वैभव जब भी शर्ट खरीदने जाता है तो एक शर्ट ही नहीं खरीदता। पसंद आने पर वह कई शर्ट खरीद सकता है। चाहे उनकी संख्या चार हो या छः। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह आठ सौ के बदले पाँच हजार खर्च कर रहा है। वह जब भी अपने गाँव पहुँचता है तो सभी के लिए किसी बड़े आश्चर्य से कम नहीं होता। मामूली कमाई वाले घर का यह होनहार बेटा अब शाही अंदाज में जीता है।
माँ के लिए यह भले ही फख्र की बात हो लेकिन जीवनभर पाई-पाई के लिए खून-पसीना बहाने वाले पिता मौका मिलते ही बेटे को बचत का पाठ पढ़ाना नहीं भूलते। वैभव की इस बेफिक्री पर पिता की फटकार भी असर नहीं डालती है। वह उस पीढ़ी का झंडाबरदार बन गया है जो आजाद है, बिंदास है और बेपरवाह भी है।
यह किसी एक वैभव की कहानी नहीं है। यह आपके, हमारे, हम सभी के वैभव का जिंदगीनामा है। उस युवा पीढ़ी की तस्वीर, जो कमाना भी जानती है और दिल खोलकर खर्च करना भी। यह भारत की उस आर्थिक आजादी की तस्वीर है, जो पिछले डेढ़ दशक में तैयार हुई है। ज्ञान और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत ने विश्व को राह दिखाई है, लेकिन राजनीतिक आजादी के पाँच दशक बाद ऐसा मौका आया जब दुनिया ने यहाँ के युवा की असल ताकत को पहचाना। यह पहचान जैसे-जैसे पुख्ता होती गई, युवा आजाद होते गए। यह बहुत पुराना इतिहास नहीं है, हमारे देखे जमाने की बात है।
जिस घर का मुखिया पूरी उम्र खपकर भी एक लाख रुपए की बचत नहीं कर पाता था, उसी घर का बेटा पहली तनख्वाह 60 हजार पा रहा है। किसी एक की बात होती तो इसे किस्मत का लेखा कह लेते लेकिन आज के युवा ने अपनी तकदीर खुद लिखी है। भूमंडलीकरण ने यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बाजार दिया तो कंपनियों के लिए भारत ने कुशल और ज्ञानवान श्रम प्रदान किया है। मामला केवल आईटी कंपनियों तक सीमित नहीं रहा। बीपीओ, कॉल सेंटर और बीमा कंपनियों में उन वाक्पटु युवाओं के लिए भी जगह बनी जो पढ़ने में उच्च श्रेणी के नहीं थे।
स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के क्षेत्रीय प्रमुख उपभोक्ता बैंकिंग विशु रामचंद्रन के मुताबिक भारत में हर साल 20 से 24 की उम्र के करीब तीस लाख युवा रोजगार पाते हैं। नैसकॉम की मानें तो बीपीओ सेक्टर में वर्ष 2003-2004 में ही 2 लाख 45 हजार लोगों को रोजगार मिला था। साल-दर-साल इस आँकड़े में इजाफा हो रहा है। गाँव-गाँव तक पहुँची बीमा कंपनियों ने मोटे वेतन और कमीशन पर एक्जीक्यूटिव भर्ती किए हैं। इसी का परिणाम है कि जो कस्बाई युवा आईटी की चमत्कृत कर देने वाली नौकरी के लिए बेंगलुरू की ओर भागता था, वह एमबीए की डिग्री के बाद मनचाहा वेतन अपने शहर में पा रहा है।
रोजगार के इन अवसरों ने सारी तस्वीर ही बदल दी है। मोटी तनख्वाह ने युवाओं को बिंदास बनाया है। बिंदास जीवन का हर अंदाज निराला है। वे खुलकर जीते हैं और जी खोलकर खर्च करते हैं। दो जोड़ी कपड़ों में बचपन गुजार देने वाले युवाओं की आज हर चीज ब्रांडेड है। वह अपने 'लुक' को लेकर जितना चिंतित है, उतना ही सतर्क अपनी गाड़ी को लेकर भी है। अमेरिका को दीवाना बना देने वाले आईफोन को चाहने वालों की तादाद भारत में भी कम नहीं है। सुपर ट्रेंडी दिखने की चाह में कपड़े, सन ग्लासेज, सेलफोन, पेन, परफ्यूम, घड़ी, जूते, लेपटॉप से लेकर उसके घर का इंटीरियर तक ब्रांडेड हो चुका है।
इसके लिए मोटी रकम खर्च करने में मेट्रो के ही नहीं, मध्यप्रदेश के छोटे शहरों के युवा भी पीछे नहीं हैं। वे परंपरागत किराने वाले की जगह मॉल से साफ की हुई पैक खाद्य सामग्री लेना पसंद करते हैं। इसके पीछे केवल खुद को अमीर बताने की चाह और पड़ोसी से होड़ नहीं है, बल्कि बेहतर की चाह भी है। एक बीमा कंपनी में प्रमुख पद पर काम कर रहे आशीष गुहे इस बात से सहमत भी हैं। उनका मानना है कि आज के युवा को बाजार का औजार कहना गलत होगा।
असल में उसके पास बाजार को खरीदने की ताकत है और वह दिल खोलकर ऐसा कर रहा है। एक साल में 14 से 18 प्रतिशत की उच्चतम वेतनवृद्धि इस बात को साबित भी करती है। यही कारण है कि जेब में भले ही पैसा न हो, युवा क्रेडिट कार्ड के सहारे सब कुछ हासिल करने का हुनर रखते हैं। तभी तो देश में क्रेडिट कार्ड की वृद्धि दर 25 फीसदी सालाना है।
बहुत पाया, तो कुछ खोया भी है
'आज को जियो, आज की रात खुलकर खर्र्च करो और कल के सपने देखो' के फलसफे ने आज के युवा से कुछ छीना भी है। उसकी मानसिक संतुष्टि का स्तर लगातार कम हो रहा है। छोटी उम्र में वह अपना स्वास्थ्य खोने लगा है। तनाव युवाओं को अवसाद, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह जैसी बीमारियों की ओर धकेल रहा है। तमाम संसाधन जुटाने के बाद भी उसे आंतरिक सुख नहीं मिल पा रहा है। उसे शादी करने या इस रिश्ते को निभाने की फुर्सत नहीं है।
'लिव इन रिलेशनशिप' पसंद करने वालों में तेजी से इजाफा हो रहा है। मॉल की तरह ही वृद्धाश्रमों की संख्या भी बढ़ रही है। आर्थिक विशेषज्ञ चिंता जाहिर करते हैं कि जब बाजार का यह 'बूम' उतार पर होगा, तब क्या युवाओं की यह आजाद और बिंदास जीवनशैली बरकरार रह पाएगी? क्या यह दिखावे की निश्चिंतता नहीं है?
सवालों की इस भीड़ में तीखा सच यह भी है कि मस्ती की पाठशाला में बिंदास जीवन का पाठ पढ़ रहे युवाओं की समाज में सक्रिय भागीदारी खत्म हो रही है। लगता है कि वे हर गलत माहौल के आदी हो गए हैं, तभी तो किसी बड़े मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, फिर चाहे वह भ्रष्टाचार का मामला हो या गिरते हुए नैतिक मूल्यों का। अगर आर्थिक आजादी का यही स्वरूप रहा तो वह युवाओं के लिए नई गुलामी का सबब बन सकता है। और उस गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए राजनीतिक आजादी के संघर्ष से ज्यादा बड़े बलिदान की जरूरत होगी।
Thursday, June 10, 2010
Tuesday, June 8, 2010
Sunday, June 6, 2010
धरती, जल, हवा, वन, कोई नहीं रहा पावन
हम ही बिगाड़ रहे अपना पर्यावरण,
थाम लो वरना खत्म हो जाएगा जीवन
धरती, जल, वायु और वन। जीवन के लिए अनिवार्य इन तत्वों में से कोई शुद्ध नहीं बचा। धरती बंजर हो रही है, पानी जहरीला होता जा रहा है। हवा दूषित है और आकाश में धुआं दौर धूलकण हैं। केन्द्र सरकार की स्टेट ऑफ इंवायरमेंट रिपोर्ट 2009 इसी कड़वी हकीकत को बयान करती है। रिपोर्ट के अनुसार देश की 328.73 मिलियन हेक्टेयर जमीन बंजर हो रही है। इसमें से 93.68 मिलियन हेक्टेयर पानी के क्षरण तथा 16.03 मिलियन हेक्टेयर पानी की अम्लता के कारण जमीन बंजर हुई है। इसी प्रकार खेतों में नरवाई जलाने से श्वसंन तंत्र बिगड़ रहा है तो फ्लोराइडयुक्त पानी हड्डियों को टेढ़ा बना रहा है।
धरती
* आजादी के बाद भारत की कुल आबादी तो तीन गुना बढ़ गई, लेकिन कृषि भूमि क्षेत्र में मामूली वृद्धि हुई। 1951 में खेती का रकबा 118.75 मिलियन हेक्टेयर था जो 2005-06 में 141.89 हुआ।
* ज्यादा उपज की लालच में प्रति हेक्टेयर रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल में इजाफा हुआ है। 1991-92 में 69.8 किलोग्राम उर्वरकों का उपयोग किया जाता था जो 2006-07 में बढ़ कर 113.3 किग्रा हो गया। इस कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो रही है।
* खेतों में नरवाई जलाने के कारण न केवल जमीन का उपजाऊपन खत्म हो रहा है, बल्कि हवा प्रदूषित हो रही है और तापमान में इजाफा हो रहा है। अकेले पंजाब में 23 मिलियन टन चावल और 17 मिलियन टन गेहूँ की नरवाई होती है। चावल की 80 प्रतिशत यानि 18.4 मिलियन टन और गेहूँ की 5.5 मिलियन टन नरवाई जला दी जाती है।
* नरवाई जलाने से खेतों की मिट्टी का कार्बन का कार्बन डाई ऑक्साइह में तथा नाइट्रोजन का नाइट्रेट में परिवर्तन हो जाता है। यह 0.824 मिलियन टन उर्वरक के खत्म होने के बराबर है, यानि पंजाब में कुल उर्वरकों की खपत का आध्ाा।
* नरवाई से बिगड़ा पर्यावरण बड़े क्षेत्र में श्वाँस, चर्म और नेत्र रोग का कारण बनता है।
जल
* पर्यावरण में बदलाव के कारण देश में बारिश का अनुपात गड़बड़ा गया है। अनुमान है कि 2050 तक पश्चिम और मध्य भारत के बारिश के 15 दिन घट जाएँगे। दूसरी तरफ हम अभी औसतन बारिश का 45 प्रतिशत पानी संभाल नहीं पाते। यह व्यर्थ बह जाता है।
* मप्र के प्रथम श्रेणी के 25 शहरों में 1560.91 मिलियन लीटर प्रतिदिन पानी प्रदान किया जाता है। इसमें से 1248.726 एमएलडी पानी सीवेज के रूप में निकल जाता है।
* दूसरी श्रेणी के 23 शहरों में 163.64 एमएलडी पानी प्रदान किया जाता है। इन शहरों में 130 लीटर पानी मैला कर बहा दिया जाता है।
* प्रदेश के 19 जिलों में फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा है। इस कारण बच्चों में दाँत के क्षरण और हड्डियों के टेढ़ा होने की बीमारियाँ तेजी से बढ़ रही है।
हवा
* हमारे वाहनों और कारखानों ने ऑक्सीजन को कार्बन डाई ऑक्साइड में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। केवल दिल्ली का उदाहरण देखें तो यहाँ प्रतिवर्ष हवा में 3 हजार टन प्रदूषण घुल रहा है जिसमें 66 प्रतिशत वाहनों के कारण है।
* 2006-07 में भारत के कोयले का उपयोग कर रहे विद्युत क्षेत्र ने 495.54 मिलियन टन कॉर्बन का उत्सर्जन किया।
* भारत में 60 फीसदी घरों में ईध्ान के रूप में जलाऊ लक ड़ी और कोयला और कंडे का इस्तेमाल होता है।
* द इंटरोगर्वनमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज 2007 की रिपोर्ट कहती है कि 2080 तक तापमान में 2.7 से 4.3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी।
वन
* यूँ तो देश की हरियाली में इजाफे के संकेत हैं लेकिन 2003 से 2005 के बीच कुल वन क्षेत्र में 728 वर्गकिमी की कमी आई थी। वन क्षेत्र घटने वाले प्रमुख राज्यों में मप्र भी शामिल है। यहाँ 132 वर्गकिमी वन घटा। तीन सालों में बड़े पैमाने पर वनक्षेत्र का कम होना, खतरनाक चेतावनी है।
* बदलते पर्यावरण के कारण ही राजस्थान का जलसंकट झेल रहा 92 प्रतिशत क्षेत्र रेगिस्तान में तब्दील हो रहा है। गुजरात में 91 फीसदी क्षेत्र रेगिस्तान बन रहा है।
थाम लो वरना खत्म हो जाएगा जीवन
धरती, जल, वायु और वन। जीवन के लिए अनिवार्य इन तत्वों में से कोई शुद्ध नहीं बचा। धरती बंजर हो रही है, पानी जहरीला होता जा रहा है। हवा दूषित है और आकाश में धुआं दौर धूलकण हैं। केन्द्र सरकार की स्टेट ऑफ इंवायरमेंट रिपोर्ट 2009 इसी कड़वी हकीकत को बयान करती है। रिपोर्ट के अनुसार देश की 328.73 मिलियन हेक्टेयर जमीन बंजर हो रही है। इसमें से 93.68 मिलियन हेक्टेयर पानी के क्षरण तथा 16.03 मिलियन हेक्टेयर पानी की अम्लता के कारण जमीन बंजर हुई है। इसी प्रकार खेतों में नरवाई जलाने से श्वसंन तंत्र बिगड़ रहा है तो फ्लोराइडयुक्त पानी हड्डियों को टेढ़ा बना रहा है।
धरती
* आजादी के बाद भारत की कुल आबादी तो तीन गुना बढ़ गई, लेकिन कृषि भूमि क्षेत्र में मामूली वृद्धि हुई। 1951 में खेती का रकबा 118.75 मिलियन हेक्टेयर था जो 2005-06 में 141.89 हुआ।
* ज्यादा उपज की लालच में प्रति हेक्टेयर रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल में इजाफा हुआ है। 1991-92 में 69.8 किलोग्राम उर्वरकों का उपयोग किया जाता था जो 2006-07 में बढ़ कर 113.3 किग्रा हो गया। इस कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो रही है।
* खेतों में नरवाई जलाने के कारण न केवल जमीन का उपजाऊपन खत्म हो रहा है, बल्कि हवा प्रदूषित हो रही है और तापमान में इजाफा हो रहा है। अकेले पंजाब में 23 मिलियन टन चावल और 17 मिलियन टन गेहूँ की नरवाई होती है। चावल की 80 प्रतिशत यानि 18.4 मिलियन टन और गेहूँ की 5.5 मिलियन टन नरवाई जला दी जाती है।
* नरवाई जलाने से खेतों की मिट्टी का कार्बन का कार्बन डाई ऑक्साइह में तथा नाइट्रोजन का नाइट्रेट में परिवर्तन हो जाता है। यह 0.824 मिलियन टन उर्वरक के खत्म होने के बराबर है, यानि पंजाब में कुल उर्वरकों की खपत का आध्ाा।
* नरवाई से बिगड़ा पर्यावरण बड़े क्षेत्र में श्वाँस, चर्म और नेत्र रोग का कारण बनता है।
जल
* पर्यावरण में बदलाव के कारण देश में बारिश का अनुपात गड़बड़ा गया है। अनुमान है कि 2050 तक पश्चिम और मध्य भारत के बारिश के 15 दिन घट जाएँगे। दूसरी तरफ हम अभी औसतन बारिश का 45 प्रतिशत पानी संभाल नहीं पाते। यह व्यर्थ बह जाता है।
* मप्र के प्रथम श्रेणी के 25 शहरों में 1560.91 मिलियन लीटर प्रतिदिन पानी प्रदान किया जाता है। इसमें से 1248.726 एमएलडी पानी सीवेज के रूप में निकल जाता है।
* दूसरी श्रेणी के 23 शहरों में 163.64 एमएलडी पानी प्रदान किया जाता है। इन शहरों में 130 लीटर पानी मैला कर बहा दिया जाता है।
* प्रदेश के 19 जिलों में फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा है। इस कारण बच्चों में दाँत के क्षरण और हड्डियों के टेढ़ा होने की बीमारियाँ तेजी से बढ़ रही है।
हवा
* हमारे वाहनों और कारखानों ने ऑक्सीजन को कार्बन डाई ऑक्साइड में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। केवल दिल्ली का उदाहरण देखें तो यहाँ प्रतिवर्ष हवा में 3 हजार टन प्रदूषण घुल रहा है जिसमें 66 प्रतिशत वाहनों के कारण है।
* 2006-07 में भारत के कोयले का उपयोग कर रहे विद्युत क्षेत्र ने 495.54 मिलियन टन कॉर्बन का उत्सर्जन किया।
* भारत में 60 फीसदी घरों में ईध्ान के रूप में जलाऊ लक ड़ी और कोयला और कंडे का इस्तेमाल होता है।
* द इंटरोगर्वनमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज 2007 की रिपोर्ट कहती है कि 2080 तक तापमान में 2.7 से 4.3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी।
वन
* यूँ तो देश की हरियाली में इजाफे के संकेत हैं लेकिन 2003 से 2005 के बीच कुल वन क्षेत्र में 728 वर्गकिमी की कमी आई थी। वन क्षेत्र घटने वाले प्रमुख राज्यों में मप्र भी शामिल है। यहाँ 132 वर्गकिमी वन घटा। तीन सालों में बड़े पैमाने पर वनक्षेत्र का कम होना, खतरनाक चेतावनी है।
* बदलते पर्यावरण के कारण ही राजस्थान का जलसंकट झेल रहा 92 प्रतिशत क्षेत्र रेगिस्तान में तब्दील हो रहा है। गुजरात में 91 फीसदी क्षेत्र रेगिस्तान बन रहा है।
Monday, May 31, 2010
आपका पानी कौन सा है?
आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता - आदमी बुलबुला है पानी का।
गुलजार साहब का यह गीत जिंदगी के साज पर इंसान के हौंसलों का राग है। पृथ्वी और हमारे शरीर में सबसे ज्यादा मात्रा में मौजूद यह तत्व पानी, कला माध्यमों में भी बहुतायत में मिलता है। बचपन से जब कल्पनाएँ परवान चढ़ने लगती है अभिव्यक्ति के लिए मन बैचेन हो उठता है, तब से पानी हमारी अभिव्यक्ति का केन्द्र बनता है। एक बच्चा जब कूची थामता है तो कुछ अभ्यास के बाद नदी, पहाड़, फूल और पेड़ की आकृति की उकेरता है। छुटपन के गिनेचुने खेलों में से एक है-'मछली-मछली कितना पानी।"
स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही रूपों में पानी सृजनधर्मियों का सहायक रहा है। चाहे वह शिल्प हो, संगीत हो, वास्तु या चित्रकला, नाट्य या वक्तृत्व कला। औजारों को धार देने का मामला हो या रोशनाई को घोलने का उपक्रम। बिना पानी सब सूना है, अधूरा है।
पानी के जितने स्वाद और प्रकार है, जीवन के भी उतने ही रूप है और उतनी कला में अभिव्यक्ति भी। ठहरा हुआ पानी, गहरा पानी, उथला पानी, गंदला पानी, साफ पानी, बदली में काला पानी, समंदर में नीला पानी, बाढ़ का उपद्रवी पानी, झीर का सूखता पानी...।
नैनों से झलकता पानी, मेहनतकश के शरीर का खारा पानी, शर्म का पानी, चेहरे का पानी...।
रंगों में घुलता पानी, दूध में मिलता पानी, कड़ाही पर पकता पानी, रोटी में फूलता पानी...।
चातक की प्यास बुझाता पानी, सीप में मोती बनता पानी...।
इन सभी में से एक पानी हमारा भी है। हमारा पानी एक समय में कई रंग दिखालाता है। अपनों के लिए मीठा होता है तो दूसरों के लिए खारा। प्यासे के लिए गंदला पानी भी मीठा हो जाता है और तृप्त कंठ के लिए मीठा पानी भी अर्थहीन। भेद भरे सृजन का पानी लोगों को बाँटता है, विभाजित करता है। वैमनस्यपूर्ण कला मनभेद रचती है और पानीदार कला मेल कराती है। ऐसी कला पानी की उन दो-चार बूँदों की मानिंद होती है जो उफनते दूध को शांत कर देती है।
सवाल यह है कि आपका पानी कौन-सा है?
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता - आदमी बुलबुला है पानी का।
गुलजार साहब का यह गीत जिंदगी के साज पर इंसान के हौंसलों का राग है। पृथ्वी और हमारे शरीर में सबसे ज्यादा मात्रा में मौजूद यह तत्व पानी, कला माध्यमों में भी बहुतायत में मिलता है। बचपन से जब कल्पनाएँ परवान चढ़ने लगती है अभिव्यक्ति के लिए मन बैचेन हो उठता है, तब से पानी हमारी अभिव्यक्ति का केन्द्र बनता है। एक बच्चा जब कूची थामता है तो कुछ अभ्यास के बाद नदी, पहाड़, फूल और पेड़ की आकृति की उकेरता है। छुटपन के गिनेचुने खेलों में से एक है-'मछली-मछली कितना पानी।"
स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही रूपों में पानी सृजनधर्मियों का सहायक रहा है। चाहे वह शिल्प हो, संगीत हो, वास्तु या चित्रकला, नाट्य या वक्तृत्व कला। औजारों को धार देने का मामला हो या रोशनाई को घोलने का उपक्रम। बिना पानी सब सूना है, अधूरा है।
पानी के जितने स्वाद और प्रकार है, जीवन के भी उतने ही रूप है और उतनी कला में अभिव्यक्ति भी। ठहरा हुआ पानी, गहरा पानी, उथला पानी, गंदला पानी, साफ पानी, बदली में काला पानी, समंदर में नीला पानी, बाढ़ का उपद्रवी पानी, झीर का सूखता पानी...।
नैनों से झलकता पानी, मेहनतकश के शरीर का खारा पानी, शर्म का पानी, चेहरे का पानी...।
रंगों में घुलता पानी, दूध में मिलता पानी, कड़ाही पर पकता पानी, रोटी में फूलता पानी...।
चातक की प्यास बुझाता पानी, सीप में मोती बनता पानी...।
इन सभी में से एक पानी हमारा भी है। हमारा पानी एक समय में कई रंग दिखालाता है। अपनों के लिए मीठा होता है तो दूसरों के लिए खारा। प्यासे के लिए गंदला पानी भी मीठा हो जाता है और तृप्त कंठ के लिए मीठा पानी भी अर्थहीन। भेद भरे सृजन का पानी लोगों को बाँटता है, विभाजित करता है। वैमनस्यपूर्ण कला मनभेद रचती है और पानीदार कला मेल कराती है। ऐसी कला पानी की उन दो-चार बूँदों की मानिंद होती है जो उफनते दूध को शांत कर देती है।
सवाल यह है कि आपका पानी कौन-सा है?
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