Wednesday, October 6, 2010

बापू का प्रबंधन

आज का जमाना प्रबंधन का है और सही प्रबंधन कौशल सफलता का मूलमंत्र भी है। यही कारण है कि जब सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं या असफलता से निराश बैठ जाते हैं तो बापू याद आते हैं। जीत हो या हार, कोई उलझन हो या निर्णय का भटकाव बापू क्यों याद आते हैं? जीवन की हर मुश्किल घड़ी में बापू क्यों याद आते हैं, इस सवाल का जवाब 85 वर्षीय गाँधीवादी चिंतक नारायणभाई देसाई की 'गाँधी कथा" में मिलता है। नारायण भाई उन्हीं महादेव भाई देसाई के पुत्र हैं जो करीब 25 बरस तक गाँधीजी के निज सचिव रहे। नारायणभाई ने कथावाचन शैली में बापू की कथा कहना प्रारम्भ किया है और उम्र के इस दुरूह चरण में भी शहर-शहर जा कर लोगों की बापू के अनजाने चरित्र से रूबरू करवा रहे हैं। यह कथा बताती है कि मोहनदास करमचंद गाँधी कैसे सफल नेतृत्व कर पाए, क्यों डॉ भीमराव अंबेडर के समक्ष खामोश रहने के बाद भी जनता ने उनका समर्थन किया और क्यों वे दुनिया के सामने सत्याग्रह का उदाहरण रख पाए?

गाँधीजी ने दिल जीतने और भरोसा कायम करने का फार्मूला दिया है। आज प्रबंधन विशेषज्ञ भी मानते हैं कि जब भरोसा ज्यादा होता है, तो रफ्तार और उत्पादकता बढ़ जाती है। जब भरोसा कम हो तो रफ्तार व उत्पादकता घट जाती है। समय की पाबंदी, अनुशासन, मनभेद न रखने का संकल्प और आत्म निरीक्षण की प्रक्रिया गाँधीजी की जीवनचर्या थे और उनके महात्मा बनने के कारण भी। गौर करेंगे तो आज भी यही मंत्र सफलता के फंडे कहलाते हैं। जरूरत बस गाँधी को करीब से जानने की है।
गाँधी के प्रबंधन की यह समझ मुझे अग्रज श्री विष्णु बैरागी के ब्लॉग एकोऽहम् से मिली। उन्होंने 85 वर्षीय गाँधीवादी चिंतक नारायणभाई देसाई के श्रीमुख से सुनी गाँधी कथा का अपने ब्लॉग में वर्णन किया है। (श्री देसाई की 'गाँधी कथा" विस्तार से पढ़ने के लिए देखें - (http://akoham.blogspot.com/)


समय की पाबंदी
गांधी एक-एक क्षण का उपयोग करते थे । वायसराय से वार्ता के लिए शिमला पहुंचने पर मालूम हुआ कि वे सप्ताह भर बाद आएंगे । गांधी ने तत्काल सेवाग्राम लौटने का कार्यक्रम बनाया । सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन और सेवाग्राम से शिमला यात्रा में दो दिन लगते थे। गांधीजी शिमला में चार दिन प्रतीक्षा करने की जगह सेवाग्राम पहुंचे क्योंकि उन्हें उसदिन परचुरे शास्त्री की देख-भाल करना थी। परचुरेजी कुष्ठ रोगी थे और उस समय कुष्ठ रोग को प्राणलेवा तथा छूत की बीमारी माना जाता था । गांधीजी शिमला से लौटे उस दिन परचुरेजी को मालिश करने की बारी थी। आते ही गांधीजी इस काम में लग गए। इतना ही वे समय के इतने पाबंद थे कि लोग उनके क्रियाकलापों से घड़ी मिलाया करते थे।
मंत्र- समय को जिसने साध् लिया समय उसका हो गया।

गतिशील बनो
बापू की सत्य की परिभाषा चूंकि एक गतिशील (डायनेमिक) परिभाषा थी इसीलिए उनका जीवन भी गतिशील (डायनेमिक) बना रहा । उन्होंने जड़ता को कभी स्वीकार नहीं किया । इसीलिए वे यह कहने का साहस कर सके कि यदि उनकी दो बातों में मतभेद पाया जाए तो उनकी पहले वाली बात को भुला दिया जाए और बाद वाली बात को ही माना जाए। आज कौन इस बात से इंकार कर सकता है कि चलते रहने ही आगे बढ़ने की निशानी है। मंत्र- निराश हो कर काम बंद करने या थोड़ी सफलता से प्रसन्ना हो कर ठहर जाना विफलता है। उद्यमशीलता तरक्की का रास्ता है।

आत्म निरीक्षण
मोहन के महात्मा बनने की यात्रा में कुछ सीढ़ियां महत्वपूर्ण रहीं । पहली सीढ़ी रही - आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन । इसीके चलते यह मुमकिन हो पाया कि उन्होने गलतियां तो खूब की लेकिन कोई भी गलती दूसरी बार नहीं की।

बापू कभी भी प्रतिभावान छात्र नहीं रहे । कभी मेरिट लिस्ट में नहीं आए । शिक्षा के मामले में दिशाहीन दशा में थे। पिता को उनका डाक्टर बनना पसन्द नहीं था, इस कारण दिशाहीनता में बढोतरी ही हुई। तब उनसे पूछा गया - इंग्लैण्ड जाकर बैरीस्टरी करना पसन्द करोगे? बापू फौरन ही तैयार हो गए। शिक्षा के मामले में पूर्णत: दिशाहीन मोहनदास को इंग्लैण्ड जाने के निर्णय ने दिशावान बना दिया। इंग्लैण्ड में इंग्लैण्डवालों जैसा बनने के मोह में उन्होंने पहले डांस सीखना शुरु किया। कदमों ने ताल का साथ नहीं दिया। सो, वायलीन बजाना सीखना शुरू कर दिया। लेकिन तीन महीने बीतते-बीतते मोहनदास ने अपने आप से वही सवाल एक बार पूछा जो वे बचपन से ही अपने आप से पूछते चले आ रहे थे-'मैं कौन हूँ और यहां क्यों आया हूं ?" आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन के, बचपन के अभ्यास से मोहनदास ने जवाब हासिल किया और मोह से मुक्त हो गए।
मंत्र- गलती से सबक सीखो। उसे दोहराओ मत।

विश्वसनीयता
भारत का असफल बैरिस्टर मोहनदास दक्षिण अफ्रीका का न केवल सफल वकील बना अपितु उसने वकालात के पेशे को जो विश्वसनीयता और इज्जत दिलाई उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिले। उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मासिक आमदनी पांच हजार पौण्ड तक होने लगी थी और गोरे वकील उनके जूनियर के रूप में काम करते थे। लेकिन उन्होंने झूठे मुकदमे कभी नहीं लिए। चलते मुकदमों के दौरान उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि उनके मुवक्किल ने उनसे झूठ बोला है तो उन्होंने वे न्यायाधीश से क्षमा याचना करते हुए मुकदमें बीच में ही छोड़ दिया करते थे।

मंत्र- प्रतियोगिता के युग में आपके ग्राहकों या लाभार्थियों का विश्वास ही आपकी सबसे बड़ी पूंजी है।

अनुशासन
साबरमती आश्रम की नियमावली बनी और शर्त रही कि आश्रम के निवासियों को नियमावली का पालन करना पड़ेगा । ठक्कर बापा की सिफारिश पर दुधा भाई नामक एक दलित के परिवार को भी इसी शर्त पर प्रवेश दिया गया। इससे आश्रम को प्रथम दो वर्षों तक सहयोग करने वाला श्रेष्ठि वर्ग अप्रसन्ना हो गया। सहायता बन्द हो गई। उस समय अम्बाराम साराभाई चुपचाप तेरह हजार रुपयों का चेक देकर आश्रम के बाहर से ही चले गए। इस रकम में आश्रम का एक वर्ष का खर्च चल सकता था ।

बाद में बापू ने आश्रम की नियमावली को आश्रम के संविधान में बदला । यह संविधान बापू ने खुद लिखा। जैसा कि प्रत्येक संविधान में होता है, इसका उद्देश्य भी बताया जाना था। बापू ने उद्देश्य लिखा - विश्व के हित में अविरोध की देश सेवा करना।

मंत्र-किसी अवस्था में अनुशासन न तोड़ना ही बड़ी सफलता का कारक है।

मनभेद : कभी नहीं
79 वर्ष का दीर्घ जीवन और उसमें भी अन्तिम 50 वर्ष अत्यन्त सक्रियता वाले समय में भी गाँध्ाीजी के कई लोगों से मतभेद हुए। इनमें सुभाष चन्द्र बोस, डॉ भीमराव अम्बेडकर, पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता भर थे तो हरिदास बेटा भी। लेकिन गांधी ने मतभेद को कभी भी 'मनभेद" में बदलने नहीं दिया। गांधी की मानसिकता एक प्रसंग से नारायण भाई रेखांकित करते हैं। 1931 की गोल मेज परिषद की बैठक में गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे - अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था- स्वराज । उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है । बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे। उन्होंने कहा कि गांधीजी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । इसी क्रम में उन्होंने यह कहकर कि गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और, गांधी को अप्रत्यक्ष रूप से झूठा कह दिया। यह गांधीजी के लिए सम्भवत: सबसे बड़ी गाली थी । सबको लगा कि गांधी जी यह ळसहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया-'थैंक्यू सर।" गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई । इस समाचार को एक अखबार ने 'गांधी टर्न्ड अदर चिक" (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया ।

बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा -'सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते तो भी मुझे अचरज नहीं होता।"गोल मेज परिषद् की इस बैठक से बापू बम्बई लौटे तो उनके स्वागत के लिए बन्दरगाह पर दो लाख लोग एकत्रित थे । तब एक अंग्रेज ने कहा - 'किसी पराजित सेनापति का ऐसा स्वागत कहीं नहीं हुआ।"

मंत्र- काम हो जीवन में पग-पग पर मतभेद की संभावना है लेकिन इन्हें मनभेद न बना कर ही स्पर्धा जीती जा सकती है।


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1 comment:

  1. बीसवीं सदी में यदि किसी व्यक्ति में जनता ने गहरी दिलचस्पी दिखाई तो वह है गांधी जी का व्यक्तित्व। उन्होंने जो कुछ कहा और किया वह इतिहास बन गया। बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

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