Monday, February 7, 2011

बसन्त

रोज देखता हूँ तुम्हारी ओर


लगता है हर दिन


बारह घण्टे पुरानी हो रही हो तुम ।


राशन, सब्जी, दूध, बिजली,


के बढ़ते दाम व्यस्त रखते हैं तुम्हें


हिसाब-किताब में ।


नई चिन्ता के साथ


केलेण्डर में ही आता है


फागुन, सावन, कार्तिक ।


जिन्दगी का गुणा-भाग


करते-करते


जब ढल आती है


कोई लट चेहरे पर


या पोंछते हुए पसीना माथे का


मुस्कुरा देती हो मुझे देख


सच समझो उतर आता है बसन्त


हम दोनों की जिन्दगी में ।

2 comments:

  1. माथे का पसीना पुछता रहे...
    बेहतर....

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  2. Abhar Ravi bahi. AAp honsla bada dete hain. Abhar.

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