पुनर्वास विभाग को नहीं पता कितने हुए विस्थापित
मप्र के पुनर्वास विभाग को नहीं पता है कि प्रदेश में विभिन्न योजनाओं के तहत कितने लोगों को विस्थापित किया गया और कितने लोगों का पुनर्वास किया गया। विभाग से जब 2006 में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी माँगी गई तो जवाब मिला-'हम बांग्लादेशी और पाकिस्तान के विस्थापितों का काम देखते हैं। प्रदेश के विस्थापन की जानकारी नहीं है।" जब राज्य सूचना आयोग ने सूचना जुटा कर देने को कहा तो पुनर्वास विभाग ने 13 विभागों से जानकारी माँगी। तब से जानकारी ही जुटाई जा रही है।
यह एक उदाहरण सूचना के अधिकार की ताकत और जरूरत बताने के लिए काफी है। 12 अक्टूबर 2007 में लगाए गए इस आवेदन के जवाब में विभाग ने जानकारी न होने बात कह दी। प्रथम अपील में भी प्रकरण खारिज कर दिया गया तो राज्य सूचना आयोग में अपील की गई। सुनवाई के बाद आयोग ने कहा कि पुनर्वास विभाग को जानकारी देना चाहिए। आयोग ने कहा कि विभाग के पास जानकारी नहीं है तो वह अन्य विभागों से जुटा कर जानकारी दे। इस आदेश के बाद पुनर्वास विभाग ने विस्थापन करने वाले राजस्व, नगरीय प्रशासन, वन एवं पर्यावरण, जल संसाधन सहित 13 विभागों से विस्थापन और पुनर्वास की जानकारी माँगी। तीन साल बाद अब तक विभागों ने जानकारी नहीं भेजी है।
आकलन है कि प्रदेश में हुए 60 से 80 प्रतिशत विस्थापन के बारे में विभागों को पता नहीं है कि विस्थापित कहाँ और किस हालत में हैं। इस आवेदन ने व्यवस्था की पोल खोलते हुए साबित कर दिया कि दफ्तरों में कामों और जानकारियों को अपडेट नहीं किया जाता। यहाँ केवल तात्कालिक जानकारियाँ ही मौजूद होती हैं। असल में यह इस कानून के अस्तित्व से जुड़ा मुद्दा है। गौरतलब है कि सूचना के अधिकार कानून में अधिकांश आवेदनों को सूचना न होने की वजह से खारिज कर दिया जाता है। सामाजिक कार्यकर्ता सचिन जैन कहते हैं कि सरकारी विभागों में सूचना को एकत्रित करने और संग्रह कर रखने की कोई व्यवस्था नहीं है। योजनाएँ प्रारम्भ कर दी गई लेकिन उसके प्रभावितों, नुकसान और लाभ के आकलन के लिए जानकारियाँ ही नहीं है तो कैसे सफलता-असफलता जाँची जा सकेगी? आँकड़ों के बिना गरीब विस्थापितों के लिए कोई योजना कैसे चलाई जा सकेगी? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि सही तथ्य, जानकारियाँ और आँकड़ों के अभाव में सही योजना का निर्माण कैसे होगा?
एक साल बाद भी नहीं मिली कॉपियाँ
एक तरफ जहाँ विभागों के पास जानकारियाँ नहीं हैं वहीं दूसरी ओर अपील करने के बाद निर्णय और सूचना देने में इतनी देर हो जाती है कि फिर सूचना का मकसद खत्म हो जाता है। पिपरिया की सुगंधा और खुशबू माहेश्वरी का प्रकरण इसका उदाहरण है।
सुगंधा और खुशबू माहेश्वरी ने माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से दिसंबर 2008 में एमएससी कम्प्यूटर साइंस की परीक्षा दी थी। मार्च 2009 में जब परिणाम आया तो सुगंधा को दो विषय में 35-35 और दो में 45-45 नंबर मिले थे। खुशबू को दो में 45-45 और दो में 55-55 नंबर मिले। सुगंधा जहाँ दो विषयों मंे फेल होने से सकते में थीं वहीं समान नंबर मिलने से खुशबू अचरज में। उन्होंने कॉपियों की फोटोकॉपी माँगने के लिए 3 जून 2009 को आवेदन दिया। आवेदन खारिज होने पर अगस्त 2009 में राज्य सूचना आयोग में अपील की गई। आयोग में उनके प्रकरण पर सुनवाई का नंबर साल भर बाद अक्टूबर 2010 में आया। अब साल भर पास या फेल का निर्णय हो भी जाए तो समय गुजरने के बाद मिली सूचना किस काम आएगी?
Wednesday, October 13, 2010
Friday, October 8, 2010
'राहुल वॉव, पोलिक्टिस नाट नाव"
युवतियों को राहुल पसंद लेकिन राजनीति में आने का विचार नहीं
राहुल गाँधी चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा युवा राजनीति में आएँ। पढ़े लिखे युवा राजनीति में आएँगे तो गंदी राजनीति साफ होगी। इसलिए वे देश में घूम-घूम कर युवाओं को राजनीति में आने का न्योता दे रहे हैं। भोपाल में उन्होंने उच्च शिक्षा ले रही युवतियों से पहली बार अलग सत्र में बात की और राजनीति में आने की सलाह दी। राहुल को देख-सुनने के बाद युवतियों प्रसन्ना थीं। उनके चेहरे पर इस खुशी को साफ देखा जा सकता था लेकिन जब उनसे सवाल किया गया कि क्या वे युवा काँग्रेस की सदस्यता लेगी तो जवाब मिला अभी नहीं।
6 अक्टूबर 2010 की सुबह वे निकली तो कॉलेज बस से थी लेकिन पहुँची काँग्रेस महासचिव राहुल गाँधी से मिलने रवीन्द्र भवन। उनसे कहा गया था कि उन्हें राहुल से सवाल पूछने का मौका मिलेगा। गाँधी परिवार के वारिस, भविष्य के प्रधानमंत्री और सबसे सुटेबल बैचलर जैसे तमाम परिचयों के अलावा राहुल को करीब से देखने की जिज्ञासा वे लाख प्रयत्न के बाद भी नहीं छुपा पा रही थी। किसी को छोड़ने पिता आए थे तो कोई भाई के साथ पहुँची थी। सभी की ख्वाहिश थी राहुल को करीब से देखना और मौका मिलने पर सवाल पूछना। करीब आधे घंटे के सत्र के बाद छात्राएँ बाहर निकली तो सवाल न पूछ पाने की निराशा तो थी लेकिन वे राहुल के व्यक्तित्व से चमत्कृत थी। चहकती युवतियों की टोली की पहली प्रतिक्रिया- 'राहुल इज ऑवसम। पर हमें सवाल पूछने का मौका नहीं मिला।" वे बताती हैं कि राहुल ने सभी को राजनीति में आने आग्रह किया है। 'आप युवा काँग्रेस की सदस्यता कब ले रही हैं", पूछे जाने पर अधिकांश ने कहा कि अभी तो नहीं। राजीव गाँधी कॉलेज की मालविका तिवारी और वसुधा ने कहा कि राहुल का भाषण प्रभावी था लेकिन उनके प्रस्ताव के बाद भी वे राजनीति में नहीं आ सकती। वे मानती है कि परिवार युवतियों के राजनीति में आने की सबसे बड़ी बाधा है। अंजली पांडे ने कहा कि वे राहुल से प्रभावित थी और उन्हें सुनने के लिए आई थीं। उन्हें राजनीति में रूचि नहीं है। नारायण होम्योपैथी कॉलेज की छात्रा दिव्या ने कहा कि वे राहुल को बीएचएमएस छात्राओं की समस्या बताने आई थी लेकिन मौका नहीं मिला। वे कहती हैं कि राहुल युवाओं को मौका दे रहे हैं यह अच्छी बात है लेकिन फिलहाल उन्होंने राजनीति में आने के बारे में नहीं सोचा है। पुष्पांजलि से पूछा गया कि क्या वे युवा काँग्रेस की सदस्यता लेंगी तो उन्होंने कहा कि वे अच्छा काम करने वालों का समर्थन करेंगी लेकिन राजनीति में नहीं आएँगी। राधारमन कॉलेज की छात्रा वीना ने कहा कि उनके लिए राहुल की बात मानना संभव नहीं है। युवतियों ने कहा कि राजनीति में बदलाव की शुरुआत होना चाहिए। राहुल अच्छा काम कर रहे हैं। वे उनका समर्थन करती हैं लेकिन सक्रिय राजनीति में नहीं आ सकती।
राहुल गाँधी चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा युवा राजनीति में आएँ। पढ़े लिखे युवा राजनीति में आएँगे तो गंदी राजनीति साफ होगी। इसलिए वे देश में घूम-घूम कर युवाओं को राजनीति में आने का न्योता दे रहे हैं। भोपाल में उन्होंने उच्च शिक्षा ले रही युवतियों से पहली बार अलग सत्र में बात की और राजनीति में आने की सलाह दी। राहुल को देख-सुनने के बाद युवतियों प्रसन्ना थीं। उनके चेहरे पर इस खुशी को साफ देखा जा सकता था लेकिन जब उनसे सवाल किया गया कि क्या वे युवा काँग्रेस की सदस्यता लेगी तो जवाब मिला अभी नहीं।
6 अक्टूबर 2010 की सुबह वे निकली तो कॉलेज बस से थी लेकिन पहुँची काँग्रेस महासचिव राहुल गाँधी से मिलने रवीन्द्र भवन। उनसे कहा गया था कि उन्हें राहुल से सवाल पूछने का मौका मिलेगा। गाँधी परिवार के वारिस, भविष्य के प्रधानमंत्री और सबसे सुटेबल बैचलर जैसे तमाम परिचयों के अलावा राहुल को करीब से देखने की जिज्ञासा वे लाख प्रयत्न के बाद भी नहीं छुपा पा रही थी। किसी को छोड़ने पिता आए थे तो कोई भाई के साथ पहुँची थी। सभी की ख्वाहिश थी राहुल को करीब से देखना और मौका मिलने पर सवाल पूछना। करीब आधे घंटे के सत्र के बाद छात्राएँ बाहर निकली तो सवाल न पूछ पाने की निराशा तो थी लेकिन वे राहुल के व्यक्तित्व से चमत्कृत थी। चहकती युवतियों की टोली की पहली प्रतिक्रिया- 'राहुल इज ऑवसम। पर हमें सवाल पूछने का मौका नहीं मिला।" वे बताती हैं कि राहुल ने सभी को राजनीति में आने आग्रह किया है। 'आप युवा काँग्रेस की सदस्यता कब ले रही हैं", पूछे जाने पर अधिकांश ने कहा कि अभी तो नहीं। राजीव गाँधी कॉलेज की मालविका तिवारी और वसुधा ने कहा कि राहुल का भाषण प्रभावी था लेकिन उनके प्रस्ताव के बाद भी वे राजनीति में नहीं आ सकती। वे मानती है कि परिवार युवतियों के राजनीति में आने की सबसे बड़ी बाधा है। अंजली पांडे ने कहा कि वे राहुल से प्रभावित थी और उन्हें सुनने के लिए आई थीं। उन्हें राजनीति में रूचि नहीं है। नारायण होम्योपैथी कॉलेज की छात्रा दिव्या ने कहा कि वे राहुल को बीएचएमएस छात्राओं की समस्या बताने आई थी लेकिन मौका नहीं मिला। वे कहती हैं कि राहुल युवाओं को मौका दे रहे हैं यह अच्छी बात है लेकिन फिलहाल उन्होंने राजनीति में आने के बारे में नहीं सोचा है। पुष्पांजलि से पूछा गया कि क्या वे युवा काँग्रेस की सदस्यता लेंगी तो उन्होंने कहा कि वे अच्छा काम करने वालों का समर्थन करेंगी लेकिन राजनीति में नहीं आएँगी। राधारमन कॉलेज की छात्रा वीना ने कहा कि उनके लिए राहुल की बात मानना संभव नहीं है। युवतियों ने कहा कि राजनीति में बदलाव की शुरुआत होना चाहिए। राहुल अच्छा काम कर रहे हैं। वे उनका समर्थन करती हैं लेकिन सक्रिय राजनीति में नहीं आ सकती।
Wednesday, October 6, 2010
बापू का प्रबंधन
आज का जमाना प्रबंधन का है और सही प्रबंधन कौशल सफलता का मूलमंत्र भी है। यही कारण है कि जब सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं या असफलता से निराश बैठ जाते हैं तो बापू याद आते हैं। जीत हो या हार, कोई उलझन हो या निर्णय का भटकाव बापू क्यों याद आते हैं? जीवन की हर मुश्किल घड़ी में बापू क्यों याद आते हैं, इस सवाल का जवाब 85 वर्षीय गाँधीवादी चिंतक नारायणभाई देसाई की 'गाँधी कथा" में मिलता है। नारायण भाई उन्हीं महादेव भाई देसाई के पुत्र हैं जो करीब 25 बरस तक गाँधीजी के निज सचिव रहे। नारायणभाई ने कथावाचन शैली में बापू की कथा कहना प्रारम्भ किया है और उम्र के इस दुरूह चरण में भी शहर-शहर जा कर लोगों की बापू के अनजाने चरित्र से रूबरू करवा रहे हैं। यह कथा बताती है कि मोहनदास करमचंद गाँधी कैसे सफल नेतृत्व कर पाए, क्यों डॉ भीमराव अंबेडर के समक्ष खामोश रहने के बाद भी जनता ने उनका समर्थन किया और क्यों वे दुनिया के सामने सत्याग्रह का उदाहरण रख पाए?
गाँधीजी ने दिल जीतने और भरोसा कायम करने का फार्मूला दिया है। आज प्रबंधन विशेषज्ञ भी मानते हैं कि जब भरोसा ज्यादा होता है, तो रफ्तार और उत्पादकता बढ़ जाती है। जब भरोसा कम हो तो रफ्तार व उत्पादकता घट जाती है। समय की पाबंदी, अनुशासन, मनभेद न रखने का संकल्प और आत्म निरीक्षण की प्रक्रिया गाँधीजी की जीवनचर्या थे और उनके महात्मा बनने के कारण भी। गौर करेंगे तो आज भी यही मंत्र सफलता के फंडे कहलाते हैं। जरूरत बस गाँधी को करीब से जानने की है।
गाँधी के प्रबंधन की यह समझ मुझे अग्रज श्री विष्णु बैरागी के ब्लॉग एकोऽहम् से मिली। उन्होंने 85 वर्षीय गाँधीवादी चिंतक नारायणभाई देसाई के श्रीमुख से सुनी गाँधी कथा का अपने ब्लॉग में वर्णन किया है। (श्री देसाई की 'गाँधी कथा" विस्तार से पढ़ने के लिए देखें - (http://akoham.blogspot.com/)
समय की पाबंदी
गांधी एक-एक क्षण का उपयोग करते थे । वायसराय से वार्ता के लिए शिमला पहुंचने पर मालूम हुआ कि वे सप्ताह भर बाद आएंगे । गांधी ने तत्काल सेवाग्राम लौटने का कार्यक्रम बनाया । सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन और सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन लगते थे। गांधीजी शिमला में चार दिन प्रतीक्षा करने की जगह सेवाग्राम पहुंचे क्योंकि उन्हें उसदिन परचुरे शास्त्री की देख-भाल करना थी। परचुरेजी कुष्ठ रोगी थे और उस समय कुष्ठ रोग को प्राणलेवा तथा छूत की बीमारी माना जाता था । गांधीजी शिमला से लौटे उस दिन परचुरेजी को मालिश करने की बारी थी। आते ही गांधीजी इस काम में लग गए। इतना ही वे समय के इतने पाबंद थे कि लोग उनके क्रियाकलापों से घड़ी मिलाया करते थे।
मंत्र- समय को जिसने साध् लिया समय उसका हो गया।
गतिशील बनो
बापू की सत्य की परिभाषा चूंकि एक गतिशील (डायनेमिक) परिभाषा थी इसीलिए उनका जीवन भी गतिशील (डायनेमिक) बना रहा । उन्होंने जड़ता को कभी स्वीकार नहीं किया । इसीलिए वे यह कहने का साहस कर सके कि यदि उनकी दो बातों में मतभेद पाया जाए तो उनकी पहले वाली बात को भुला दिया जाए और बाद वाली बात को ही माना जाए। आज कौन इस बात से इंकार कर सकता है कि चलते रहने ही आगे बढ़ने की निशानी है। मंत्र- निराश हो कर काम बंद करने या थोड़ी सफलता से प्रसन्ना हो कर ठहर जाना विफलता है। उद्यमशीलता तरक्की का रास्ता है।
आत्म निरीक्षण
मोहन के महात्मा बनने की यात्रा में कुछ सीढ़ियां महत्वपूर्ण रहीं । पहली सीढ़ी रही - आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन । इसीके चलते यह मुमकिन हो पाया कि उन्होने गलतियां तो खूब की लेकिन कोई भी गलती दूसरी बार नहीं की।
बापू कभी भी प्रतिभावान छात्र नहीं रहे । कभी मेरिट लिस्ट में नहीं आए । शिक्षा के मामले में दिशाहीन दशा में थे। पिता को उनका डाक्टर बनना पसन्द नहीं था, इस कारण दिशाहीनता में बढोतरी ही हुई। तब उनसे पूछा गया - इंग्लैण्ड जाकर बैरीस्टरी करना पसन्द करोगे? बापू फौरन ही तैयार हो गए। शिक्षा के मामले में पूर्णत: दिशाहीन मोहनदास को इंग्लैण्ड जाने के निर्णय ने दिशावान बना दिया। इंग्लैण्ड में इंग्लैण्डवालों जैसा बनने के मोह में उन्होंने पहले डांस सीखना शुरु किया। कदमों ने ताल का साथ नहीं दिया। सो, वायलीन बजाना सीखना शुरू कर दिया। लेकिन तीन महीने बीतते-बीतते मोहनदास ने अपने आप से वही सवाल एक बार पूछा जो वे बचपन से ही अपने आप से पूछते चले आ रहे थे-'मैं कौन हूँ और यहां क्यों आया हूं ?" आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन के, बचपन के अभ्यास से मोहनदास ने जवाब हासिल किया और मोह से मुक्त हो गए।
मंत्र- गलती से सबक सीखो। उसे दोहराओ मत।
विश्वसनीयता
भारत का असफल बैरिस्टर मोहनदास दक्षिण अफ्रीका का न केवल सफल वकील बना अपितु उसने वकालात के पेशे को जो विश्वसनीयता और इज्जत दिलाई उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिले। उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मासिक आमदनी पांच हजार पौण्ड तक होने लगी थी और गोरे वकील उनके जूनियर के रूप में काम करते थे। लेकिन उन्होंने झूठे मुकदमे कभी नहीं लिए। चलते मुकदमों के दौरान उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि उनके मुवक्किल ने उनसे झूठ बोला है तो उन्होंने वे न्यायाधीश से क्षमा याचना करते हुए मुकदमें बीच में ही छोड़ दिया करते थे।
मंत्र- प्रतियोगिता के युग में आपके ग्राहकों या लाभार्थियों का विश्वास ही आपकी सबसे बड़ी पूंजी है।
अनुशासन
साबरमती आश्रम की नियमावली बनी और शर्त रही कि आश्रम के निवासियों को नियमावली का पालन करना पड़ेगा । ठक्कर बापा की सिफारिश पर दुधा भाई नामक एक दलित के परिवार को भी इसी शर्त पर प्रवेश दिया गया। इससे आश्रम को प्रथम दो वर्षों तक सहयोग करने वाला श्रेष्ठि वर्ग अप्रसन्ना हो गया। सहायता बन्द हो गई। उस समय अम्बाराम साराभाई चुपचाप तेरह हजार रुपयों का चेक देकर आश्रम के बाहर से ही चले गए। इस रकम में आश्रम का एक वर्ष का खर्च चल सकता था ।
बाद में बापू ने आश्रम की नियमावली को आश्रम के संविधान में बदला । यह संविधान बापू ने खुद लिखा। जैसा कि प्रत्येक संविधान में होता है, इसका उद्देश्य भी बताया जाना था। बापू ने उद्देश्य लिखा - विश्व के हित में अविरोध की देश सेवा करना।
मंत्र-किसी अवस्था में अनुशासन न तोड़ना ही बड़ी सफलता का कारक है।
मनभेद : कभी नहीं
79 वर्ष का दीर्घ जीवन और उसमें भी अन्तिम 50 वर्ष अत्यन्त सक्रियता वाले समय में भी गाँध्ाीजी के कई लोगों से मतभेद हुए। इनमें सुभाष चन्द्र बोस, डॉ भीमराव अम्बेडकर, पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता भर थे तो हरिदास बेटा भी। लेकिन गांधी ने मतभेद को कभी भी 'मनभेद" में बदलने नहीं दिया। गांधी की मानसिकता एक प्रसंग से नारायण भाई रेखांकित करते हैं। 1931 की गोल मेज परिषद की बैठक में गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे - अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था- स्वराज । उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है । बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे। उन्होंने कहा कि गांधीजी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । इसी क्रम में उन्होंने यह कहकर कि गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और, गांधी को अप्रत्यक्ष रूप से झूठा कह दिया। यह गांधीजी के लिए सम्भवत: सबसे बड़ी गाली थी । सबको लगा कि गांधी जी यह ळसहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया-'थैंक्यू सर।" गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई । इस समाचार को एक अखबार ने 'गांधी टर्न्ड अदर चिक" (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया ।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा -'सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते तो भी मुझे अचरज नहीं होता।"गोल मेज परिषद् की इस बैठक से बापू बम्बई लौटे तो उनके स्वागत के लिए बन्दरगाह पर दो लाख लोग एकत्रित थे । तब एक अंग्रेज ने कहा - 'किसी पराजित सेनापति का ऐसा स्वागत कहीं नहीं हुआ।"
मंत्र- काम हो जीवन में पग-पग पर मतभेद की संभावना है लेकिन इन्हें मनभेद न बना कर ही स्पर्धा जीती जा सकती है।
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गाँधीजी ने दिल जीतने और भरोसा कायम करने का फार्मूला दिया है। आज प्रबंधन विशेषज्ञ भी मानते हैं कि जब भरोसा ज्यादा होता है, तो रफ्तार और उत्पादकता बढ़ जाती है। जब भरोसा कम हो तो रफ्तार व उत्पादकता घट जाती है। समय की पाबंदी, अनुशासन, मनभेद न रखने का संकल्प और आत्म निरीक्षण की प्रक्रिया गाँधीजी की जीवनचर्या थे और उनके महात्मा बनने के कारण भी। गौर करेंगे तो आज भी यही मंत्र सफलता के फंडे कहलाते हैं। जरूरत बस गाँधी को करीब से जानने की है।
गाँधी के प्रबंधन की यह समझ मुझे अग्रज श्री विष्णु बैरागी के ब्लॉग एकोऽहम् से मिली। उन्होंने 85 वर्षीय गाँधीवादी चिंतक नारायणभाई देसाई के श्रीमुख से सुनी गाँधी कथा का अपने ब्लॉग में वर्णन किया है। (श्री देसाई की 'गाँधी कथा" विस्तार से पढ़ने के लिए देखें - (http://akoham.blogspot.com/)
समय की पाबंदी
गांधी एक-एक क्षण का उपयोग करते थे । वायसराय से वार्ता के लिए शिमला पहुंचने पर मालूम हुआ कि वे सप्ताह भर बाद आएंगे । गांधी ने तत्काल सेवाग्राम लौटने का कार्यक्रम बनाया । सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन और सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन लगते थे। गांधीजी शिमला में चार दिन प्रतीक्षा करने की जगह सेवाग्राम पहुंचे क्योंकि उन्हें उसदिन परचुरे शास्त्री की देख-भाल करना थी। परचुरेजी कुष्ठ रोगी थे और उस समय कुष्ठ रोग को प्राणलेवा तथा छूत की बीमारी माना जाता था । गांधीजी शिमला से लौटे उस दिन परचुरेजी को मालिश करने की बारी थी। आते ही गांधीजी इस काम में लग गए। इतना ही वे समय के इतने पाबंद थे कि लोग उनके क्रियाकलापों से घड़ी मिलाया करते थे।
मंत्र- समय को जिसने साध् लिया समय उसका हो गया।
गतिशील बनो
बापू की सत्य की परिभाषा चूंकि एक गतिशील (डायनेमिक) परिभाषा थी इसीलिए उनका जीवन भी गतिशील (डायनेमिक) बना रहा । उन्होंने जड़ता को कभी स्वीकार नहीं किया । इसीलिए वे यह कहने का साहस कर सके कि यदि उनकी दो बातों में मतभेद पाया जाए तो उनकी पहले वाली बात को भुला दिया जाए और बाद वाली बात को ही माना जाए। आज कौन इस बात से इंकार कर सकता है कि चलते रहने ही आगे बढ़ने की निशानी है। मंत्र- निराश हो कर काम बंद करने या थोड़ी सफलता से प्रसन्ना हो कर ठहर जाना विफलता है। उद्यमशीलता तरक्की का रास्ता है।
आत्म निरीक्षण
मोहन के महात्मा बनने की यात्रा में कुछ सीढ़ियां महत्वपूर्ण रहीं । पहली सीढ़ी रही - आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन । इसीके चलते यह मुमकिन हो पाया कि उन्होने गलतियां तो खूब की लेकिन कोई भी गलती दूसरी बार नहीं की।
बापू कभी भी प्रतिभावान छात्र नहीं रहे । कभी मेरिट लिस्ट में नहीं आए । शिक्षा के मामले में दिशाहीन दशा में थे। पिता को उनका डाक्टर बनना पसन्द नहीं था, इस कारण दिशाहीनता में बढोतरी ही हुई। तब उनसे पूछा गया - इंग्लैण्ड जाकर बैरीस्टरी करना पसन्द करोगे? बापू फौरन ही तैयार हो गए। शिक्षा के मामले में पूर्णत: दिशाहीन मोहनदास को इंग्लैण्ड जाने के निर्णय ने दिशावान बना दिया। इंग्लैण्ड में इंग्लैण्डवालों जैसा बनने के मोह में उन्होंने पहले डांस सीखना शुरु किया। कदमों ने ताल का साथ नहीं दिया। सो, वायलीन बजाना सीखना शुरू कर दिया। लेकिन तीन महीने बीतते-बीतते मोहनदास ने अपने आप से वही सवाल एक बार पूछा जो वे बचपन से ही अपने आप से पूछते चले आ रहे थे-'मैं कौन हूँ और यहां क्यों आया हूं ?" आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन के, बचपन के अभ्यास से मोहनदास ने जवाब हासिल किया और मोह से मुक्त हो गए।
मंत्र- गलती से सबक सीखो। उसे दोहराओ मत।
विश्वसनीयता
भारत का असफल बैरिस्टर मोहनदास दक्षिण अफ्रीका का न केवल सफल वकील बना अपितु उसने वकालात के पेशे को जो विश्वसनीयता और इज्जत दिलाई उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिले। उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मासिक आमदनी पांच हजार पौण्ड तक होने लगी थी और गोरे वकील उनके जूनियर के रूप में काम करते थे। लेकिन उन्होंने झूठे मुकदमे कभी नहीं लिए। चलते मुकदमों के दौरान उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि उनके मुवक्किल ने उनसे झूठ बोला है तो उन्होंने वे न्यायाधीश से क्षमा याचना करते हुए मुकदमें बीच में ही छोड़ दिया करते थे।
मंत्र- प्रतियोगिता के युग में आपके ग्राहकों या लाभार्थियों का विश्वास ही आपकी सबसे बड़ी पूंजी है।
अनुशासन
साबरमती आश्रम की नियमावली बनी और शर्त रही कि आश्रम के निवासियों को नियमावली का पालन करना पड़ेगा । ठक्कर बापा की सिफारिश पर दुधा भाई नामक एक दलित के परिवार को भी इसी शर्त पर प्रवेश दिया गया। इससे आश्रम को प्रथम दो वर्षों तक सहयोग करने वाला श्रेष्ठि वर्ग अप्रसन्ना हो गया। सहायता बन्द हो गई। उस समय अम्बाराम साराभाई चुपचाप तेरह हजार रुपयों का चेक देकर आश्रम के बाहर से ही चले गए। इस रकम में आश्रम का एक वर्ष का खर्च चल सकता था ।
बाद में बापू ने आश्रम की नियमावली को आश्रम के संविधान में बदला । यह संविधान बापू ने खुद लिखा। जैसा कि प्रत्येक संविधान में होता है, इसका उद्देश्य भी बताया जाना था। बापू ने उद्देश्य लिखा - विश्व के हित में अविरोध की देश सेवा करना।
मंत्र-किसी अवस्था में अनुशासन न तोड़ना ही बड़ी सफलता का कारक है।
मनभेद : कभी नहीं
79 वर्ष का दीर्घ जीवन और उसमें भी अन्तिम 50 वर्ष अत्यन्त सक्रियता वाले समय में भी गाँध्ाीजी के कई लोगों से मतभेद हुए। इनमें सुभाष चन्द्र बोस, डॉ भीमराव अम्बेडकर, पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता भर थे तो हरिदास बेटा भी। लेकिन गांधी ने मतभेद को कभी भी 'मनभेद" में बदलने नहीं दिया। गांधी की मानसिकता एक प्रसंग से नारायण भाई रेखांकित करते हैं। 1931 की गोल मेज परिषद की बैठक में गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे - अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था- स्वराज । उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है । बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे। उन्होंने कहा कि गांधीजी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । इसी क्रम में उन्होंने यह कहकर कि गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और, गांधी को अप्रत्यक्ष रूप से झूठा कह दिया। यह गांधीजी के लिए सम्भवत: सबसे बड़ी गाली थी । सबको लगा कि गांधी जी यह ळसहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया-'थैंक्यू सर।" गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई । इस समाचार को एक अखबार ने 'गांधी टर्न्ड अदर चिक" (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया ।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा -'सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते तो भी मुझे अचरज नहीं होता।"गोल मेज परिषद् की इस बैठक से बापू बम्बई लौटे तो उनके स्वागत के लिए बन्दरगाह पर दो लाख लोग एकत्रित थे । तब एक अंग्रेज ने कहा - 'किसी पराजित सेनापति का ऐसा स्वागत कहीं नहीं हुआ।"
मंत्र- काम हो जीवन में पग-पग पर मतभेद की संभावना है लेकिन इन्हें मनभेद न बना कर ही स्पर्धा जीती जा सकती है।
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