समय बदल रहा है और समय के साथ रिवाज भी अपना रुप बदल रहे हैं। मुझे यह बात मानने में कोई गुरेज नहीं है कि अधिकांश बदलाव खास कर परम्पराओं में परिवर्तन सुविधाओं के मद्देनजर होते हैं। घोर कर्मकांड मानने वाले भी अपनी सुविधनुसार हर परिस्थिति का तोड़ निकाल ही लेते हैं। मसलन, विवाह में लग्न की दिक्कत आ रही है तो कोई ग्रह बलवान कर जोड़ी मिला दी जाती है। ऐसी ही लाख परेशानियाँ और करोड़ समाधान। खैर, तो बात कुछ यूँ है कि महिला दिवस की साँझ एक पारिवारिक आयोजन में शामिल होने का मौका मिला। मौका था सगाई का। युवा जोड़े की उम्र यूँ तो कोई खास ज्यादा नहीं थी। किसी शोध या बड़े प्रोजेक्ट से जुड़ जाते तो शायद अभी ही पढ़ाई पूरी करते लेकिन मध्यम वर्गीय परिवार की आम कहानी की तरह इन दोनों की दास्तां भी हैं। ग्रेजुएशन करने के बाद लड़का नौकरी के लिए परिश्रम करने लगा तो लड़की सुघड़ बहू बनने के सारे कौशल सीखने में जुट गई। उम्मीद करता हूँ कि दोनों ने करीब दो साल अपने-अपने काम मुस्तैदी से किए होंगे। फिर दो साल बाद भी दोनों को जब कोई जोड़ीदार नहीं मिला तो परिवार की चिंता बड़ी और फिर समय गुजरने के साथ दोनों के ही पिताओं के माथे की लकीरें और आँखों के नीचे घेरे गहराने लगे।
चिंता दोनों को खाए जा रही थी। दोनों परिवार का एकमात्र ऐजेंडा था किसी तरह कोई लड़का/लड़की मिल जाए। दोनों के हाथ पीले हों और परिवार अपने गुरुत्तर दायित्व से मुक्त हो जाए। गंगा नहाए। मुझे नहीं लगता कि इसबीच किसी ने दोनों की रुचियों और स्वभावगत गुण दोषों की बात की होगी या दोनों के भावी संबंध पर गौर किया होगा। खैर, योग-संयोग से इसी शहर में दोनों की मुराद पूरी हो गई। दोनों परिवार आल्हादित।
रिश्ता हो गया था तो सभी को बताना तो था। इसलिए एक आयोजन की रचना हुई। आम भाषा में इसे सगाई कहते हैं। भावी दुल्हे का परिवार वीरोचित भाव से लड़की के घर-आँगन में पहुँचा। भावी दुल्हन का पूरा परिवार हाथ जोड़े, रीढ़ झुकाए खड़ा था-स्वागतातुर।
इन सभी में एक शख्स एकदम अलग नजर आ रहा था। आँखों में अजीब सा सूनापन, होंठों पर सुकून की हँसी और दिल में बेटी की विदाई का वक्त करीब आने का दर्द। लड़की का पिता। रजत पटल पर आने वाली कमोबेश हर फिल्म साफ कर देती है कि उसकी कहानी का कोई भाग या किरदार असल जिंदगी के किसी किस्से या किरदार से कोई साम्य नहीं रखता लेकिन ऐसा क्यों होता कि हर दुल्हन या लड़की के पिता की हालत फिल्मी बेटी के पिता की हालत की तरह ही असहाय, निरुपाय होती है?
लड़के के कुछ दबंग परिजनों के अलावा माहौल को तनावरहित करने के लिए संवाद बनाए रखने की कोशिश करते लड़की के अन्य परिजन और पड़ोसियों के बीच केवल एक शख्स जो हर आवाज पर हाथ जोड़ मुस्कुराने लगता है। उसकी गर्दन हिलती है तो केवल हाँ में। यह हाँ में हिलना इतना आदतन और स्वाभाविक हो जाता है कि इंकार करते हुए भी गर्दन स्वीकृति में हिलती ही प्रतीत होती है।
वह हर मुराद पूरी करने को आतुर होता है, वह मेहमान के हर लफ्ज को मुँह से गिरते ही हथेलियों में थाम लेता है। कितना निरीह, कितना बेबस।
उस इंसान को देख मुझे खुद पर कोफ्त हुई, क्योंकि में लड़के की ओर से था। वे जब भी मेरे पास आए मैंने उन्हें हाथ जोड़ने से रोका लेकिन अफसोस उन्हें मेरी बात सुनने की फुर्सत कहाँ थी या कहो अगले मेहमान के आतिथ्य की चिंता ही इतना थी कि वे मेरी बात सुन ही नहीं रहे थे। कल तक दो पिता चिंता में थे। आज एक पिता चिंता में है। बेटी के हाथ पीले करने की चिंता। मैं जानता हूँ, वे किसी से कह नहीं रहे हैं लेकिन चिंता एक ओर होगी-बेटी के विदा हो जाने की चिंता। परिवार के लाड़ले व्यक्ति के चले जाने की चिंता।
किताबी ज्ञान के सहारे मार्कशीट-सा स्टेट्स रखने वाले इन परिवारों के बीच पिता की खासकर बेटी के पिता की इस स्थिति ने मुझे बहुत शर्मसार किया।
चिंता दोनों को खाए जा रही थी। दोनों परिवार का एकमात्र ऐजेंडा था किसी तरह कोई लड़का/लड़की मिल जाए। दोनों के हाथ पीले हों और परिवार अपने गुरुत्तर दायित्व से मुक्त हो जाए। गंगा नहाए। मुझे नहीं लगता कि इसबीच किसी ने दोनों की रुचियों और स्वभावगत गुण दोषों की बात की होगी या दोनों के भावी संबंध पर गौर किया होगा। खैर, योग-संयोग से इसी शहर में दोनों की मुराद पूरी हो गई। दोनों परिवार आल्हादित।
रिश्ता हो गया था तो सभी को बताना तो था। इसलिए एक आयोजन की रचना हुई। आम भाषा में इसे सगाई कहते हैं। भावी दुल्हे का परिवार वीरोचित भाव से लड़की के घर-आँगन में पहुँचा। भावी दुल्हन का पूरा परिवार हाथ जोड़े, रीढ़ झुकाए खड़ा था-स्वागतातुर।
इन सभी में एक शख्स एकदम अलग नजर आ रहा था। आँखों में अजीब सा सूनापन, होंठों पर सुकून की हँसी और दिल में बेटी की विदाई का वक्त करीब आने का दर्द। लड़की का पिता। रजत पटल पर आने वाली कमोबेश हर फिल्म साफ कर देती है कि उसकी कहानी का कोई भाग या किरदार असल जिंदगी के किसी किस्से या किरदार से कोई साम्य नहीं रखता लेकिन ऐसा क्यों होता कि हर दुल्हन या लड़की के पिता की हालत फिल्मी बेटी के पिता की हालत की तरह ही असहाय, निरुपाय होती है?
लड़के के कुछ दबंग परिजनों के अलावा माहौल को तनावरहित करने के लिए संवाद बनाए रखने की कोशिश करते लड़की के अन्य परिजन और पड़ोसियों के बीच केवल एक शख्स जो हर आवाज पर हाथ जोड़ मुस्कुराने लगता है। उसकी गर्दन हिलती है तो केवल हाँ में। यह हाँ में हिलना इतना आदतन और स्वाभाविक हो जाता है कि इंकार करते हुए भी गर्दन स्वीकृति में हिलती ही प्रतीत होती है।
वह हर मुराद पूरी करने को आतुर होता है, वह मेहमान के हर लफ्ज को मुँह से गिरते ही हथेलियों में थाम लेता है। कितना निरीह, कितना बेबस।
उस इंसान को देख मुझे खुद पर कोफ्त हुई, क्योंकि में लड़के की ओर से था। वे जब भी मेरे पास आए मैंने उन्हें हाथ जोड़ने से रोका लेकिन अफसोस उन्हें मेरी बात सुनने की फुर्सत कहाँ थी या कहो अगले मेहमान के आतिथ्य की चिंता ही इतना थी कि वे मेरी बात सुन ही नहीं रहे थे। कल तक दो पिता चिंता में थे। आज एक पिता चिंता में है। बेटी के हाथ पीले करने की चिंता। मैं जानता हूँ, वे किसी से कह नहीं रहे हैं लेकिन चिंता एक ओर होगी-बेटी के विदा हो जाने की चिंता। परिवार के लाड़ले व्यक्ति के चले जाने की चिंता।
किताबी ज्ञान के सहारे मार्कशीट-सा स्टेट्स रखने वाले इन परिवारों के बीच पिता की खासकर बेटी के पिता की इस स्थिति ने मुझे बहुत शर्मसार किया।
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