे की पंक्ति में बैठा करता था. नए शिक्षक एक ब्राह्मण और एक मुसलिम विद्यार्थी का कक्षा में एक साथ बैठना समझ न सके. शिक्षक ने अपनी समझ से सामाजिक व्यवस्था का पालन करते हुए मुझे पीछे के बेंच पर बैठने के लिए कहा. मुझे यह सुनकर बहुत क्रोध आया और मेरा मित्र रामनाथन भी इससे बहुत विचलित हुआ. मैं आगे से उठकर आखिरी बेंच पर जा बैठा. यह देखकर रामनाथन ने रोना शुरू कर दिया. रामनाथन का रोता चेहरा मुझे आज भी याद है. हमारे पिता और परिजनों को जब इस घटना के बारे में पता चला तो अध्यापक को बुलाकर समझाया गया कि उन्होंने बहुत घृणित कार्य किया है. लगभग 50 वर्ष पूर्व, हमारे परिजनों के मजबूत विश्वास ने उस अध्यापक के विचार बदल दिए.

फिर जब देश आजाद हुआ तब भी सांप्रदायिक दंगों ने बाल मन को प्रभावित किया था. उस दौरान महात्‍मा गांधी भूमिका पर किशोर अब्‍दुल कलाम क्‍या सोचते थे, यह यूं व्‍यक्‍त हुआ है:

15 अगस्त, 1947 को हमारे हाई स्कूल के अध्यापक श्रद्धेय अय्यादुरै सोलेमन मुझे पं. जवाहरलाल नेहरू की मध्य रात्रि में दी जानेवाली स्वतंत्रता दिवस की तकरीर सुनाने के लिए ले गए. उन दिनों सभी घरों में रेडियो नहीं हुआ करते थे. नेहरूजी की तकरीर ने हमें द्रवित कर दिया. अगली सुबह सभी समाचार पत्रों ने इस महत्त्वपूर्ण घटना को अपना मुख्य समाचार बनाया. परंतु साथ ही एक अन्य समाचार भी छपा था, जो आज भी मेरी स्मृति में ताजा है. यह था कि कैसे सांप्रदायिक दंगों से पीडित परिवारों का कष्ट दूर करने के लिए गांधीजी नंगे पाँव नौआखली में घूम रहे थे. साधारणतः राष्ट्रपिता होने के नाते महात्मा गांधी को उस समय सत्ता हस्तांतरण और राष्ट्रीय ध्वज को फहराना देखने के लिए राजधानी में होना चाहिए था. जबकि वे उस समय नौआखली में थे, यही महात्मा की महानता थी. इसने मेरे हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ी.

जमीन से जमीन पर मार करने वाली अग्नि मिसाइल और पृथ्वी मिसाइल का सफल परीक्षण का श्रेय डॉ. कलाम को जाता है. उन्‍होंने स्‍वदेशी तकनीक से अग्नि मिसाइल का निर्माण किया था. क्‍या आप जानते हैं, आयुध क्षमता निर्माण व विकास में जुटे वैज्ञानिक डॉ. कलाम को प्रकृति ने सदैव प्रेरणा दी है. यानी शस्‍त्रों की मारकता के पीछे फूलों सी सुकोमल सोच की शक्ति थी. हथियारों के बुद्धिमत्‍तापूर्ण और संयमित उपयोग के लिए यह एक तरह का संदेश है. डॉ. कलाम लिखते हैं:

पिछले अनेक वर्षों से हम मध्यम दूरी की जिस अग्नि मिसाइल पर कार्य करते आ रहे थे उसे प्रक्षेपण के लिए चांदीपुर में प्रक्षेपण स्थल पर स्थापित कर दिया गया था. हमें अगले दिन उसका प्रक्षेपण करना था. मैं प्रक्षेपण स्थल से लांच ऑथोराइजेशन बोर्ड के लिए कंट्रोल सेंटर जा रहा था. मैं विचारमग्न था क्योंकि हमारे पिछले दो प्रयासों के दौरान प्रक्षेपण प्रतिक्रिया में कुछ गड़बड़ी पैदा हो गई थी. हालांकि हम काफी संतुष्ट थे कि हम मिसाइल को सुरक्षित रखने में सफल हुए थे. तभी कार की खिड़की से मैंने बाहर देखा और मेरी नजर सड़क के साथ-साथ बने तालाबों में खिली रंग-बिरंगी कुमुदनियों पर पड़ी. सुबह-सवेरे की ठंडी मनमोहक हवा के साथ इधर-उधर डोल रही इन कुमुदनियों का नृत्य देखने के लिए मैं कार से उतर पड़ा. इस अल्पविश्राम ने मुझे शांति प्रदान की और मैं तनाव मुक्त हो गया. एक बार फिर मैं चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार था. अगले दिन अग्नि को छोड़ा गया और शेष तो अब इतिहास है.

यह ऐतिहासिक कार्य करने वाले वैज्ञानिक किस मानसिक और भावनात्‍मक दौर से गुजरते हैं यह हमें पता ही नहीं होता है. देश के वैज्ञानिकों और उनके परिजनों के समर्पण और संघर्ष को डॉ. कलाम ने यूं बताया है:

अग्नि के सफल परीक्षण ने पूरे देश को उल्लासित कर दिया था. अग्नि के निर्माण के समय एक घटना घटी. अग्नि के निर्माण कार्य में लगे होने के कारण लगभग चालीस दिन से अपने घर-परिवार से दूर एक वैज्ञानिक ने, जो इस कार्य में विशेष निपुण है, अपने घरवालों का कुशलक्षेम जानने के लिए उन्हें हैदराबाद फोन किया. उनकी पत्नी ने फोन उठाया, पर ज्यादा बात न कर फोन उनके पिता को थमा दिया. पिता ने उनसे बातचीत की और उन्हें आश्वस्त किया कि वे सब हैदराबाद में कुशल से हैं और जानना चाहा कि वह कब घर लौट रहे हैं. कुछ दिन बाद अग्नि के सफल प्रक्षेपण के पश्चात् जब वे लौटे तो पत्नी को रोते हुए देख काफी व्याकुल हुए. तब उन्हें पता चला कि एक सप्ताह पूर्व उनकी पत्नी के भाई की एक दुर्घटना में असमय मृत्यु हो गई थी. अग्नि-निर्माण के कार्य में बाधा न पड़े, यह सोचकर घरवालों ने उन्हें यह खबर नहीं दी थी. ऐसे परिवारों को मैं झुककर सलाम करता हूं.

जब हम सफल होते हैं तो हमें अपने माता-पिता, अपने शिक्षक, अपने मित्र, प्रेरणास्रोत याद आते हैं. अपनी सफलता में इन सभी का योगदान होता है. ‘अम्मी-अब्बा मैं आपका शिशु’ शीर्षक में डॉ. कलाम लिखते हैं:

1990 के गणतंत्र दिवस के दिन मुझे एक सुखद समाचार मिला. भारत के राष्ट्रपति ने मुझे पद्मविभूषण से सम्मानित किया है. इस खुशी के मौके पर मैंने अपना कमरा संगीतमय वातावरण से भर दिया और वह संगीत मुझे किसी अन्य देश और काल में ले गया. मैं पुरानी यादों में खो गया. अपने कल्पना लोक में घूमता हुआ मैं रामेश्वरम् पहुंचा और अपनी मां के गले जा लगा. मेरे पिता मेरे बाल अपने हाथों से संवार रहे थे. मस्जिद वाली सड़क पर इकट्ठी हुई भीड़ को जलालुद्दीन ने यह समाचार दिया. लक्ष्मण शास्त्री ने मेरे माथे पर तिलक लगाया. फादर सोलोमन ने अपने पवित्र क्रॉस के लॉकेट पर हाथ रखकर मुझे आशीर्वाद दिया. मैंने प्रो. विक्रम साराभाई को मुस्कराते हुए देखा. बीस साल पहले उनके लगाए बिरवे में फल आ गए थे. मेरा हृदय कृतज्ञता से भर गया.


 (न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग) 


Thursday, July 20, 2023

श्री मां शारदा देवी: भगवान से लौकी-कद्दू नहीं, शुद्ध प्रेम व ज्ञान मांगों

छोटी सोच मत रखो. भगवान से लौकी और कद्दू के लिए प्रार्थना न करें, जबकि आपको हर दिल में शुद्ध प्रेम और शुद्ध ज्ञान के लिए प्रार्थना करनी चाहिए.

यह प्रेरक वाक्‍य श्री मां शारदा देवी (सारदा देवी) का है. शारदा देवी यानी नाम सारदामणि मुखोपाध्याय. उनका परिचय केवल इतना नहीं है कि वे बंगाल के उन्नीसवीं सदी के संत रामकृष्ण परमहंस की पत्नी और आध्यात्मिक सहयात्री थीं, बल्कि वे उस वक्‍त की सामाजिक उन्‍नति और मानवीय चेतना के विकास की अग्रदूत भी थीं. रामकृष्ण मठ के अनुयायी उन्हें श्री मां संबोधित करते हैं तो इसका कारण है कि उन्‍होंने प्राणी मात्र में भेद नहीं किया. फिर चाहे स्‍वामी विवेकानंद जैसा प्रखर आध्‍यात्मिक पुरूष सामने हो या डाकू अजमद या कोई चींटी, श्री मां शारदा देवी ने सभी को समान स्‍नेह और ममता प्रदान की. स्वयं अशिक्षित होने के बावजूद शारदा देवी ने महिलाओं के लिए शिक्षा की वकालत की.

शारदा देवी का जन्म कलकत्ता के पास एक छोटे से गांव जयरामबती में 22 दिसंबर 1853 को हुआ था. उस समय की परंपरा के अनुसार पांच साल की उम्र में उनकी शादी रामकृष्ण से हो गई थी. जब वे अठारह वर्ष की हुईं तब हुगली नदी के किनारे स्थित दक्षिणेश्वर काली मंदिर पहुंची जो रामकृष्‍ण परमहंस की कर्मभूमि है. विवाहित होने के बावजूद दोनों ने गृहस्थ और मठवासी जीवन के आदर्शों को दर्शाते हुए अखंड ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत किया. कहा जाता है कि एक पुजारी के रूप में रामकृष्ण ने शारदा देवी को देवी काली के स्थान पर बैठाया और अनुष्ठानपूर्वक षोडशी पूजा की. रामकृष्ण ने शारदा को दिव्य मां का अवतार माना और उन्हें श्री मां संबोधित किया.

श्री मां शारदा का दिन सुबह 3 बजे शुरू होता था. गंगा में अपना स्नान समाप्त करने के बाद, वह सुबह होने तक मंत्र जप और ध्यान किया करती थीं. ध्यान के घंटों को छोड़कर, उनका अधिकांश समय रामकृष्ण और उनके भक्तों के लिए खाना पकाने में व्यतीत होता था. रामकृष्ण परमहंस के निधन के बाद शारदा देवी धार्मिक आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहीं. रामकृष्ण ने उन्हें अपने निधन के बाद अपना मिशन जारी रखने का आदेश दिया था और चाहते थे कि उनके शिष्य उनके और उनके बीच कोई अंतर न करें. वे अगले चौंतीस वर्षों तक आंदोलन की आध्यात्मिक मार्गदर्शक बनी रहीं.

अमेरिकी सूफी लेखक लेक्स हिक्सन ने अपनी पुस्‍तक ‘ग्रेट स्वान’ में संत रामकृष्ण परमहंस के साथ मुलाकातों को वर्णन किया है. इस पुस्तक में हिक्सन ने मां शारदा से भेंट के अनुभवों पर भी लिखा है. इसमें दर्ज है कि शारदा देवी को उनकी महिला साथी सुबह तीन बजे न जागने की सलाह देती हैं. शारदा देवी कहती हैं कि सुबह तीन बजे से पहले जागना और आधी रात के बाद ही निवृत्त होना कठिन काम है. लेकिन मैं कैसे ज्‍यादा सो सकता हूं? मैं प्राणियों की कष्टदायी पीड़ा से भली-भांति परिचित हूं. मेरे दिल की गहराई में चुपचाप दिव्य नाम दोहराने से, यह सार्वभौमिक पीड़ा धीरे-धीरे लालसा में बदल जाती है और अंततः रोशनी बन जाती है. मैं इस स्थिति को इतना स्पष्ट रूप से देखती हूं कि मेरे लिए सोने के लिए प्रार्थना करना बंद करना मुश्किल है, यहां तक कि एक घंटे के लिए भी नहीं. मैं कभी-कभी सोची हूं कि मैं सीमित मानव शरीर के बजाए यदि अनंत दिव्य रूप में प्रकट होती तो शायद पीड़ित प्राणियों के लिए और अधिक करने में अधिक सक्षम होती. वे हर हाल में प्रत्‍येक जीवित प्राणी की देखभाल करने को महत्‍व देती थी. एक बार का किस्‍सा है कि कक्ष में आई चींटी को किसी ने मारना चाहा तो उन्‍होंने उसे रोक दिया। श्री मां ने कहा कि उस चींटी में उन्‍हें रामकृष्‍ण परमहंस की छवि दिखाई दी.

संदर्भ बताते हैं कि जो भी श्री मां के सानिध्‍य में आया उनकी कृपा का पात्र बना। यूं तो स्‍वामी रामकृष्ण परमहंस प्रख्‍यात संत स्‍वामी विवेकानंद के गुरु थे. स्‍वामी विवेकानंद अपने गुरु जितना ही बल्कि उनसे कुछ अधिक महत्‍व गुरु मां शारदा देवी को देते थे. वे अपने जीवन का हर महत्‍वपूर्ण निर्णय श्री मां की आज्ञा से ही लेते थे. किस्‍सा है कि जब विश्व धर्म सम्मेलन के लिए अमेरिका जाने का प्रस्‍ताव आया तो वे श्री मां से आज्ञा लेने पहुंचे. तुरंत कोई उत्‍तर देने की जगह श्री मां ने कहा कि मैं सोचकर बताती हूं. यह अचरज वाली बात थी. स्‍वीकृति या अस्‍वीकृति एक क्षण में ही दी जा सकती थी.

कुछ देर बाद शारदा देवी भोजन पकाने के लिए रसोई में चली गईं. स्‍वामी विवेकानंद भी साथ थे. उन्होंने सब्जी काटने के लिए चाकू मांगा. स्‍वामी विवेकानंद चाकू लाकर दे दी. इस प्रक्रिया के तुरंत बाद शारदा देवी ने प्रसन्‍न हो कर स्वामी विवेकानंद को अमेरिका जाने की अनुमति दे दी. यह घटनाक्रम चौंकाने वाला था. स्‍वामी विवेकानंद ने प्रश्‍न किया कि आप तो विचार करने वाली थीं. अब तुरंत ही स्‍वीकृति कैसे दे दी? इसमें क्या रहस्य है?’

शंका का समाधान करते हुए श्री मां बताया कि चाकू मांग कर उन्‍होंने असल में परीक्षा ली थी. वे देखना चाहती थी कि विवेकानंद चाकू कैसे देते हैं? वे खुश हुई कि विवेकानंद ने धार वाला हिस्‍सा अपनी ओर रख कर हत्‍थे वाला हिस्‍सा श्री मां की ओर रखा. इससे पता चला कि वे दूसरों की सुरक्षा के लिए स्‍वयं खतरा उठाने को तैयार हैं.

गुरु रामकृष्‍ण परमहंस के निधन के उपरांत स्‍वामी विवेकानंद हमेशा श्री मां की चिंता किया करते थे. अपने गुरुभाई को एक पत्र में उन्‍होंने लिखा था कि मां कितनी अनमोल हैं इस बात को लोग अभी नहीं समझेंगे. धीरे-धीरे समझेंगे. तुम्हें पता है कि हमारा देश दूसरे देशों के मुकाबले इतना कमजोर और पिछड़ा है क्योंकि यहां शक्ति (नारी) का अपमान किया जाता है.’

श्री मां ने आध्‍यात्मिक उन्‍नति के लिए तो मार्ग प्रशस्‍त किया ही बालिका शिक्षा को लेकर भी वे अत्‍यधिक आग्रही थीं. 1895 में स्वामी विवेकानंद इंग्लैंड गए थे तब उनके विचारों से एक युवती मार्गरेट नोबल प्रभावित हुई थी. 28 जनवरी 1898 को मार्गरेट नोबल भारत आईं और यहीं की हो कर रह गईं. 25 मार्च 1898 को स्वामी विवेकानंद ने उन्‍हें ‘ब्रह्मचारिणी’ व्रत की दीक्षा देकर उनका नाम ‘निवेदिता’ रखा. भगिनी निवेदिता ने उसी वर्ष कोलकाता मे ‘निवेदिता बालिका विद्यालय’ की स्थापना की. निवेदिता स्कूल का उद्घाटन श्री मां शारदा ने किया था. उन्‍होंने भगिनी निवेदिता को अपनी पुत्री की तरह स्नेह दिया. भगिनी निवेदिता ने अपने गुरु की प्रेरणा से ऐसे समय में स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में कार्य किया जब संभ्रांत लोग भी अपनी लड़कियों को स्कूल भेजना पसंद नहीं करते थे.

मां शारदा द्वारा पीडि़तों की सेवा और भेद न करने के कई किस्‍से प्रचलित हैं. जैसे कहा जाता है कि विवाह उपरांत जब वे 18 वर्ष की उम्र में पित रामकृष्‍ण के पास आ रही थीं तो रास्‍ते में घना जंगल आता था. पैर में मोच के कारण वे तेज नहीं चल पा रही थीं. समूह के लोगों पर खतरा भांप कर उन्‍होंने उन्‍हें जाने के लिए कह दिया. वे अकेली रह गई थीं. रात में रास्‍ते में डाकुओं ने घेर लिया. जब डाकुओं ने पूछा कि वे अकेली क्‍यों हैं, तो उत्‍तर दिया कि अकेली कहां है, उनके पिता और भाई तो हैं न साथ में. डाकुओं के लिए यह आश्‍चर्य का विषय था कि एक महिला उनसे डर नहीं रही है बल्कि उन्‍हें भाई और पिता कह रही हैं. डाकुओं की आंखें भर आईं. श्री मां के पैर की स्थिति देख डाकुओं ने उनसे अपने घर चलने का आग्रह किया. छुआछूत को किनारे रख कर वे डाकुओं के घर में रात रूकी. डाकु सम्‍मान उन्हें लेकर श्री रामकृष्‍ण के निवास पर पहुंचे.

श्री मां की शरण में आने वाला हर व्यक्ति उनके लिये पुत्रवत था. अनेक डाकू बदमाश उनके वात्सल्य और ममता भरे व्यवहार से सुधार के रास्ते पर चलने लगे थे. ऐसा ही एक किस्‍सा है कि एक डाकू अजमद का. मां शारदा ने अमजद के द्वारा भक्तिपूर्वक लाए हुए फल-फूल को स्वीकार किया और उससे कभी घृणा नहीं की. यह अपनापन सब देखकर अमजद और उसके साथी आनंद से भर गए. एक दिन अमजद को मां ने भोजन पर बुलाया. जब भतीजी नलिनी ने छुआछूत का ध्‍यान रख कर अमजद की थाली में रोटी दूर से फेंक कर दद तो श्री मां ने उन्‍हें रोकते हुए कहा कि इस तरह फेंक कर परोसने से किसको अच्छा लगेगा? क्या वह प्रसन्नता से भोजन कर पाएगा? श्री मां ने स्‍वयं अपने हाथों से अमजद का परोस कर खाना खिलाया.

ये सब उदाहरण भले ही श्रद्धा में कहे गए किस्‍सों की तरह लगे लेकिन समझा जाना चाहिए कि 19 वीं और 20 वीं शताब्‍दी के भारतीय खासकर बंगाली समाज में भेदभाव और छुआछूत की क्‍या स्थिति थी और किस तरह अपने आचरण और व्‍यवहार से संतों ने इस भेद को मिटाने का कार्य किया है. श्री मां शारदा ने कोई किताब नहीं लिखी लेकिन शिष्‍यों ने उनके कथनों को संग्रहित किया है. उनका जीवन ही उनका संदेश था. मानवता की सेवा करते हुए कठिन परिश्रम एवं बार-बार मलेरिया के कारण उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया और 20 जुलाई 1920 को श्री मां शारदा ने देह त्याग दी. आज सौ बरसों बाद भी जब उनके समय जैसी परिस्थितियां अपने आसपास पाते हैं तो उनका अंतिम कथन याद आता है. मृत्यु से पहले मां शारदा ने अपने दुःखी भक्तों को सलाह दी थी:

‘यदि आप मन की शांति चाहते हैं, तो दूसरों में दोष न ढूंढें. बल्कि अपने दोष देखें. पूरी दुनिया को अपना बनाना सीखो. कोई भी पराया नहीं है मेरे बच्चे: यह पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है.’

 (न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग) 

Thursday, July 6, 2023

मणि कौल का सिनेमा: रजत पट पर स्‍वर्णिम साहित्‍य रचना

जब भी इंतजार शब्‍द सुनता या पढ़ता हूं तो मुझे बरबस मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ याद आ जाती है. इसके समानांतर याद आती है मणि कौल की फिल्‍म ‘उसकी रोटी’. यह कहना मुश्किल है कि मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ पढ़ते वक्‍त इंतजार और स्‍त्री मन की बारीकियों को अधिक गहराई से महसूस किया या मणि कौल की फिल्‍म को देखते वक्‍त. बल्कि यूं कहना चाहिए कि मणि कौल तक आते-आते मोहन राकेश की कहानी सिनेमा की कविता बन गई. ऐसी कविता जिसे ठहर कर पढ़ेंगे/सुनेंगे तो उसके दृश्‍य आपको शब्‍दों के पार ले जाएंगे. फिल्‍म के अधिकांश हिस्‍से में शब्‍द नहीं हैं, वहां ध्‍वनियां हैं जो मन के भावों को व्‍यक्‍त करती हैं. ऐसी ही है यह फिल्‍म जिसके संवाद तो ठीक ध्‍वनियां हमसे अधिक बात करती हैं, वे ध्‍वनियां जो हमारे आसपास रोज गूंजती है मगर हम उन्‍हें अनसुना कर देते हैं. मणि कौल उन ध्‍वनियों से कथा को मायने देते हैं, आगे बढ़ाते है और ‘उसकी रोटी’ मोहन राकेश की कहानी से आगे पर्दे पर मणि कौल की कविता बन जाती है.

हिंदी फिल्‍म जगत जिस समानांतर सिनेमा की राह चला है उसमें मणि कौल का स्‍थान प्रमुख हैं. एफटीआईआई से स्नातक और ऋत्विक घटक के शिष्य मणि कौल ने महज 24 वर्ष की उम्र में ‘उसकी रोटी’ फिल्म बनाई और समानांतर सिनेमा की नई इबारत लिखनी शुरू की. फिल्म की कहानी सुच्चा सिंह और उसकी पत्नी बालो के जीवन पर केंद्रित है. इस फिल्‍म को रचने में मणि कौल ने श्‍वेत-श्‍याम को पूरी विविधता के साथ प्रस्‍तुत किया है. आज के इस समय में जब शोर ही अभिव्‍यक्ति का पर्याय मान लिया गया है तब सन्‍नाटे और ध्‍वनियों का तालमेल कथा को तो आगे बढ़ाता ही है दर्शकों को रोक कर रखता है. ठहरने पर मजबूर करता है. वन मिनट रीड के दौर में यह ऐसा सिनेमा है जहां एक संवाद के आने की प्रतीक्षा खास तरह का प्रभाव उत्‍पन्‍न करती है. रफ्तार होती जिंदगी में जब ध्‍वनियां अनचिन्‍ही कर दी गई हैं तब ‘उसकी रोटी’ जैसी फिल्‍म हमें ध्‍वनियों को समझने का अभ्‍यास करवाती हैं. या यूं समझिए कि यह समय के साथ रहना सिखाती हैं. ठीक इस सिद्धांत की तरह कि शब्‍द तब ही हो जब वे मौन को तोड़ें. अन्‍यथा तो कामकाज की ध्‍वनियां, पानी, बर्तन, हवा, गाड़ी की आवाजें ही संवाद स्‍थापित करने में सक्षम होती हैं. ये ध्‍वनियां ही तो स्‍त्री मन विकटता भी जताती हैं और भीतरी उथलपुथल जाहिर करती हैं.

एक साक्षात्कार में स्‍वयं मणि कौल ने कहा है कि यदि एक टेबल पर रखे अमरूद को ट्रायपॉड पर रखा कैमरा शूट कर रहा हो तो टेबल, अमरूद, और कैमरा सभी स्थिर हैं एकमात्र जो चलायमान है वह है समय. मूमेंट ही मूवमेंट है. मुझे लगता है, मणि कौल की फिल्‍मों में मूमेंट ही मूवमेंट है. यहां सन्‍नाटा ही ध्‍वनियां गढ़ता है और ध्‍वनियां हमारे भीतर सन्‍नाटा बुनती है.

यह बात और है कि फिल्‍म की गति को लेकर मणि कौल हमेशा आलोचना के केंद्र में रहे. यहां कला समीक्षक प्रयाग शुक्‍ल की यह बात एकदम उपयुक्‍त जान पड़ती है कि जब ‘उसकी रोटी’ फिल्म रिलीज हुई थी तो उसे यह कहकर बहुतों के द्वारा कोसा गया था कि वह अत्यंत शिथिल और उबाऊ है, कि उसके ‘विलंबित लय’ वाले संवाद अत्यंत असहज लगते हैं. तब इस बात को भुला दिया गया था कि संवादों की इस प्रकार की अदायगी का अपना अर्थ और मर्म है. दुर्भाग्यवश मणि कौल के सिनेमा को लेकर यह बात इतनी बार दुहराई गई कि आम दर्शक का ध्यान तो उसकी ओर से कटता ही गया, जिन्हें हम प्रबुद्ध दर्शक कहेंगे वे भी उनके सिनेमा को लेकर उस तरह उत्साहित नहीं हुए, जिस तरह कि होना चाहिए. उदयन वाजपेयी की एक पुस्तक ‘अभेद आकाश’ जरूर एक अपवाद की तरह सामने आई और कुछ कवियों-लेखकों सिने-प्रेमियों की वे टिप्पणियां भी जो मणि कौल के सिनेमा को ‘खारिज’ करने की जगह उसकी खोज-परक यात्रा को समझने का यत्न करती हुई मालूम पड़ीं.

मणि कौल ने अपनी अधिकांश फिल्मों को हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर ही केंद्रित किया हैं. ‘उसकी रोटी’ से शुरू हुआ सफर मोहन राकेश की कृति पर ‘आषाढ़ का एक दिन’, विजयदान देथा की रचना पर ‘दुविधा’, मुक्तिबोध की रचना पर ‘सतह से उठता आदमी’, विजय तेंदुलकर के नाटक पर ‘घासीराम कोतवाल’; फ्योदोर दोस्तोव्स्की की रचना पर ‘इडियट’ तथा विनोद कुमार शुक्ल की रचना पर ‘नौकर की कमीज’ तक पहुंचता है. एक लेखक की कृति पर उसकी उपस्थित में फिल्‍म बनाना एक खास तरह का जोखिम भी होता है और सृजन का अनूठा अवसर भी देता है.

जब मैं कहता हूं कि मोहन राकेश की ‘उसकी रोटी’ कहानी और मणि कौल की फिल्‍म ‘उसकी कहानी’ की विषय वस्‍तु एक है मगर दोनों मुझ में अलग-अलग आकाश गढ़ती हैं. तब ख्‍याल आता है कि जब एक लेखक ने अपनी कृति को मणि कौल के नजरिए से पर्दे पर देखा होगा तो क्‍या अनुभव किया होगा? इस सवाल का उत्‍तर ‘समालोचन’ के लिए दिए साक्षात्‍कार में विनोद कुमार शुक्‍ल से मिलता है. उनके उपन्‍यास ‘नौकर की कमीज’ पर मणि कौल ने फिल्म बनाई है. जब फिल्‍म बन रही थी तब विनोद कुमार शुक्‍ल भी साथ थे. वे बताते हैं कि तब बनती हुई फिल्म का दर्शक था. अपने गढ़े हुए पात्र संतू को मैं देख रहा था. बाद में शूटिंग के दौरान मुझे लगने लगा कि मैंने इसी संतू को देख कर उपन्यास के संतू को लिखा है. दोनों संतू भी एक दूसरे को जान गए यानी उपन्यास के और फिल्म के संतू. यह जुड़वां की तरह दूसरी रचना थी. पर चचेरे की तरह. शक्ल-सूरत में कहीं मेल था कहीं मेल नहीं भी था.

विनोद कुमार शुक्‍ल कहते हैं कि मुझसे  बहुत पूछा गया कि उपन्यास के साथ न्याय हुआ या नहीं. मैं मानता हूं फिल्म मणिकौल की अपनी रचना है. उपन्यास मेरी. और रचना करना न्याय करना है, अपराध नहीं. मेरे लिए फिल्म को बनते हुए देखना उपन्यास को बनते हुए देखना था. मणि कौल ने उपन्यास को बनाया था. उपन्यास को टूटते हुए मैंने नहीं देखा.एक लेखक यदि इस तरह संतुष्‍ट हो जाए तो समझा जाना चाहिए कि किस ऊंचाई का सिनेमा रचा गया है.

मणि कौल पुणे के फिल्म संस्थान में ऋत्विक घटक के छात्र थे. उन्होंने पहले अभिनय और फिर निर्देशन का कोर्स किया और निर्देशन को ही अपना रचनात्मक जुनून बनाया. मणि कौल जिस एफटीटीआई में पढ़े हैं उसी संस्‍थान के छात्र रहे सुदीप सोहनी लिखते हैं कि मणि कौल स्पेस और टाइम के फिल्मकार हैं. उनकी फिल्में देखने के लिए धैर्य चाहती हैं. वे खुद इस ‘देखना’ पर हमेशा तवज्जो देते रहे. पर उनके लिए कभी भी सिनेमा दृश्य माध्यम नहीं रहा बल्कि वो इसे ‘टेम्पोरल मीडियम’ कहते थे. जो समय के सापेक्ष चल रहा. दृश्यों में, ध्वनि में, गति में, लय में और अपने परिवेश में- जिसमें तात्कालिकता पूरी स्वच्छंदता के साथ उपस्थित रह सकती है. इस विचार के आसपास भी अगर हम कुछ चहल-कदमी करें तो जटिल लगने वाली और समझ में न आने वाली मणि की फिल्मों के भीतर जाने का दरवाज़ा यहां से खुलता है.

सुदीप जब लिखते हैं कि जिस देश में लगभग हर तरह का विचार और कलाएं सदियों से पनप रही थीं और अपने आधुनिक रूप में समृद्ध थीं; वहीं सिनेमा को रस और विचार से अलग केवल ‘एक्सप्लोर’ करने और ‘इंटरप्रेट’ करने का मौका देने के बावजूद मणि कौल आम दर्शकों द्वारा नकार दिए गए, तो हमें हमारे सिनेमा समाज की विडंबना समझ आती है.

बहरहाल, मणि कौल का सिनेमा हमें ठहरने को मजबूर करता है. जैसे किसी कहानी या कविता की पंक्ति हमें रूकने पर विवश कर देती है. आज मणि कौल और उनके सिनेमा का जिक्र खासतौर से इसलिए कि आज उनकी पुण्‍यतिथि है. 25 दिसंबर 1944 को राजस्थान के जोधपुर जन्‍मे मणि कौल का निधन 6 जुलाई 2011 को गुड़गांव में निधन हुआ था. बेशक वे आज नहीं है मगर उनकी फिल्‍में सिनेमा विद्यार्थियों के लिए सबक हैं तो फिल्‍म प्रेमियों के लिए इंसानी मनोभावों को पर्दे पर देखने का दिलचस्‍प वितान.

 (न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग)