Tuesday, January 19, 2010

फूल खिले तो जाना वसन्त आया


वन-वन, उपवन-उपवन, जागी छवि, खुले प्राण


जनवरी का महीना आधा गुजर गया है...दिन में गुनगुनी वासन्ती अनुभूति घुल जाना थी...लेकिन अभी तो कड़ाके की ठण्ड नित नए कीर्तमान गढ़ रही है...। पारे की गिरावट में वसन्त की पदचाप गुम हो रही है, लेकिन रंग बिरंगे फूल वसन्त के आने की खबर दे रहे हैं। हर जगह फूल ही फूल खिले हैं। खेतों में सरसों और सड़कों के किनारे पर पीले, गुलाबी, जामुनी जंगली फूल खिलखिलाने लगे हैं।

वसन्त अकेले नहीं आता। यह स्मृतियों का हरकारा है। वसन्त हमारे भीतर कल्पना का सुमन खिलाने आता है। वसन्त सूखी धरती सी धूसर मनोदशा को भी हर्ष और उत्साह की हरियाली ओढ़ा देता है। वसन्त नया होने का पर्व है। यह प्रकृति के श्रंृगार और सौन्दर्य का त्यौहार ले कर आता है। वसन्त आता है तो पीछे-पीछे फागुन चला आता है। पंचमी के बाद जो-जो पुराना है, वो सब झड़ जाता है। पतझड़ का अन्त हो जाता है। दिलों में टेसू के अंगारे दहकने लगते हैं, सरसों के फूल झूम-झूम कर गीत गाने लगते हैं। शीत में कुम्हलाए से खड़े पेड़ अब ठूंठ नहीं रह जाएंगे... यहां उम्मीद की कोंपले फूटेंगी, जीवन लहलहाएगा।

वसन्त पंचमी वाग्देवी सरस्वती का जन्मदिन भी है। इस दिन आराधक सरस्वती की पूजा करते हैं। प्रेम के पर्व पर ज्ञान की देवी की आराधना केवल संयोग नहीं है। ज्ञान और विवेक के अभाव में उत्साह निरंकुश हो जाता है। यह पर्व जोश में होश का संकेत देता है।

सीमेंट कांक्रीट के जंगलों में तब्दील होते शहरों में वसन्त का आना कोई सूचना नहीं। काम से लदी जिन्दगी दिन-रात टारगेट में उलझी रहती है। उदास चेहरों और बुझे दिलों को न वसन्त के आगमन का भान है और न प्रकृति से बतियाने की फुर्सत। प्रेमियों का वसन्त भी एसएमएस की लघु भाषा का संकेत भर बन गया है। न वैसे गीत रचने वाले रहे न उनका रसपान करने वाले। हम भले ही अपनी प्रकृति भूल जाएं। तरक्की के जूनून में अपना स्वभाव खो दें। मगर प्रकृति ने अपना ढंग नहीं छोड़ा है। आज भी कहीं न कहीं, कोयल वैसे ही कूक रही है और टेसू खिल रहे हैं। हम ही जो इनसे नाता तोड़ बैठे हैं, तनावों को न्योता दे चुके हैं। हमारे आसमान में भी चांद चमक सकता है, खुशियों का गेन्दा खिल सकता है, उल्लास की कोयल कूक सकती है और मिलन के पर्व मन सकते हैं। जरूरत है, वसन्त को अपने भीतर उतार लेने की।

भोपाल में तो यह सम्भव भी है। प्राकृतिक संपदा के धनी इस शहर में ऋतुओं का बदलाव भी साफ-साफ दिखाई देता है। यहां के लहलहाते वृक्ष मन का हरापन सूखने नहीं देते। िफर यह तो वसन्त के आगमन की सूचना है। शहर का पौर-पौर वसन्त के आने का सन्देश दे रहा है। लिंक रोड नंबर एक से गुजरें या वन विहार में तफरीह कर आएं। गुलदावदी हो या बोगनवेलिया। किस्म-किस्म के फूल चहक-चहक कर वसन्त के आने कर सन्देश दे रहे हैं। जरा सुनिए तो...।

3 comments:

  1. वसन्त पंचमी की बहुत शुभकामनाएँ.

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  2. "सरस्वती माता का सबको वरदान मिले,
    वासंती फूलों-सा सबका मन आज खिले!
    खिलकर सब मुस्काएँ, सब सबके मन भाएँ!"

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    क्यों हम सब पूजा करते हैं, सरस्वती माता की?
    लगी झूमने खेतों में, कोहरे में भोर हुई!
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    संपादक : सरस पायस

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  3. jivan ki is aapadhapi main , convent school main padhne ki hoad me , aab to nayi genaration ko shayad hamari rituon ke naam bhi shayad hi yaad ho

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