Friday, January 7, 2011

कोई भी काम, एनी टाइम, मैं हूँ ना

मैं पत्रकार हूँ। यह आपके लिए रहस्योघाटन नहीं है। नये व्यक्ति से परिचय करते हुए मैं अमूमन अपना नाम, संस्थान का नाम और पद जरूर बताता हूँ। आज भी यही हुआ। दफ्तर जाने के दौरान एक अधेड़ शख्स ने मुझसे लिफ्ट माँगी। मैंने उन्हें अपनी गाड़ी पर बैठा लिया जो मैं अकसर करता हूँ। सो मैंने यह कहते हुए कि मैं नईदुनिया कार्यालय तक जा रहा हूँ , पूछ लिया कि आपको कहाँ जाना हैं? उन्होंने बताया कि अयोध्या नगर जाना है, लेकिन आप तो मुझे छोड़ेगें नहीं? जी हाँ कहते हुए मैंने असमर्थता जता दी।

उन्होंने लोक परिवहन न होने पर पहले तो शासन को कोसा मेरे यह कहने पर कि कुछ हद तक तो हम भी दोषी हैं, उन्होंने मुझसे सहमति जताई। बातचीत चल पड़ थी तो कुछ और बातें हुईं। बात बढ़ती मँहगाई और आम आदमी के खर्च की कम सीमा तक आ गई। मैंने कहा पैसे की जरूरत तो सभी को होती है लेकिन आज कल घोटाले कई सौ करोड़ में होते हैं। यह जरूरत नहीं, लोभ है। उन्होंने फिर मेरी बात से सहमति जताई।

इतनी देर में हम मेरे दफ्तर तक आ पहुँचे। गाड़ी से उतरते हुए उन्होंने कहा कि मैं भी एक पत्रकार हूँ। जिस अखबार/पत्रिका का नाम लिया वह नामालूम सी है। मैं अगला कोई बात सोच पाता इसके पहले उन्होंने कहा कि मैं हर तरह का काम करवा सकता हूँ। कहीं का भी। किसी राज्य या केन्द्र के किसी विभाग में कोई तबादला, नियुक्ति, जाँच सब। पैसा बाद में लेता हूँ। आप केस बताएँगे तो आपको भी हिस्सा मिल जाएगा। आखिर पैसों की जरूरत तो आपको भी होगी?
मैं हतप्रभ था...कुल जमा 2 किमी की यात्रा में इतना लंबा परिचय कैसे हो गया कि व्यक्ति ने सारे बंध्ान, सारे लिहाज तोड़ते हुए साफ सौदेबाजी शुरू कर दी।

मैं खड़ा रहा, उन्होंने मोबाइल नंबर बताया और कहा- आप भोपाल को देखते हैं। मैं केन्द्र के काम करवा सकता हूँ। मुझे मेरी सीमाएँ नजर आ रही थीं और भ्रष्टाचार का खत्म होता शिष्टाचार दिखाई दे रहा था। मैं इस धुँधलके में अपना अक्स खोज रहा था।

 खैर है, मैं साबूत हूँ, अपने साथ।

1 comment:

  1. @ मैं इस धुँधलके में अपना अक्स खोज रहा था।
    हम भी।
    कैसी-कैसी मानसिकता है ...! उफ़्फ़!!

    बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    फ़ुरसत में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के साथ

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