Sunday, June 13, 2010

कच्ची केरी के साथ बचपन के दिन



कल दफ्तर से घर लौट रहा था कि अचानक सड़क किनारे बैठी महिलाओं पर नजर पड़ी। महिलाओं पर नहीं डलिया में रखी पीली सलोनी पकी केरियों पर नजरें टिक गई। भरपूर ललचाई नजरों से उन आमों को देख मैं आगे बढ़ गया। लेकिन आगे तो गाड़ी बढ़ रही थी मैं तो पीछे लौट रहा था...बचपन में।


क्या दिन थे वो। अल्हड़, बेबाक, निर्मल आनंद से गर्मियों की छुट्टियों के दिन। अगर आप आज के बच्चों की गर्मी की छट्टियों से इनदिनों की तुलना कर रहे हैं तो जनाब गलती कर रहे है। ये छुट्टियाँ शिविरों में अपने व्यक्तित्व में हुनर जोड़ने और स्कूल दिए प्रोजेक्ट व होम वर्क पूरा करने में बीतती है। लेकिन हमारी छुट्टियाँ... उनके क्या कहने साहब। परीक्षा के आखिरी दिन बस्ता और पुरानी किताबों को यों उड़ा कर फेंक देते थे जैसे इनसे कोई नाता ही न रहा हो या कोई बम हो जो पास में रखने पर जान ले लेगा। मार्च लगते ही इस उधेड़बुन में दिन बीतते थे कि गर्मी की छुट्टियों की योजनाओं को कैसे पूरा करना है। छुट्टियाँ खत्म होते ही अगली छुट्टियों की योजना जो बन जाती थी। अंतिम पर्चे के साथ चेहरे पर ऐसे भाव उमड़ते थे मानो गंगा स्नान कर लिया हो और अब स्वर्ग का आनंद उठाने से कोई रोक नहीं सकता। मित्रों के साथ सुबह 5 बजे मैदान पर जाना। सूरज के चमकने साथ लौटना, फिर खाना खा कर दिन में भरपूर नींद और शाम ढलते ही बेट-बॉल के साथ फिर मैदान में। रात में घंटों गप्पे। कस्बे में रहते थे तो मित्रों के घर पास ही थे। जिनके घरों की छत आपस में मिली थी, उनके साथ तो नींद आने तक बातें होती-गुजरे दिन के क्रिया कलापों का विश्लेषण, अगले दिन की कार्य योजना यहीं बनती। सुबह अन्य दोस्तों को निर्णयों से अवगत करवा दिया जाता।

ऐसी ही मौज के बीच आनंद बढ़ जाता, जब बाग में हरी-हरी कच्ची केरियाँ पक कर पीली हो जाती। घर में टोकरियाँ भर कर आम आता तो क्या? असल आनंद तो पेड़ पर पत्थर से निशाना लगा कर केरी तोड़ लेने में आता था। दूना आनंद अपने आम को चौकीदार की नजर से बचा कर बाग से बाहर लाने में मिलता। तेज दौड़ कर लाया गया आम, किसी बड़ी स्पर्धा में जीते गए पदक से ज्यादा सुख देता था। उसके रस का स्वाद बता पाना शब्दों के बस में नहीं।

जनाब, पके आम का रस लेने की भी अपनी प्रक्रिया है। सधी उँगलियाँ आम को चारों तरफ से तैयार करती है। दबाव भी इतना संतुलित की कहीं से रस टपक न पड़े। अनुभव से पता चल जाता है कि बस, आम अब रसास्वाद के लिए एकदम तैयार हंै।

इन्हीं ख्यालों और बचपन के मीठे दिनों की याद में रात गुजरी और सुबह फिर एक घटना घटी। कॉलोनी में कई आम के पेड़ है और केरियों से लकदक आम पर राहगीरों की नजरें टिकी रहती हैं। बस्तियों के बच्चे इस आस में घंटों खड़े रहते हैं कि कब कोई आम टपके और वे लेकर भागें। मौका मिलता है तो वे पत्थर के निशाने से आम टपकाना नहीं चूकते। (पक्के निशानेबाज जो ठहरे)। तो हुआ यह कि अपनी गाड़ी बाहर निकाल रहा था कि एक बच्चे के जेब पर नजर पड़ी। उसकी जेब से कुछ बाहर झाँक रहा था, देखा और चौंका। अरे, यह तो गुलेल है। आम तोड़ लेने का पुराना साधन।

मेरे चेहरे पर मुस्कान तैर गई। बच्चा भी सजग था, मेरी नजरों को ताड़ गया। उसने जेब में रखे अपने साधन को हाथ से छुपाया और दौड़ लगा दी।

मैं उसे भागता देख, खुद को भागता देख रहा था। मैं उसके साथ अपने बचपन में लौट गया था। गुलेल के साथ... अमराई के बीच।

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