Friday, August 18, 2023

गुलजार: उघड़ने, सीने ही में उम्र कट गई सारी

जन्‍मदिन मुबारक हो गुलजार साहब…

जन्‍मदिन तो एक बहाना है वरना गुलजार साहब को याद करने के लिए एक फिल्‍म, एक गाना, एक किस्‍सा, एक त्रिवेणी, एक कविता, एक शेर या यूं कहिए एक पंक्ति ही काफी है. जाने कितने संवाद हैं, जाने कितने गाने हैं, जाने कितनी पंक्तियां हैं जो हमें याद रह गई हैं. कितने अफसाने हैं जो हमें अपने लगते हैं, कितना सुरीला लिखा गया है कि शब्‍द किसी राग से बजते हैं. पहले पहल तो अहसास नहीं होता लेकिन जब गुजर जाते हैं, जब सुन चुके होते हैं, जब पढ़ चुके होते हैं तो रेशम के धागे से लगी चोट की तरह शब्‍द, भाव ठहरे रह जाते हैं, एक कसक के साथ. ऐसा लिखा, ऐसा बनाया, ऐसा कहा कहीं भी देखें, पढ़ें, सुनें तो समझ लीजिए उसे गुलजार का स्‍पर्श हुआ है. छू कर जैसे सोना बना देने का हुनर होता है वैसे ही.

18 अगस्‍त गुलजार का जन्‍मदिन है. 90 बरस की ओर कदम बढ़ा चुके गुलजार का लेखन बच्‍चों से लेकर बुजुर्गों तक के मन को छूता है. उनके लेखन के प्रभाव का विस्‍तार आसमान जैसा है, हर जगह कहीं न कहीं ठहरा, बसा और खिला हुआ आसमान. उनके चाहने वालों को मालूम है कि विभाजन की त्रासदी झेलने वाला यह लेखक गुलजार कहलाने के पहले संपूर्ण सिंह कालरा थे. बाद में जब गुलजार नाम अपनाया तो उनके रचे से हम गुलजार होते गए और वे संपूर्ण. उनका जन्‍म 18 अगस्त 1936 को झेलम जिले के दीना में हुआ था जो आज पाकिस्तान में है. गुलजार अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान हैं. बचपन में ही मां का देहांत हो गया था. विभाजन हुआ तो उनका परिवार पंजाब के अमृतसर में आ गया और गुलजार मुंबई. गैरेज में बतौर मैकेनिक काम करना और शौकिया लिखना उनका काम था. फिर मशहूर निर्देशक बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार के सहायक के रूप में काम करने ने जीवन की दिशा बदल दी. बिमल राय को वह पिता की तरह मानते थे और उनके अंतिम समय में वैसी ही सेवा भी की. 

1963 में आई फिल्म ‘बंदिनी’ का ख्‍यात गीत ‘मोरा गोरा रंग लइले’ गुलजार का फिल्‍मों के लिए लिखा गया पहला गीत था. 1968 में उन्होंने फिल्म ‘आशीर्वाद’ के संवाद लिखने के साथ ही संवाद लेखन आरंभ किया। निर्देशक के रूप में उनकी पहली फिल्म 1971 में आई ‘मेरे अपने’ थी। ‘अंगूर’, ‘आंधी’, ‘मौसम’, ‘खुशबू’, ‘लिबास’, ‘इजाजत’, ‘माचिस’ जैसी फिल्में उनके निर्देशन में बनी हैं। ‘चौरस रात’, ‘जानम’, ‘एक बूंद चांद’, ‘रावी पार’, ‘यार जुलाहे’, ‘पुखराज’, ‘रात पश्मीने की’, ‘रात, चांद और मैं’, ‘खराशें’ आदि किताबों में गुलजार को पढ़ा जा सकता है. इस सृजन यात्रा पर पद्मभूषण,साहित्य अकादमी, दादा साहेब फाल्के अवार्ड, नेशनल फिल्म अवार्ड, ग्रैमी अवॉर्ड तथा ‘जय हो’ गीत के लिए ऑस्‍कर जैसे अवार्ड गुलजार के हिस्‍से में आए हैं.

ये सारी बातें तो वे हैं जो कहीं भी लिखी, पढ़ी जा सकती है. असल में गुलजार तो अपने हर पाठक, हर श्रोता, हर दर्शक के लिए ‘पुखराज’ हैं. पश्‍मीना रात का पुखराज चांद. बिमल राय से लेकर विशाल भारद्वाज तक गुलजार की अपनी यात्रा है और हम सब इसके सहयात्री लेकिन हर दौर में गुलजार अपने समकालीनों से कुछ अलग रहे, इतने खास जैसे आसमान में इंद्रधनुष. इस बात को ख्‍यात अभिनेत्री शबाना आजमी के एक अनुभव से समझा सकता है. गीतकार जावेद अख्‍तर पर किताब ‘जादूनामा’ के विमोचन तथा अन्‍य मौकों पर वे यह अनुभव बता चुकी हैं. शबाना ने बताया था कि वे एक धुन पर अटक गई थीं. उन्‍होंने अलग-अजग गुलजार और जावेद अख्तर से कहा कि वे इस धुन पर कुछ रोमांटिक लिख दें. दोनों ने ही लगभग एक मिनट में उस धुन पर रचना लिखी. दोनों का अंदाज एक दम जुदा था. गुलजार ने लिखा:

‘आजा रे पिया मोरे, पिया मोरे आ, कासे कहूं पिया रे, मोरा लागे ना जिया’. 

जबकि जावेद अख्‍तर ने लिखा,

‘जा तोसे नहीं बोलूं, ओ जा रे, जा रे, तू न मेरा सनम, तू न मेरा पिया.’

यह अंदाज ही गुलजार को सबसे जुदां करता है. गुलजार के लिखे में चांद, प्रकृति, रात सबकुछ ऐसे हैं जैसे किसी ने कभी सोचा नहीं. ऐसे ही मैंने सोचा कि शायर गुलजार जब खुदा से बात करता है तो क्‍या बात करता होगा? तब मुझे ‘रात पश्‍मीने की’ में खुदा को संबोधित कुछ नज्‍म मिलीं, कुछ त्रिवेणी भी. हमारा अध्‍यात्‍म उस परम सत्‍ता से एकाकार होने का ही लक्ष्‍य देता है, हमारी सूफी परंपरा उसकी इबादत का अनूठा अंदाज है और ऐसे ही गुलजार खुदा के बारे में जब लिखते हैं तो कभी उसकी इबादत सा लगता है कभी खुदा से ऐसा नाता लगता है जिसे उलाहना, तंज, चुनौती दी जा सकती है. जैसे गुलजार लिखते हैं:

पढ़ा लिखा अगर होता खुदा अपना

मै जितनी भी जबाने जानता हूं

वो सारी आजमाई है

खुदा ने एक भी समझी नहीं अब तक

ना वो गर्दन हिलाता है, न हुंकार ही भरता है

कुछ ऐसा सोचकर शायद फरिश्तों ही से पढवा दे

कभी चांद की तख्ती पे लिख देता शेर गालिब का

धो देता है या कुतर के फांक जाता है

पढ़ा लिखा अगर होता खुदा अपना

न होती गुफ्तगू तो कम से कम

चिठ्ठी का आना जाना तो लगा रहता.

वह सर्वोच्‍च सत्‍ता कौन है, कौन है जिसके इशारे पर कायनात चलती है, वह है भी या केवल एक ख्‍याल है, इस सवाल पर गुलजार कुछ यूं कहते हैं:

बुरा लगा तो होगा ऐ खुदा तुझे,

दुआ में जब,

जम्हाई ले रहा था मैं-

दुआ के इस अमल से थक गया हूं मैं!

मैं जब से देख सुन रहा हूं,

तब से याद है मुझे,

खुदा जला बुझा रहा है रात दिन,

खुदा के हाथ मैं है सब बुरा भला-

दुआ करो!

अजीब सा अमल है ये

ये एक फर्ज़ी गुफ़्तगू

और एकतर्फा – एक ऐसे शख्‍स से,

ख्‍याल जिसकी शक्ल है

ख्‍याल ही सबूत है.

जो ख्‍याल है वह सच में है. यही है और बिना आवाज किए दीवार से पीठ लगाए बैठा है:

मैं दीवार की इस जानिब हूं

इस जानिब तो धूप भी है, हरियाली भी

ओस भी गिरती है पत्तों पर,

आ जाए तो आलसी कोहरा,

शाख पे बैठा घंटों ऊंघता रहता है

बारिश लंबी तारों पर नटनी की तरह थिरकती,

आंख से गुम हो जाती है,

जो मौसम आता है, सारे रस देता है!

लेकिन इस कच्ची दीवार की दूसरी जानिब,

क्यों ऐसा सन्नाटा है

कौन है जो आवाज नहीं करता लेकिन-

दीवार से टेक लगाए बैठा रहता है.

अक्‍सर यह सवाल उठता है कि जब सबका खैरख्‍वाह वह ऊपर वाला है तो क्‍यों आसमान फटता है, क्‍यों आता है जलजला? क्‍यों जो अच्‍छा माना जाता है वह उठाता है तकलीफें, क्यों दानव लूटते है हर तरह के मजे? क्‍यों बुलाई सिर उठा कर चलती है हर दफे और क्‍यों अच्‍छाई को होना पड़ता है परेशान हर बार? सवाल कई हैं. जैसे यह सवाल:

पिछली बार मिला था जब मैं

एक भयानक जंग में कुछ मसरूफ थे तुम

नए नए हथियारों की रौनक से काफ़ी खुश लगते थे

इससे पहले अन्तुला में

भूख से मरते बच्चों की लाशें दफ़्नाते देखा था

और इक बार.. एक और मुल्क में जलजला देखा

कुछ शहरों के शहर गिरा के दूसरी जानिब लौट रहे थे

तुम को फलक से आते भी देखा था मैंने

आस पास के सय्यारों पर धूल उड़ाते

कूद फलांग के दूसरी दुनियाओं की गर्दिश

तोड़ ताड़ के गैलेक्सीज के महवर तुम

जब भी जमीं पर आते हो

भोंचाल चलाते और समंदर खौलाते हो

बड़े ‘इरैटिक’ से लगते हो

काएनात में कैसे लोगों की सोहबत में रहते हो तुम?

शायर खुदा को चुनौती भी देता है और सलाह भी. सलाह की बाजी पलट कर देखो शायद खुदा को बंदे की खुदी को तोड़ने का हुनर आ जाए:

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाजी देखी मैंने –

काले घर में सूरज रख के,

तुमने शायद सोचा था,

मेरे सब मोहरे पिट जाएंगे,

मैंने एक चिराग जला कर,

अपना रस्ता खोल लिया

तुमने एक समंदर हाथ में लेकर, मुझ पर ढेल दिया

मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी

काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा

मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया

मेरी खुदी को तुम ने चंद चमत्कारों से मारना चाहा

मेरे इक प्यादे ने तेरा चांद का मोहरा मार लिया-

मौत की शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई

मैंने जिस्म का खोल उतार के सौंप दिया और रूह बचा ली

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाजी.

और गुलजार की त्रिवेणी में भी खुदा एक खास रूप में मिलता है.

उम्र के खेल में इक तरफ़ा है ये रस्सा कशी

इक सिर मुझ को दिया होता तो इक बात भी थी.

मुझ से तगड़ा भी है और सामने आता भी नहीं.


जमीं भी उसकी, जमीं की ये नेमतें उसकी

ये सब उसी का है, घर भी, ये घर के बंदे भी.

खुदा से कहिए, कभी वो भी अपने घर आए!

और यह त्रिवेणी जिसमें गुलजार ने जिंदगी की कश्‍मकश को लिख दिया है. यह हर उस शख्‍स का बयान है जैसे जिसकी पूरी उम्र उघड़ने और उघड़े को ढंकने में गुजरी है, गुजर रही है:

अजीब कपड़ा दिया है मुझे सिलाने को

कि तूल खींचूं अगर, अरज छूट जाता है

उघड़ने, सीने ही में उम्र कट गई सारी.

(न्‍यूज 18 पर 18 अगस्‍त 2023 को प्रकाशित) 

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