Tuesday, September 15, 2009

बुंदेलखंड में ग्रामीणों का पलायन

भोपाल। आजाद हिन्द फौज का गठन कर सुभाष चन्द्र बोस ने नारा दिया था-`दिल्ली चलो।´ आज सूखे और बेरोजगारी से परेशान बुंदेलखंड के बाशिंदें कह रहे हैं-`दिल्ली चलो।´ वह आजादी को पाने का कूच था तो यह अपनी रोजी खत्म हो जाने के बाद मजबूरी का पलायन है। बुंदेलखंड के हर बड़ा कस्बे के बस स्टैण्ड पर इन दिनों कई परिवार नजर आ जाएँगे जो अपनी धरती -अपना गाँव छोड़ काम की तलाश में दिल्ली, गुड़गाँव और चंडीगढ़ जा रहे है। -------------------

यह केवल दो गाँवों की कहानी नहीं है। बुंदेलखंड के किसी भी बस स्टैण्ड पर इन दिनों 5 से 25 लोगों का समूह नजर आ जाएगा। इन लोगों के पास बोरी, बिस्तरों का बंडल और कुछ गृहस्थी का सामान देख कर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये लोग गाँव छोड़ कर जा रहे हैं। नए शहर में जल्दी काम न मिलने की आशंका के चलते गाँव से जाने वाला हर परिवार अपने साथ 10 से 15 दिन के भोजन का इंतजाम कर के निकलता है। शहर में 80 से 150 रूपए की मजदूरी मिलती है। इसलिए वे बहुत सा सामान जैसे गेहूँ-आटा, लकड़ी, बर्तन, कपड़े आदि अपने साथ लेकर जाते हैं। छतरपुर बस स्टैण्ड पर बस संचालन की व्यवस्था करने वाला अजय नायक के मुताबिक 20 अगस्त से हर रोज 8 से 10 हजार लोग दिल्ली- गुड़गाँव की ओर जा रहे हैं।

कर्ज़ लेकर किराए की जुगाड़ :-

सूखे के कारण गरीबों के खाने के लाले हैं। उनके पास इतना पैसा भी कहाँ कि वे दिल्ली तक का किराया और खाने-पीने का इंतजाम कर सके। कमाई की आस में वे कर्ज़ लेकर यात्रा का इंतजाम करते है। अकोना गाँव इस बात का उदाहरण है। यहाँ के 110 किसानों ने इस बार अपने खेत में तिल, उड़द और सोयाबीन बोया था। वह अब घास-खरपतवार से पट गई है। इस गाँव के 70 परिवार काम की तलाश में दिल्ली-गुड़गाँव गए हैं। इस यात्रा का खर्च भी कर्ज़ लेकर जुटाया गया है। हर व्यक्ति ने 2 से 3 हजार रूपए का कर्ज़ लेना पड़ा है।

बस संचालकों का भी शोषण :-

सूखे की मार झेल रहे गरीबों को लूटने में बस कंडक्टर-क्लीनर भी पीछे नहीं है। छतरपुर बस अÈे पर काम करने वाले युसूफ खान के अनुसार छतरपुर से जाने वाली अिध्ाकांश बसों का परमिट ग्वालियर तक का ही है। लेकिन यह बात वे ग्रामीणों को नहीं बताते और उन्हें दिल्ली जाने के लिए बैठा लेते हैं। दिल्ली तक का किराया लेने के बावजूद में वे सवारियों को ग्वालियर में ही उतार देते हैं। बीच राह में उतरने के बाद दूसरी बस में किराया चुकाना पड़ता है।

अकेले छूट गए बुजुर्ग :-

बुंदेलखंड के गाँवों में इन दिनों ज्यादातर बुजुर्ग और बच्चे ही नजर आते हैं। सबके बेटे-बहू का की तलाश में बाहर गए हैं। हरदीना अहिरवार की उम्र 67 वर्ष है। वह मजदूरी करने में सक्षम नहीं है तो बुढ़ापे में बेटे और पत्नी गाँव में अकेला छोड़ कर काम करने चले गए। हरदीना गाँव में ही जूते-चप्पल सुधार कर अपना जीवन बसर कर रहे है। छतरपुर के अकोना गाँव के गुरवा अहिरवार आज अपनी बुजुर्ग पत्नी और तीन पोतियों के साथ अकेले रह गए है। उनके दो बेटे और बहू काम की तलाश में जुलाई में दिल्ली जा चुके हैं। गुरवा ने बताया कि उनका बेटा लखन, पप्पू और बहू सील्ता अपने साथ 15 दिन का खाना साथ ले कर गए हैं। रतिया चिंता में है कि उनके बच्चों की कोई खबर नहीं है। वे दिल्ली में कहाँ हैं, कब काम मिला, कितने दिन भटके कोई खबर नहीं मिली।

पहले जाते थे कुछ दिन, अब रहेंगे साल भर :-

इस बार पलायन की तस्वीर बदली हुई है। गुरवा के परिजन 7-8 साल से काम के लिए बाहर जा रहे हैं। पहले साल ये केवल सवा महिने के लिए गए थे। 2005 में 3 माह के लिए गए। अब वे जुलाई में चले गए हैं। अब उनकी वापसी अगले साल अप्रैल-मई में होगी।

श्रमिक मिलेंगे कृषक नहीं :-

कुछ बरस तक पलायन जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब आज का किसान कल का श्रमिक बन जाएगा। बुंदेलखंड में जीवन का यह बदलाव नजर आने लगा है। जो कल तक अपने खेत में चार मजदूर रखा करते थे, वे आज बड़े शहरों में ईंट-तगारी उठा रहे हैं।

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