Sunday, October 7, 2012

ये हरियाली धोखा है, तू जल्दी चला जा



प्यारे तेंदुए
मेरा नाम टोनी है... मैं तुझ से पहले जंगल में आया था इसलिए मुझे अपना बड़ा भाई समझ। इनदिनों वन विहार में हूँ। जब से पता चला है कि तू इंसानों की बस्ती की ओर चला आया है तब से चिंता हो रही है। 
मुझे लगता है तू बच्चा ही है, जो इतनी बड़ी बात भी नहीं समझ पाया कि अपना घर सिमट गया। अरे नादान! अब इतना बड़ा जंगल हमारे लिए कहाँ? हमारे घर में इंसान का कब्जा हो गया है। तू यहाँ से जल्दी चला जा, वरना ये पशुभक्षी इंसान तुझे भी मार डालेंगे या मेरी तरह तुझे भी पकड़ कर वन विहार जैसे बड़े से कैद खाने में बंद कर देंगे। तू आजाद है, आजाद रह। अपनी जान की परवाह कर। मत मान कि जितना जंगल है वह सब अपना है। प्रकृति पर हमारा बराबरी का हक है लेकिन इंसान सब हड़पना चाहता है तो हमें ही समझना होगा। भोजन न मिले तो थोड़े में गुजारा कर...लेकिन बस्ती की तरफ मत आया कर। 

एक बात बता, तूझे अचरज नहीं हुआ जब मैंने कहा कि मैं टोनी हूँ। अरे! हमारे नाम होते हैं क्या? यह नाम रखना तो इंसानों की फितरत है। दो साल पहले वन विहार लाया गया हूँ तब से मुझे यह नाम मिला है। क्या पूछते हो? कैसे आया वन विहार? मैं भी तुम्हारी तरह था, थोड़ा नासमझ। एक दिन बहुत भूख लगी। कई दिनों से शिकार नहीं मिला तो खोज में चला आया कलियासोत की तरफ। मुझे क्या खबर थी कि इतने जंगल में भी इंसान आ बसे हैं। मुझे देख जो हल्ला हुआ कि मैं घबरा गया। तुरंत एक पहाड़ी पर चढ़ गया। क्या बताऊँ उस दिन क्या हुआ। जोर की आवाजें मुझे डरा रही थी। मैं बुरी तरह घबरा गया था। करीब आ रहे एक इंसान को भगाने के लिए हमला किया तो भीड़ मेरे पीछे पड़ गई। मुझे कुछ समझ ही नहीं आया। बौखला कर फिर पहाड़ी पर जा छिपा। मेरे निकलने के सारे रास्ते बंद थे। भूख भी बहुत लग रही थी। लग रहा था, वहाँ से न निकला तो मर ही जाऊँगा। रात में हिम्मत कर बाहर निकला। कोई नहीं था। मैं रास्ता खोज रहा था कि एक स्वादिष्ट बकरा दिखाई दिया। मानो मेरी को मुराद पूरी हो गई। पर मुझे क्या पता था, वह धोखा है। बकरा मिला जरूर लेकिन उस दिन खाने के लालच में मैं पिंजरे में कैद हो गया। तब से यहाँ वन विहार में लाया गया हूँ।

कहने को तो वन विहार जैसी जगहों पर आराम ही आराम है। समय पर खाना मिलता है लेकिन भाई वो जंगल सी मौज कहाँ? यहाँ घूमने आने वाले लोग हमें परेशान करते हैं। वन विभाग का अमला भी हमें सुरक्षा नहीं दे पाता। कई बाघ लीवर की खराबी से चल बसे। डर लगता है मुझे ही यहाँ का माँस खाने से कोई बीमारी न हो जाए। मैं तो यहाँ आ कर शिकार करना ही भूल ही गया। मुझे एक बाड़ा मिला है जो लगता तो जंगल जैसा है लेकिन पिंजरे से कम नहीं है। जहाँ चाहूँ वहाँ जाने की आजादी नहीं। अहा! कैसे थे वे जंगल के दिन। काश, मैं आजाद होता, अपने वन में। 
मैं जानता हूँ, इंसान कभी हमारा भोजन नहीं रहा। हम तो कभी उसे खाना पसंद नहीं करते लेकिन हमारा भोजन जिन घास के मैदानों और जंगल में होता था उन्हें उजाड़ दिया गया। इंसान खुद जंगल तक आ गया। अंग्रेज जब हमारे जंगलों और वन्यजीवों का खत्म कर रहे थे, तब हम तेंदुओं को आवास और भोजन दोनों की ही कमी महसूस हुई। मजबूरन हमें मानव बस्तियों के आसपास आना पड़ा। इन्हें क्या पता, बस्तियों के पास रहना और इंसानों के साथ तालमेल बिठाने में हमें कितनी परेशानी हई। हम तो अब भी इंसानों को खाना पसंद नहीं करते लेकिन वह हम पर हमले करता है, हमें घेर कर मारता है।
तू भी जल्दी से चला जा। भीड़ बहुत खराब होती है। तू मासूम है। जब तुझ पर चारों तरफ से हमले होंगे तो बौखला जाएगा। घबराहट में किसी पर हमला कर देगा तो लोग तुझे भी आदमखोर करार देंगे और तुझे मारने का आदेश जारी हो जाएगा। अरे! मैं भी क्या कह रहा हूँ। अब आदेश कहाँ जारी होते हैं, अब तो लोग खुद तुझे मार देंगे और तेरी लाश को तमाशा बना देंगे।
मेरी बातें सुन इस बार ज्यादा बारिश हुई तो हरियाली भी खूब हुई है। समरधा , रातापानी, कोलार, केरवा से लेकर सीहोर की वीरपुर रेंज तक जैसे पुराना जंगल लौट आया। यह हरियाली हमें भटका रही है। हम नासमझ जानवर, अपनी सीमा तय करने में भूल कर बैठते हैं। तू भदभदा के पास पनपे जंगलों को भी अपना ठिकाना मान बैठा लेकिन यह अब हमारा घर नहीं रहा। अब तो यहाँ इंसान आ गए हैं। यहीं क्यों, सीहोर की वीरपुर रेंज में शिकारियों की पौ-बारह है। तुझे पता है पाँच माह पहले वीरपुर रेंज के कठौतिया में पानी पीने आया एक बाघ शिकारियों के बिछाए करंट से मारा गया था। यहीं पिछले दिनों एक बाघ शावक और मारा गया। केरवा-कलियासोत-कोलार की तरफ तेजी से शहर बढ़ रहा है। करीब 980 वर्गकिलोमीटर का रातापानी अभ्यारण्य और रायसेन की समरधा  रेंज के किनारे भी महफूज नहीं रहे। उस तरफ से इध्ार आना अब सुरक्षित नहीं है। रास्ते में बड़े लोगों के कब्जे हैं। इन्हें प्रकृति पसंद है और ये हरियाली के बीच रहना चाहते हैं। इन्हें इसकी फिक्र कहाँ कि इस सब में प्रकृति के एक अंग हम वन्य प्राणी मुसीबत से घिर जाएँगे और खत्म हो जाएँगे? इनके सुख के आगे हमारे जीवन के क्या मायने? 
क्या हुआ जो आईआईएफएम और मानव संग्रहालय की हरियाली बार-बार हमें ललचाती है। ये जंगल नहीं धोखा  है। यहाँ आ कर हम 'पशुभक्षी" इंसान का शिकार ही बनेंगे। इसलिए तुम केरवा या कोलार की ओर घने जंगलों में जाना। 
तू फिर भी न समझा हो तो एक बात बताता हूँ। तुझे पता है, नेपाल के चितवन पार्क में बाघ का रास्ता भी इंसानों ने हथिया लिया है। दिन में इंसान बाघ की पगडंडी का इस्तेमाल कर रहे हैं। बाघ कभी दिन-रात में भेद नहीं करता। वह अपने बनाए रास्ते पर ही चलता है। कभी अपनी लीक नहीं छोड़ता लेकिन इंसानों ने जब उसकी राह को अपनी पगडंडी बना ली तो बाघ केवल रात में निकलने को मजबूर हुआ। इस शोध में दो साल लगे। जब से यह शोध 'प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साईंस जरनल" में प्रकाशित हुआ है तब ही से वन्य प्राणी विशेषज्ञ चिंता में हैं। वे भी रह मानते हैं कि यह संसाधनॉ का बँटवारा नहीं वन्य प्राणियों के क्षेत्र पर बेजा कब्जा है। 
तुझे तो पता है न कि अपना सबसे पसंदीदा आवास घना वन है। पर प्रकृति ने हमें सामर्थ्य दिया कि हम कहीं भी रह सकते हैं। हमें रेगिस्तान में भी बस तन छिपाने के लिए थोड़ी हरियाली और खाने के लिए कुछ छोटे प्राणी चाहिए। 
ये बात इंसान नहीं समझने वाला। तू ही समझ। जंगल के जितना अंदर रह सकता है, उतना भीतर रह। वरना, चीते और बाघ की तरह हम भी लुप्त हो जाएँगे या पिंजरों में बंद सजावट का सामान बन जाएँगे।  
अभी तेरे पास वक्त है। चला जा नहीं तो तेरी भी आजादी खत्म हो जाएगी या तू भी मार दिया जाएगा।
तेरी फिक्र में हूँ।

टोनी तेंदुआ
वन विहार

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