साहित्य का प्रभाव चरित्र पर बहुत पडता है. साहित्य का उद्देश्य ही चरित्र का निर्माण है, इसलिए इस काम में अपने आदर्शी और उद्देश्यो को पवित्र रखना चाहिए. मुंशी प्रेमचंद ने यह बात एक पत्र में साहित्यकार-संपादक बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखी थी. कमोबेश यही बात प्रेमचंद ने पत्रकार-कहानीकार प्रभाकर माचवे को भी लिखते हुए कहा था कि कहानी वही श्रेष्ठ जिसका कोई उद्देश्य हो. बिना समाज को संदेश दिए लिखा गया साहित्य कितना भी श्रेष्ठ क्यों न हो, अच्छा नहीं कहा जा सकता है.
अपनी इस कसौटी पर साहित्य रचने वाले मुंशी प्रेमचंद लेखन के लिहाज से अपने समय से आगे थे और आज भी अधिक प्रासंगिक मालूम होते हैं. उनकी रचनाओं को पढ़ कर लगता ही नहीं है ये रचनाएं सौ साल पहले लिखी गई थीं. हमें यूं लगता है जैसे ये हमारे समय में ही लिखी गई हैं, हमारा वह समय जब नैतिकता, मूल्यों और मानवता का ह्रास हो रहा है. मुंशी प्रेमचंद के नाम से मशहूर साहित्यकार का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव है. 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के लमही में जन्मे प्रेमचंद का देहांत 8 अक्टूबर 1936 को हुआ. वर्ष 1901 से ही प्रेमचंद की साहित्यिक यात्रा आरंभ हो गई थी. शुरुआत में वो नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखा करते थे. उनका पहला उर्दू उपन्यास “असरारे मआबिद” है यह धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ. 1908 में प्रकाशित पहला कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ देशभक्ति की भावना से परिपूर्ण था. अंग्रेज सरकार ने इस संग्रह को प्रतिबंधित कर सभी प्रतियां जब्त कर ली थीं.
उन्हें भविष्य में न लिखने की हिदायत दी गई थी. यही कारण है कि उन्होंने अपना नाम बदल कर प्रेमचंद रख लिया था. 1918 में उनका पहला उपन्यास ‘सेवासदन’ प्रकाशित हुआ. लोकप्रिय हुए इस उपन्यास के बाद वे उर्दू के बाद हिंदी में समान रूप से ख्यात हो गए. प्रेमाश्रम, रंगभूमि, सेवासदन, निर्मला, कर्मभूमि, गोदान, गबन उपन्यास और पूस की रात, बड़े घर की बेटी, कफन, पंच परमेश्वर, दो बैलों की कथा, बूढी काकी जैसी कहानियां प्रेमचंद के रचना संसार की प्रतीक रचनाएं हैं.
ऐसी रचनाएं जिनके संदर्भ में साहित्यकार बनारसी दास चतुर्वेदी ने कहा है कि हिंदी वाले उन्हीं की बदौलत आज दूसरी भाषा वालों के सामने मूंछों पर ताव दे सकते हैं. यद्यपि इस बात में संदेह है कि प्रेमचंद हिंदी भाषा-भाषी जनता में कभी उतने लोकप्रिय बन सकेंगे जितने कविवर मैथिलीशरण जी हैं. पर प्रेमचंद के सिवा भारत की सीमा उल्लंघन करने की क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंदी कलाकार इस समय हिंदी जगत में विद्यमान नहीं. लोग उनको उपन्यास सम्राट कहते हैं, पर कोई भी समझदार आदमी उनसे दो ही मिनट बातचीत करने के बाद समझ सकता है कि प्रेमचंद में साम्राज्यवादिता का नामोनिशान नहीं है. कद के छोटे है, शरीर निर्बल-सा है. चेहरा भी कोई प्रभावशाली नहीं और श्रीमती शिवरानी देवी हमें क्षमा करें, यदि हम कहे कि जिस समय ईश्वर के यहां शारीरिक सौंदर्य बंट रहा था. प्रेमचंद जरा देर से पहुंचे थे. पर उनकी उन्मुक्त हंसी की ज्योति पर, जो एक सीधे-सादे सच्चे स्नेहमय हृदय से ही निकल सकती है, कोई भी सहदया सुकुमारी पतंगवत अपना जीवन निछावर कर सकती है.
प्रेमचंद का संपूर्ण जीवन साहित्य को समर्पित था. उन्होंने खूब लिखा, तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी ‘हंस’ का संपादन किया. लेकिन इस संघर्षों तथा विपरीत स्थितियों का स्वयं के व्यक्तित्व पर असर नहीं पड़ने दिया. बनारसी दास चतुर्वेदी अपने संस्मरण में लिखते हैं, प्रेमचंदजी ने बहुत से कष्ट पाए हैं, अनेक मुसीबतों का सामना किया है, पर उन्होंने अपने हृदय में कटुता को नहीं आने दिया. वे शुष्क बनियापन से कोसों दूर रहे. प्रेमचंदजी में सबसे बड़ा गुण यही है कि उन्हें धोखा दिया जा सकता है. जब इस चालाक साहित्य-संसार में बीसियों आदमी ऐसे पाए जाते हैं, जो दिन-दहाड़े दूसरों को धोखा दिया करते हैं, प्रेमचंदजी की तरह के कुछ आदमियों का होना गनीमत है. उनमें दिखावट नहीं, अभिमान उन्हें छू भी नहीं गया और भारत व्यापी कीर्ति उनकी सहज विनमता को उनसे छीन नहीं पाई.
प्रख्यात लेखिका महादेवी वर्मा ने लिखा है, प्रेमचंद के व्यक्तित्व में एक सहज संवेदना और ऐसी आत्मीयता थी. जिस युग में उन्होंने लिखना आरंभ किया था, उस समय हिंदी कथा-साहित्य जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत में ही सीमित था. उसी बाल-सुलभ कुतूहल में प्रेमचंद उसे एक व्यापक धरातल पर ले आए, जो सर्व सामान्य था. उन्होंने साधारण कथा, मनुष्य की साधारण घर-घर की कथा, हल-बैल की कथा, खेत-खलि-हान की कथा, निर्झर, वन, पर्वतों की कथा सब तक इस प्रकार पहुंचाई कि वह आत्मीय तो थी ही, नवीन भी हो गई.
प्रेमचंद के जीवन संघर्षों को कई साहित्यकारों ने करीब से देखा है और उनके व्यक्तित्व के प्रति आदर व्यक्त किया है. महादेवी वर्मा अपने संस्मरण में यही बात रेखांकित करती हैं. वे लिखती हैं कि प्रेमचंद ने जीवन के अनेक संघर्ष झेले और किसी संघर्ष में उन्होंने पराजय की अनुभूति नहीं प्राप्त की. पराजय उनके जीवन में कोई स्थान नहीं रखती थी. संघर्ष सभी एक प्रकार से पथ के बसेरे के समान ही उनके लिए रहे. वह उन्हें छोड़ते चले गए. ऐसा कथाकार जो जीवन को इतने सहज भाव से लेता है, संघर्षों को इतना सहज मानकर, स्वाभाविक मानकर चलता है, वह आकर फिर जाता नहीं. उसे मनुष्य और जीवन भूलते नहीं. वह भूलने के योग्य नहीं है. उसे भूलकर जीवन के सत्य को ही हम भूल जाते हैं. जिस पर उन्होंने विश्वास किया, जिस सत्य को उनके जीवन ने, आत्मा ने स्वीकार किया उसके अनुसार उन्होंने निरंतर आचरण किया. इस प्रकार उनका जीवन, उनका साहित्य दोनों खरे स्वर्ण भी हैं और स्वर्ण के खरेपन को जांचने की कसौटी भी है.
काम के प्रति प्रेमचंद का आग्रह कैसा था, यह बनारसीदास चतुर्वेदी के संस्मरण से ही समझा जा सकता है. वे लिखते हैं, यदि प्रेमचंद को अपनी डिक्टेटर शिवरानी देवी का डर न रहे तो वे चौबीस घंटे यही निष्काम कर्म कर सकते हैं. एक दिन बात करते-करते काफी देर हो गई घड़ी देखी तो पता लगा कि पौन दो बजे हैं. रोटी का वक्त निकल चुका था. प्रेमचंद ने कहा ‘खैरियत यह है कि घर में ऊपर घड़ी नहीं है, नहीं तो अभी अच्छी खासी डांट सुननी पड़ती. घर में एक घड़ी रखना, और सो भी अपने पास बात सिद्ध करती है कि पुरुष यदि चाहे तो स्त्री से कहीं अधिक चालाक बन सकता है और प्रेमचंद में इस प्रकार का चातुर्य बीजरूप में तो विद्यमान है ही.
बकौल बनारसीदास चतुर्वेदी प्रेमचंद में मानसिक स्फूर्ति चाहे कितनी ही अधिक मात्रा में क्यों न हो, शारीरिक फुर्ती का प्रायः अभाव ही है. यदि कोई भला आदमी प्रेमचंद तथा कथाकार सुदर्शन को एक मकान में बंद कर दे तो सुदर्शन तिकड़म भिड़ाकर छत से नीचे कूद पड़ेंगे और प्रेमचंद वही बैठे रहेंगे. यह दूसरी बात है कि प्रेमचंद वहां बैठे-बैठे कोई गल्प लिख डालें. जम के बैठ जाने में ही प्रेमचंद की शक्ति और निर्बलता का मूल स्रोत छिपा हुआ है. प्रेमचंद ग्रामों में जमकर बैठ गए और उन्होंने अपने मस्तिष्क के सुपरफाइन कैमरे से वहां के चित्र-विचित्र जीवन का फिल्म ले लिया.
जीवित रहते हुए भी प्रेमचंद के नाम के साथ विवाद जुड़े थे, खासकर हंस के प्रकाशन के दौरान. उनके निजी जीवन पर भी तंंज किए गए. आज भी प्रेमंचद और उनके साहित्य को तरह-तरह की दृष्टि से देखा जा रहा है. उनकी आलोचना की जा रही है मगर जो उन्होंने जिया और रचा है, वह आज के समय में भी एक व्यक्ति को ठीक एक समूह के बस की भी बात नहीं है. इसीलिए प्रेमचंद का लिखा हमें पसंद आता है.
(न्यूज 18 में प्रकाशित ब्लॉग)
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