लेकिन उस युवा के इसी अंदाज ने राजकपूर को कायल बना दिया और जब इस युवा ने फिल्म जगत में आना स्वीकार किया तो जैसे लोकप्रियता उनकी बांट जोह रहा थी. मैं पैसे के लिए नहीं लिखता कहने के पीछे की ताकत सिद्धांत की ताकत थी. एक प्रतिबद्धता थी. ऐसी प्रतिबद्धता जो जीवन की सबसे बड़ी बाजी तक कायम रही. अभिन्न मित्रों तथा वितरकों की सलाह, दबाव और असहयोग को नजर अंदाज करके साहित्यिक कृति ‘मारे गए गुलफाम’ के प्रति संवेदनशील बने रहना इसी प्रतिबद्धता के कारण संभव हो पाया था. खुद खत्म हो गए मगर साहित्य की आत्मा को ठेस पहुंचाना गवारा नहीं हुआ.
यह अद्भुत शख्स थे कवि-गीतकार शैलेंद्र. ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘बूट पॉलिश’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘सीमा’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘गाइड’, ‘जंगली’, ‘बंदिनी’, ‘चोरी चोरी’, ‘दूर गगन की छांव में’, ‘जागते रहो’, ‘मधुमती’, ‘संगम’ तथा ‘मेरा नाम जोकर’ आदि जैसी फिल्मों के गीतकार शैलेंद्र. ‘तीसरी कसम’ के निर्माता शैलेंद्र. राजकपूर के ‘पुश्किन’ और फणीश्वरनाथ रेणु के ‘कविराज’ शंकर शैलेंद्र. जिन्होंने लिखा था, ‘सबकुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’. जिन्हें होशियार बनाने के लिए, मुनाफे कमाने के लिए सलाहें दी गई, मिन्नतें की गईं, दबाव बनाया गया, साथ छोड़ दिया गया मगर वे सबकुछ सह गए. गौर से देखा जाए तो शैलेंद्र के जीवन के तमाम रंगों में संवेदशीलता का रंग सबसे ज्यादा चमकीला, चटकदार और प्रभावी है. ‘मारे गए गुलफाम’ या कि ‘तीसरी कसम’ में हीरामन तो राजकपूर बने थे लेकिन इस कथा के दो हीरामन और हैं, कथा लिखने वाले फणीश्वरनाथ रेणु और इसे पर्दे पर उतारने वाले शैलेंद्र. हीरे से मन वाले रेणु, शैलेंद्र और राजकपूर.
मूलरूप से बिहार के निवासी केसरीलाल दास फौज में थे. जब वे रावलपिंडी में पदस्थ थे तब 30 अगस्त 1923 को बेटे का जन्म हुआ. नाम रखा गया शंकरलाल दास. शंकरलाल केसरीलाल दास. शंकरलाल की शिक्षा-दीक्षा मथुरा में हुई थी. स्कूली जीवन से ही कविताएं लिखने लगे तो उपनाम रखा शैलेंद्र. बाद में कवि का नाम हो गया शंकर शैलेंद्र. 1940 में रेलवे में नौकरी के सिलसिले में मुंबई आए. 1942 के अगस्त क्रांति में शामिल हुए और जेल भी गए. वे इंडियन नेशनल थिएटर शरीक हो गए और जेल गए. जेल से बाहर आने के बाद वे रेलवे में नौकरी करने लगे और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़ गए. इप्टा के ही एक काव्य-पाठ कार्यक्रम में 1947 में राज कपूर ने शैलेंद्र को काव्य-पाठ करते सुना तो उनके मुरीद हो गए. राजकपूर ने फिल्म ‘आग’ के लिए गीत लिखने को आमंत्रित किया तो शैलेंद्र ने स्वाभिमान से कहा, मैं पैसों के लिए नहीं लिखता हूं.
यह पूरी कथा इसलिए बताई गई है कि बचपन से ही कविताएं लिखने वाले शैलेंद्र के मुंबई आगमन, भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने और इप्टा से जुड़ने और लिखने-पढ़ने ने एक ऐसे रचानाकार को गढ़ा जो जितना संवेदनशील था, उसका स्वर उतना ही प्रगतिशील था. शैलेंद्र हिंदी फिल्म जगत के सर्वाधिक प्रगतिशील गीतकारों में शुमार होते हैं. सहज काव्य उनके लेखन को लोकप्रिय बनाता है और वंचितों की फिक्र उन्हें लोकवादी. फिल्म ‘बरसात’ से शुरू हुआ गीतों का कारवां 1951 में जब ‘आवारा’ तक पहुंचा तो इसके शीर्षक गीत में शैलेंद्र का यही रूप नुमायां हुआ. इसमें शैलेंद्र ने लिखा: ‘आवारा हूं, गर्दिश में हूं, आसमान का तारा हूं’. ऐसे गीतों की सूची लंबी है. जैसे, ‘श्री 420’ का गीत ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’, फिल्म ‘बूट पॉलिश’ का गीत ‘नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?’ आदि, आदि.
वे अन्न-अनाज उगाते
वे ऊंचे महल उठाते
कोयले-लोहे-सोने से
धरती पर स्वर्ग बसाते
वे पेट सभी का भरते
पर खुद भूखों मरते हैं.
यह कविता शैलेंद्र की प्रगतिशीलता का आईना है. जैसे भगत सिंह को संबोधित करती कविता, ‘भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की/ देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फांसी की/ यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहाओगे/ बंब-संब की छोड़ो, भाषण दोगे, पकड़े जाओगे.’
‘तू जिंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यकीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर’ जैसे गीत को कैसे भूला जा सकता है? बुझे मन को हौसला देने में इस गीत का कोई मुकाबला नहीं है. इसे जनगीत की तरह गाया जाता है. ऐसा ही एक गीत है जो नारा बन गया है. रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल को ताकत देने के लिए शैलेंद्र ने लिखा था:
हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है
मत करो बहाने संकट है, मुद्रा प्रसार इन्फ्लेशन है
इन बनियों और लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है?
बंगले मत झांको, दो जवाब, क्या यही स्वराज तुम्हारा है
मत समझो हमको याद नहीं, हैं जून छियालिस की घातें
जब काले गोरे बनियों में चलती थी सौदे की बातें
रह गयी गुलामी बरकरार, हम समझे अब छुटकारा है.
1974 के आंदोलन में रेणु ने ‘हड़ताल’ शब्द की जगह ‘संघर्ष’ शब्द कर दिया और यह नारा वंचितों की लड़ाई का उद्घोष बन गया. संषर्घ की घोषणा करने वाले शैलेंद्र ने ही लिखा है:
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है.
हमारे पसंद के कई गीत है जिनकी सूची लंबी है. इन्हीं गीतों में से तीन को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला. 1958 में ‘यहूदी’ के गीत ‘ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर’, 1959 में ‘अनाड़ी’ के गीत ‘सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी’ तथा 1968 में ‘ब्रह्मचारी’ के गीत ‘तुम गाओ मैं सो जाऊं’ के लिए. आखिरी अवार्ड प्राप्त करने के लिए शैलेंद्र जीवित नहीं थे. यही पुरस्कार क्यों वे तो अपनी प्रतीक कृति ‘तीसरी कसम’ की सफलता को देखने के लिए भी जीवित नहीं रहे.
‘तीसरी कसम’ से जुड़ाव की कथा भी सरल रेखा सी है. बासु भट्टाचार्य से मिली ‘पांच लंबी कहानियां’ नामक पुस्तक में छपी रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पढ़ कर इतने प्रभावित हुए कि उसपर फिल्म बनाने का फैसला कर लिया. राजकपूर भी कथा सुन कर उछल पड़े लेकिन फिर चिंता जताई, कविराज, फिल्म निर्माण आपका क्षेत्र नहीं. आप गीत ही लिखो. शैलेंद्र कहां मानने वाले थे? अड़ गए, दर्द की यह कविता तो रजत पट पर उतारेंगे ही. जब मित्र की जिद थी तो राजकपूर ने भी मात्र एक रुपए में फिल्म करनी स्वीकार की. राजकपूर ही क्यों ‘तीसरी कसम’ फिल्म के निर्माण से जुड़े बासु भट्टाचार्य (निर्देशक), नवेंदु घोष (पटकथा-लेखक), बासु चटर्जी एवं बाबूराम इशारा (सहायक निर्देशक) ने भी अपने स्तर पर सहयोग किया. सबकुछ ठीक चल रहा था. खुद रेणु ने लिखा है कि फिल्म ठीक वैसी बन रही थी जैसी उन्होंने अपनी कहानी में कल्पना की थी. लेकिन बात अंत पर आ कर टिक गई. राजकपूर सहित तमाम वितरकों का मानना था कि अंत सुखद होना चाहिए. दुखांत से फिल्म चलेगी नहीं. शैलेंद्र इतने संवेदनशील कि कहानी की एक-एक पंक्ति को हूबहू रील में उतार देने का हर जतन कर रहे थे, उन्हें लेखक की मूल कृति में बदलाव कैसे स्वीकार होता? उन्होंने इंकार कर दिया. रेणु बुलाए गए. विशेषज्ञों की सभा हुई. शैलेंद्र यह कहते हुए बाहर चले गए कि मुझे बदलाव मंजूर नहीं. लेखक खुद तय करे. सुखांत अंत सुनाया गया. रेणु को वह अंत कैसे पसंद आता? नहीं कह कर वे बाहर चले आए. दोनों मित्र बाहर मिले और अपने एकमत होने पर खुश हुए.
मगर यह दुखांत फिल्म का ही नहीं शैलेंद्र का दुखांत भी साबित हुआ. राजकपूर अपने मित्र को वणिक बुद्धि में नहीं ढाल पाए. एक-एक कर यूनिट के सदस्य दूर होते गए. अंत में रह गए शैलेंद्र और ‘तीसरी कसम’. सोचा था फिल्म ढ़ाई-तीन लाख में बनेगी लेकिन बजट 22 लाख तक पहुंच गया. शैलेंद्र अपनी कृति के साथ अकेले थे. वितरकों ने हाथ खींच लिए तो बड़ी मुश्किल से फिल्म रिलीज हो पाई. बकाया मांगने वालों ने कोर्ट का वारंट ले रखा था सो शैलेंद्र अपनी फिल्म के प्रीमियर पर भी नहीं जा सके. पहली बार फिल्म को दर्शक ही नहीं मिले लेकिन फिल्म के शानदार बनने की तारीफ हुई.
ऐसी तारीफ कि खुद रेणु ने अपने मित्र को पत्र में लिखा था, ‘तस्वीर मुकम्मल हो गई और भगवान की दया से ऐसी बनी है कि वर्षों तक लोग इसे याद रखेंगे. अपने मुंह अपनी तारीफ नहीं- कोई भी व्यक्ति यही कहेगा. ‘सजनवां बैरी हो गए हमार’ तो ऐसा बन गया है कि पुराने ‘देवदास’ के ‘बालम आय बसो मेरे मन में’ की तरह युगों तक गाया जाएगा. मैं ही नहीं- कई लोग ऐसे हैं जो इस गीत को सुनकर आंसू मुश्किल से रोक पाते हैं.’
ऐसी बनी थी ‘तीसरी कसम’ लेकिन इसकी सफलता देखने के लिए शैलेंद्र नहीं रहे. 29 सितंबर को उन्होंने रेणु को फिल्म के रिलीज होने की सूचना दी. 14 दिसंबर 1966 को महज 43 वर्ष के शैलेंद्र नहीं रहे. शैलेंद्र के गुजर जाने के बाद ‘तीसरी कसम’ देश भर में प्रदर्शित हुई और लोकप्रिय भी. फिल्म को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला लेकिन यह सब देखने के लिए शैलेंद्र नहीं थे. वे जिन्होंने सबकुछ सीखा केवल व्यापार नहीं सीखा.
शैलेंद्र के असमय गुजर जाने का आघात रेणु के लिए इतना बड़ा था कि वे तीन साल कुछ लिख नहीं पाए. वे मानते थे कि न वे कहानी लिखते, न शैलेंद्र फिल्म बनाते और न उनकी असमय मौत होती. उन्होंने लिखा है कि शैलेन्द्र को शराब या कर्ज ने नहीं मारा, बल्कि वह एक ‘धर्मयुद्ध’ में लड़ता हुआ शहीद हो गया. उन्हें लगता था ‘तीसरी कसम’ के चक्कर में ही उनकी मृत्यु हुई, इसलिए उसके जिम्मेदार वही हैं. सोचने को बहुत कुछ है. जैसे शैलेंद्र या रेणु फिल्म का अंत बदलने को तैयार हो जाते. या फिल्म ग्रामीण परिवेश के हूबहू फिल्मांकन की शर्त को कुछ कर कम कर बजट घटा दिया जाता. वितरक तैयार हो जाते. ऐसा नहीं है कि राजकपूर से लेकर अन्य मित्रों ने शैलेंद्र की सहायात नहीं कि लेकिन तमाम सहायता के बाद भी कुछ कम पड़ गया. यह जो कम पड़ा यह तो फिल्म इंडस्ट्री में हमेशा से कम था लेकिन शैलेंद्र में कूट-कूट कर भरा हुआ था. संवेदनशीलता की पराकाष्ठा तक रचनात्मक आग्रह. ‘तीसरी कसम’ के निर्माण में आई तमाम बाधाओं के बाद भी हमारे हीरामन शैलेंद्र ने अपनी संवेदनशीलता, अपनी प्रतिबद्धता और अपनी प्रगतिशीलता के साथ किसी तरह का समझौता करने की कोई कसम नहीं खाई.
यह भी तय है कि फिल्मों में नहीं आते तब भी शैलेंद्र प्रगतिशील रचनाकार होते. लेकिन तब फिल्म जगत को वे गीत नहीं मिलते जो शैलेंद्र ने लिखे हैं और जिनकी वजह से हिंदी सिनेमा प्रगतिशील कहलाने का गर्व कर सकता है. बाद में यह भी हुआ कि शैलेंद्र की जाति उजागर हुई. वे हिंदी सिनेमा के दलित गीतकार कहलाए. रैदास के बाद सबसे प्रमुख दलित चेतना का लेखक. वे न लिखते तो कैसे महसूस होता कि किसी की मुस्कुराहटों पर निसार होना ही जीवन है. कैसे पता चलता कि हम उस देश के वासी हैं जहां हमने गैरों को भी अपनाना सीखा, मतलब के लिए अंधे बनकर रोटी को नहीं पूजा हमने. हम जीने की तमन्ना और मरने के इरादे को कैसे जान पाते? शैलेंद्र के जन्म को 100 बरस पूरे हो चुके हैं. उनके होने ने हमें मायने दिए हैं. हम उनके लिखे में सुख पाते हैं. और ‘तीसरी कसम’ को देख मन बरबस भीग जाता है, हीरामन के कारण भी और अपने हीरे जैसे मन के शैलेंद्र की याद में भी. जैसा कि बाबा नागार्जुन ने शैलेंद्र को श्रंद्धाजलि अर्पित करते हुए लिखा है:
गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूं
सच बतलाऊं तुम प्रतिभा के ज्योतिपुंज थे, छाया क्या थी
भलीभांति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी
जहां कहीं भी अंतर मन से, ऋतुओं की सरगम सुनते थे
ताज़े कोमल शब्दों से तुम रेशम की जाली बुनते थे
जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम
साथी थे, मजदूर पुत्र थे, झंडा लेकर बढ़ते थे तुम
युग की अनुगूँजित पीड़ा ही घोर घन घटा-सी गहराई
प्रिय भाई शैलेंद्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई
तिकड़म अलग रही मुसकाती, ओह, तुम्हारे पास न आई
फिल्म जगत की जटिल विषमता, आखिर तुमको रास न आई
ओ जन जन के सजग चितेरे, जब जब याद तुम्हारी आती
आंखें हो उठती हैं गीली, फटने-सी लगती है छाती.
(न्यूज 18 पर 30 अगस्त 2023 को प्रकाशित)
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