ज्योतिषी ने बाँच कर कुण्डली
बताया है, वक्त बुरा है।
ठीक नहीं है ग्रहों की चाल
अभी और गहराएगा संकट।
फले-फूलेगा भ्रष्टाचार
अपराध बढ़ेंगे
पाखण्ड का बोलबाला होगा
चालाकी होगी सफल
झूठ आगे रहेगा सच के
अच्छाई की राह में
अभी और काँटे हैं।
पंछी से आकाश और होगा दूर
खिलने से ज्यादा मुश्किल होगा
फूल का शाख पर टिके रहना।
नदियों में नहीं होगा पानी
हवा में घुलेगा जहर।
बच्चों को नहीं मिलेगा समय
कि तैरा पाएँ कागज की कश्ती
वे कहानियों की जगह
गुनेंगे सामान्य ज्ञान।
बाहर तो बाहर
घर में भी महफूज
नहीं रहेंगी बच्चियाँ।
बुजुर्गों का इम्तिहान
और कड़ा होगा।
बुरे वक्त में चाहें अनुष्ठान न करवाना
दान-धर्म न हो तो
कोई बात नहीं
हो सके तो बचाना
अपने भीतर सपने
भले ही हों वे
आटे में नमक जितने।
मुश्किल घड़ी में जीना
सपनों के आसपास।
देखना फिर नक्षत्र बदलेंगे
बदलेगी ग्रहों की चाल।
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नव वर्ष पर शुभकामनाएँ
Thursday, December 24, 2009
Friday, December 18, 2009
धवल अनुराग
साहित्यप्रेमियों के लिए राजेन्द्र अनुरागी का नाम अपरिचित नहीं है। जो नहीं जानते उनके लिए दो विशिष्ट व्यक्तियों के कथन काफी हैं।
अपनी पुस्तक `अनंत नाम जिज्ञासा´ में अमृता प्रीतम ने लिखा है कि अनुरागी जी को देखकर लगता है, जैसे प्राचीन सूफी दरवेशों या जैन फकीरों की कहानियों का कोई पन्ना किताबों से निकलकर इंसानी सूरत में आ गया हो।`
चीन यु° के बाद सन 1963 में आयोजित कवि सम्मेलन में शिवमंगल सिंह सुमन ने कहा था- `नेहरू जी! आज लाल किले के इस मंच से, मैं आपके सामने अपनी नहीं, अपने मध्यप्रदेश के एक कवि राजेन्द्र अनुरागी की ये पंक्तियां पढ़ना चाहता हूं। देश को आज जरूरत इन्हीं पंक्तियों की है-
आज अपना देश सारा लाम पर है,
जो जहां हैं वतन के काम पर हैं।´
भोपाल में 19 दिसंबर को राजेन्द्र अनुरागी की प्रथम पुण्यतिथि पर `अनुरागी प्रसंग´ का आयोजन हो रहा है। उनके साथ मेरी भी याद जुड़ी है। जो मैं साझा कर रहा हूँ।
धवल दाड़ी में वह शख्स खिलखिलाता था तो किसी फरिश्ते से लगता था। व्यक्तित्व ऐसा कि पहली मुलाकात में किसी को भी आकषिoत कर लें, जिस जगह जाएँ वह महिफल लूट लें। भोपाल के आयोजन में उनका होना आयोजन को सरस बनाता था। जीवटता उनके व्यक्तित्व का उजला हिस्सा थी और यही नूर उनके चेहरे से झलकता था। एक शफ़्फाक खिलखिलाहट सारा तनाव हर लेती थी। उनके गीत ही रगों में जोश नहीं फूँकते थे बल्कि उनका होना ही जीवन को ताकत से भर देता था। िफर चाहे वह किसी चाट की दुकान पर ठहाके मारते अनुरागीजी हो या किसी सभा-गोष्ठी में उसी तान पर गीत गाते अनुरागीजी।
उनको गए एक साल हो गया है। इन 365 दिनों में कई लोगों ने उन्हें नहीं भुलाया। अनुरागीजी और ऊर्जा से सराबोर करता उनका खिलखिलाता चेहरा मुसीबतों के क्षणों में अकसर याद हो आता है। ऐसे ही लोगों में जवाहर लाल नेहरू कैंसर अस्पताल के वे मरीज भी हैं जो कैंसर के साथ अपनी लड़ाई में अनुरागीजी के गीतों को अपनी प्राण ऊर्जा मानते थे। बात कोई आठ साल पुरानी है। 2002 के जून में जवाहर कैंसर अस्पताल में एक कार्यक्रम आयोजन हुआ था। कार्यक्रम था, मौत को मात दे रहे मरीजों की जिजीविषा बढ़ाने के लिए शहर के रचनाकारों के रचना पाठ का। यहाँ वरिष्ठ कवि राजेश जोशी, आलोचक कमला प्रसाद, राजुरकर राज आदि के साथ राजेन्द्र अनुरागी भी मौजूद थे। काव्य पाठ सभागार में हुआ था। जो मरीज आ सकते थे वे सभागार में आए और जो गंभीर थे उन्होंने स्पीकर के जरिए गीतों और रचनाओं को अपने वार्ड में सुना। अनुरागीजी ने गीत `उम्र के देवता दीप धर ही दिया´ पढ़ा तो हाल में मौजूद मरीजों की आँखें चमक उठी। उन्हें इस गीत की पंक्तियों में जीवन का भारतीय आध्यात्मिक सार समझ में आ गया था। बाद में पता चला कि अनुरागी जी नियमित रूप से कैंसर अस्पताल जाते थे और कैंसर को परास्त करने के लिए मरीजों अपनी रचनाओं का `हाई पॉवर डोज´ दे कर आते थे।
राजेन्द्र अनुरागी नामक शख्स के कई परिचयों में से एक पहचान यह भी है।
उम्र के देवता
दीप धर ही दिया
कौन जाने सुबह तक जले-ना जले,
तेल कितना बचा है, हमें क्या पता
हम जहां तक जले, जगमगाते जले
लौ लुटाते जले।
जल लिये जिन क्षणों
बस, वही जिन्दगी
बुझ गये जिस जगह
बस, वहीं तक सफर
कौन कितना चलेगा, हमें क्या खबर
हम जहां तक चले, गुनगुनाते चले
गीत गाते चले।
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अपनी पुस्तक `अनंत नाम जिज्ञासा´ में अमृता प्रीतम ने लिखा है कि अनुरागी जी को देखकर लगता है, जैसे प्राचीन सूफी दरवेशों या जैन फकीरों की कहानियों का कोई पन्ना किताबों से निकलकर इंसानी सूरत में आ गया हो।`
चीन यु° के बाद सन 1963 में आयोजित कवि सम्मेलन में शिवमंगल सिंह सुमन ने कहा था- `नेहरू जी! आज लाल किले के इस मंच से, मैं आपके सामने अपनी नहीं, अपने मध्यप्रदेश के एक कवि राजेन्द्र अनुरागी की ये पंक्तियां पढ़ना चाहता हूं। देश को आज जरूरत इन्हीं पंक्तियों की है-
आज अपना देश सारा लाम पर है,
जो जहां हैं वतन के काम पर हैं।´
भोपाल में 19 दिसंबर को राजेन्द्र अनुरागी की प्रथम पुण्यतिथि पर `अनुरागी प्रसंग´ का आयोजन हो रहा है। उनके साथ मेरी भी याद जुड़ी है। जो मैं साझा कर रहा हूँ।
धवल दाड़ी में वह शख्स खिलखिलाता था तो किसी फरिश्ते से लगता था। व्यक्तित्व ऐसा कि पहली मुलाकात में किसी को भी आकषिoत कर लें, जिस जगह जाएँ वह महिफल लूट लें। भोपाल के आयोजन में उनका होना आयोजन को सरस बनाता था। जीवटता उनके व्यक्तित्व का उजला हिस्सा थी और यही नूर उनके चेहरे से झलकता था। एक शफ़्फाक खिलखिलाहट सारा तनाव हर लेती थी। उनके गीत ही रगों में जोश नहीं फूँकते थे बल्कि उनका होना ही जीवन को ताकत से भर देता था। िफर चाहे वह किसी चाट की दुकान पर ठहाके मारते अनुरागीजी हो या किसी सभा-गोष्ठी में उसी तान पर गीत गाते अनुरागीजी।
उनको गए एक साल हो गया है। इन 365 दिनों में कई लोगों ने उन्हें नहीं भुलाया। अनुरागीजी और ऊर्जा से सराबोर करता उनका खिलखिलाता चेहरा मुसीबतों के क्षणों में अकसर याद हो आता है। ऐसे ही लोगों में जवाहर लाल नेहरू कैंसर अस्पताल के वे मरीज भी हैं जो कैंसर के साथ अपनी लड़ाई में अनुरागीजी के गीतों को अपनी प्राण ऊर्जा मानते थे। बात कोई आठ साल पुरानी है। 2002 के जून में जवाहर कैंसर अस्पताल में एक कार्यक्रम आयोजन हुआ था। कार्यक्रम था, मौत को मात दे रहे मरीजों की जिजीविषा बढ़ाने के लिए शहर के रचनाकारों के रचना पाठ का। यहाँ वरिष्ठ कवि राजेश जोशी, आलोचक कमला प्रसाद, राजुरकर राज आदि के साथ राजेन्द्र अनुरागी भी मौजूद थे। काव्य पाठ सभागार में हुआ था। जो मरीज आ सकते थे वे सभागार में आए और जो गंभीर थे उन्होंने स्पीकर के जरिए गीतों और रचनाओं को अपने वार्ड में सुना। अनुरागीजी ने गीत `उम्र के देवता दीप धर ही दिया´ पढ़ा तो हाल में मौजूद मरीजों की आँखें चमक उठी। उन्हें इस गीत की पंक्तियों में जीवन का भारतीय आध्यात्मिक सार समझ में आ गया था। बाद में पता चला कि अनुरागी जी नियमित रूप से कैंसर अस्पताल जाते थे और कैंसर को परास्त करने के लिए मरीजों अपनी रचनाओं का `हाई पॉवर डोज´ दे कर आते थे।
राजेन्द्र अनुरागी नामक शख्स के कई परिचयों में से एक पहचान यह भी है।
उम्र के देवता
दीप धर ही दिया
कौन जाने सुबह तक जले-ना जले,
तेल कितना बचा है, हमें क्या पता
हम जहां तक जले, जगमगाते जले
लौ लुटाते जले।
जल लिये जिन क्षणों
बस, वही जिन्दगी
बुझ गये जिस जगह
बस, वहीं तक सफर
कौन कितना चलेगा, हमें क्या खबर
हम जहां तक चले, गुनगुनाते चले
गीत गाते चले।
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Wednesday, December 2, 2009
भोपाल की जुबानी गैस त्रासदी का दर्द
विश्व की सबसे ब़ड़ी औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैसकांड को हुए 25 बरस हो गए हैं। आधी रात हुए इस हादसे में 15 हजार लोगों की मौत हो गई जबकि 5 लाख से ज्यादा लोगों का जीवन दूभर कर दिया है। हालात यह है कि अब तक गैस के दुष्प्रभाव का सटीक आकलन तक नहीं किया जा सका है। 20बस्तियाँ जहरीला पानी पीने को मजबूर है और कई लोग इलाज के लिए भटक रहे हैं।
25 साल। इतने बरस में एक पीढ़ी जवान हो जाती है। लेकिन भोपाल की एक पीढ़ी इतने बरसों तक दमघोंटू तकलीफ में जिंदा रही है। यहाँ पीड़ा केवल अपनों को खोने की नहीं थी...उस रात के बाद से एक ऐसे दर्द से नाता जुड़ गया कि तकलीफ खत्म ही नहीं होती। कभी फेफड़ों ने जवाब दिया तो कभी कैंसर ने आ दबोचा। इलाज के नाम पर वादा मिला और वादे टूटते रहे।
इन 25 सालों में शहर की सूरत बदली है। िफर भी एक कोना है जो नहीं बदला। वहाँ आज भी गैस कांड की कड़वी यादें जिंदा हैं। वहाँ हर रात वही हादसा करवट लेता है और हर करवट के साथ उस रात का मंजर ताजा हो उठता है-
------
25 साल पहले
आज ही की रात
गहरी नींद में था कि
मौत की धुंध् छा गई
25 सालों में िफर नहीं सोया वैसा कभी।
अपने ही दर्द से बेखबर भाइयों की तरह
मेरे दो हिस्से-
नया भोपाल सोता रहा बेपरवाह
और पुराना भागता रहा बदहवास।
पैरों तले कुचलती रही
घुटती, तड़पती रही जिंदगी।
सुबह जब जागा तो कई लोग नहीं जागे
मेरे साथ
जैसे रोज जागा करते थे
और जाया करते थे काम पर
25 सालों में िफर नहीं गया काम पर वैसा कभी।
कहते है वक्त हर दर्द का मरहम होता
मुझे नहीं मिला वह मरहम।
आज तक हरा है मेरा घाव
साँस लेता हूँ तो दम घुटता है
चलता हूँ तो लड़खड़ाता हूँ
देखता हूँ तो बिखर जाता हूँ
इन 25 सालों में
हर रोज दर्द पता पूछता रहा
और मैं बताता रहा
अपने एक-एक अंग का ठिकाना
25 साल। इतने बरस में एक पीढ़ी जवान हो जाती है। लेकिन भोपाल की एक पीढ़ी इतने बरसों तक दमघोंटू तकलीफ में जिंदा रही है। यहाँ पीड़ा केवल अपनों को खोने की नहीं थी...उस रात के बाद से एक ऐसे दर्द से नाता जुड़ गया कि तकलीफ खत्म ही नहीं होती। कभी फेफड़ों ने जवाब दिया तो कभी कैंसर ने आ दबोचा। इलाज के नाम पर वादा मिला और वादे टूटते रहे।
इन 25 सालों में शहर की सूरत बदली है। िफर भी एक कोना है जो नहीं बदला। वहाँ आज भी गैस कांड की कड़वी यादें जिंदा हैं। वहाँ हर रात वही हादसा करवट लेता है और हर करवट के साथ उस रात का मंजर ताजा हो उठता है-
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25 साल पहले
आज ही की रात
गहरी नींद में था कि
मौत की धुंध् छा गई
25 सालों में िफर नहीं सोया वैसा कभी।
अपने ही दर्द से बेखबर भाइयों की तरह
मेरे दो हिस्से-
नया भोपाल सोता रहा बेपरवाह
और पुराना भागता रहा बदहवास।
पैरों तले कुचलती रही
घुटती, तड़पती रही जिंदगी।
सुबह जब जागा तो कई लोग नहीं जागे
मेरे साथ
जैसे रोज जागा करते थे
और जाया करते थे काम पर
25 सालों में िफर नहीं गया काम पर वैसा कभी।
कहते है वक्त हर दर्द का मरहम होता
मुझे नहीं मिला वह मरहम।
आज तक हरा है मेरा घाव
साँस लेता हूँ तो दम घुटता है
चलता हूँ तो लड़खड़ाता हूँ
देखता हूँ तो बिखर जाता हूँ
इन 25 सालों में
हर रोज दर्द पता पूछता रहा
और मैं बताता रहा
अपने एक-एक अंग का ठिकाना
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