इंसान भी कितना डरपोक है...। सॉरी, मुझे लगता है मैं बात को कुछ घुमा कर कह रहा हूँ। साफ-साफ कहता हूँ कि पुरूष कितना डरपोक है। हर संभावना, सपने और ख्याल से भी डर जाता है। किसी ने अगर अपने सपने का जिक्र किया तो डरने लगता है, कहीं खतरा मुझे तो नहीं, जैसे हर सपना उसके अस्तित्व को खत्म करने के लिए ही देखा जाता है। कोई अगर तरक्की का ख्याल बुन ले तो उसका पड़ोसी (मानसिक/शारीरिक) इंसान डर जाता है। और अगर सपने देखने और ख्याल बुनने वाला उस वर्ग का हो जिसे आजकल आधी दुनिया कहा जाता है तो यह आदमी, ताकतवर आदमी थर-थर काँपने लगता है। उसे लगता है बरसों से, सदियों से जिसे उसने दबा कर रखा, दोयम दर्जे पर रखा, कहीं वह मुख्य धारा में आ गई तो? इस तो से यह भयभीत रहता है। यही कारण है कि वह हर सपने की तलाशी लेना चाहता है, हर उस शख्स की दुनिया में ताकझाँक करना चाहता है, जिससे वह डरता है।
आदमी के इसी डरपोक रूप से इस हफ्ते मेरा दो बार सामना हुआ। पहला, बालिका दिवस पर एक संस्था सरोकार द्वारा रखे गए कार्यक्रम की बात है। वहाँ जब बेटियों को देवी बना कर पूजे जाने की बात हो रही थी तो मेरी एक साथी ने कह दिया कि बेटियों को देवी बना कर उसे आदर्श की कसौटी पर मत कसो। उसे सामान्य इंसान रहने दो, गलतियाँ करने का हक दो। बात कई लोगों को चुभना स्वाभाविक थी। हुआ भी यही। आखिरकार एक पंडितजी से रहा नहीं गया और वे सनातन परम्परा का बखान कर यह सिद्ध कर गए कि लड़कियों को लड़की/इंसान के अलावा सबकुछ समझने की आदत जल्दी जाने वाली नहीं है। कुल जमा दो घंटे चले कार्यक्रम में मेरी साथी ने केवल 2 मिनट अपनी बात रखी थी लेकिन उनकी यह बात पूरे कार्यक्रम में रखे गए विचारों पर भारी पड़ी। जिन्हें यह बात पसंद आई थी वे तारीफ में जुट गए और जिन्हें ख्याल देखती औरत बुरी लगती हैं, वे खंडन में जुट गए।
दूसरा वाकिया। हमारे संस्थान द्वारा महिला क्लब के गठन के दौरान का है। आयोजन की जिम्मेदारी होने के कारण मैं कुछ आगंतुकों और सहकर्मियों के साथ बाहर ही खड़ा था। कार्यक्रम महिलाओं के लिए एकाग्र था तो पुरूष इस तरह बर्ताव कर रहे थे, जैसे उन्हें किसी दोयम आयोजन में जाना पड़ रहा है। वे पहले तो कार्यक्रम को हल्का और महिलाओं के ज्ञान को फौरी बता कर इसे वक्त जाया करने की गतिविधि करार देते रहे। फिर जब महिलाओं को माइक पर बात कहने को आमंत्रित करते देखा तो कहने लगे- लो, अब तो घंटे भर की फुर्सत हो गई। इनकी चटर-पटर कभी बंद होती है?"
मैं सारी दुनिया पर आतंक का सिक्का जमाने वाले पुरूष को डरते देख रहा था। तभी एक ने आकर सूचना दी-पता है, अंदर क्या चल रहा है।?" हमें जिज्ञासु बनाते हुए वह व्यक्ति कुछ देर रूका और फिर बोला-'लड़कों को छेड़ने की बात हो रही है। गंभीर चर्चा होना थी, यह क्या स्तर आ गया!"
विस्तार से जानने पर पता चला कि एक वक्ता ने अपना 'वाइल्ड ड्रीम" बताते हुए यह कह दिया कि वह बचपन से लड़कों को छेड़ने के इरादे रखती थी और बड़े होने पर ज्यों ही यह आजादी मिली, उन्होंने अपनी यह तमन्ना पूरी भी की। एक वक्ता ने बताया कि वे चाहती हैं कि घोड़ी चढ़ कर अपने दुल्हे को ब्याहने जाए।
हम जानते हैं कि जब तक डरपोक पुरूष जिंदा है, ये सपने हकीकत में नहीं बदल सकते लेकिन इस जानकारी के बाद भी पुरूष मन विचलित हुआ। महिला जो उनके लिए किसी भी समय चटकारे ले कर बात करने का विषय होती है, इस आयोजन में, डर का सबब लग रही थी। मुझे लगा वहाँ महिलाओं का नहीं ऐसे आतंकियों का जमावड़ा हुआ है जिनसे सभी को डरना चाहिए। एक लड़की जिसे हर कोई, किसी भी जगह, किसी भी वक्त, कैसा भी कमेंट कर सकता है, वह लड़की यदि सपना देख ले कि वह किसी राह चलते लड़के पर फब्ती कसेगी तो पुरूष डरने लगता है। वह काँपने लगता है क्योंकि उसे अपनी सत्ता छिनती महसूस होती है। और भयभीत पुरूष षड्यंत्र करने लगता है, सपने में सेंधमारी करने लगता है, उसके दिमाग को छोटा और अछूत दिखाने की कोशिश करने लगता है जिसकी देह उसे बहुत प्यारी लगती है। जब भी कोई स्त्री सपना देखती है, डरपोक पुरूष हाँका लगा कर अपनी कौम को आगाह कर देता है- 'डरो, वह आती है।"
आदमी के इसी डरपोक रूप से इस हफ्ते मेरा दो बार सामना हुआ। पहला, बालिका दिवस पर एक संस्था सरोकार द्वारा रखे गए कार्यक्रम की बात है। वहाँ जब बेटियों को देवी बना कर पूजे जाने की बात हो रही थी तो मेरी एक साथी ने कह दिया कि बेटियों को देवी बना कर उसे आदर्श की कसौटी पर मत कसो। उसे सामान्य इंसान रहने दो, गलतियाँ करने का हक दो। बात कई लोगों को चुभना स्वाभाविक थी। हुआ भी यही। आखिरकार एक पंडितजी से रहा नहीं गया और वे सनातन परम्परा का बखान कर यह सिद्ध कर गए कि लड़कियों को लड़की/इंसान के अलावा सबकुछ समझने की आदत जल्दी जाने वाली नहीं है। कुल जमा दो घंटे चले कार्यक्रम में मेरी साथी ने केवल 2 मिनट अपनी बात रखी थी लेकिन उनकी यह बात पूरे कार्यक्रम में रखे गए विचारों पर भारी पड़ी। जिन्हें यह बात पसंद आई थी वे तारीफ में जुट गए और जिन्हें ख्याल देखती औरत बुरी लगती हैं, वे खंडन में जुट गए।
दूसरा वाकिया। हमारे संस्थान द्वारा महिला क्लब के गठन के दौरान का है। आयोजन की जिम्मेदारी होने के कारण मैं कुछ आगंतुकों और सहकर्मियों के साथ बाहर ही खड़ा था। कार्यक्रम महिलाओं के लिए एकाग्र था तो पुरूष इस तरह बर्ताव कर रहे थे, जैसे उन्हें किसी दोयम आयोजन में जाना पड़ रहा है। वे पहले तो कार्यक्रम को हल्का और महिलाओं के ज्ञान को फौरी बता कर इसे वक्त जाया करने की गतिविधि करार देते रहे। फिर जब महिलाओं को माइक पर बात कहने को आमंत्रित करते देखा तो कहने लगे- लो, अब तो घंटे भर की फुर्सत हो गई। इनकी चटर-पटर कभी बंद होती है?"
मैं सारी दुनिया पर आतंक का सिक्का जमाने वाले पुरूष को डरते देख रहा था। तभी एक ने आकर सूचना दी-पता है, अंदर क्या चल रहा है।?" हमें जिज्ञासु बनाते हुए वह व्यक्ति कुछ देर रूका और फिर बोला-'लड़कों को छेड़ने की बात हो रही है। गंभीर चर्चा होना थी, यह क्या स्तर आ गया!"
विस्तार से जानने पर पता चला कि एक वक्ता ने अपना 'वाइल्ड ड्रीम" बताते हुए यह कह दिया कि वह बचपन से लड़कों को छेड़ने के इरादे रखती थी और बड़े होने पर ज्यों ही यह आजादी मिली, उन्होंने अपनी यह तमन्ना पूरी भी की। एक वक्ता ने बताया कि वे चाहती हैं कि घोड़ी चढ़ कर अपने दुल्हे को ब्याहने जाए।
हम जानते हैं कि जब तक डरपोक पुरूष जिंदा है, ये सपने हकीकत में नहीं बदल सकते लेकिन इस जानकारी के बाद भी पुरूष मन विचलित हुआ। महिला जो उनके लिए किसी भी समय चटकारे ले कर बात करने का विषय होती है, इस आयोजन में, डर का सबब लग रही थी। मुझे लगा वहाँ महिलाओं का नहीं ऐसे आतंकियों का जमावड़ा हुआ है जिनसे सभी को डरना चाहिए। एक लड़की जिसे हर कोई, किसी भी जगह, किसी भी वक्त, कैसा भी कमेंट कर सकता है, वह लड़की यदि सपना देख ले कि वह किसी राह चलते लड़के पर फब्ती कसेगी तो पुरूष डरने लगता है। वह काँपने लगता है क्योंकि उसे अपनी सत्ता छिनती महसूस होती है। और भयभीत पुरूष षड्यंत्र करने लगता है, सपने में सेंधमारी करने लगता है, उसके दिमाग को छोटा और अछूत दिखाने की कोशिश करने लगता है जिसकी देह उसे बहुत प्यारी लगती है। जब भी कोई स्त्री सपना देखती है, डरपोक पुरूष हाँका लगा कर अपनी कौम को आगाह कर देता है- 'डरो, वह आती है।"
ये तो लोगों के सोचने का नजरिया है जिसे बदलने में समय तो लगेगा ही अचानक से बदलाव को अपना लेना किसी भी समाज के लोगों की आदत नहीं होती अभी तो ये शुरुआत है वो दिन भी जरुर आएगा जब ये सारी बाते सामान्य हो जाएँगी इंतज़ार तो उसी दिन का है और शुक्रिया आपको की इसा एक रंग में रंगी दुनिया में आप ने कुछ अलग रंग अपने इस लेख में बिखेरा है..धन्यवाद्
ReplyDeleteसोनम झा
its the human tendency to accept what is typical and criticize anything that goes against it...(those)men, when tease their counterpart, never imagine how sub-standard they are behaving but if they encounter a tom-boy they start deciding their standards...
ReplyDeleteanyway..good read..loved going through your blog sir..
nitisha kashyap
a student of communication, bhopal