मित्रों, बात किसी एक समाज और उसकी सोच की नहीं है। यह व्यक्तिगत सोच का मामला है जो अंतत: समाज की सोच बनती है। यह बहस का विषय हो सकता है कि व्यक्ति की सोच से समाज की सोच बनती है या समाज की सामूहिक राय व्यक्तिगत धारणा बनाती है लेकिन कठघरे में तो दोनों ही की पक्षपाती सोच है। क्या कोई लड़की खुद अपने बलात्कार के लिए अकेली जिम्मेदार है? ऐसा इसलिए पूछ रहा हूँ कि किसी भी बलात्कार के बाद थोड़ी सहानुभूति दिखलाने के तुरंत बाद कमेंट होता है -'वह थी ही ऐसी। कोई ऐसे कपड़े पहनता है भला?" या कहेंगे 'खूब हवा में उड़ती थी अब भुगतो।" अगर हम पीड़ित को जानते हैं तो कहेंगे-'बेचारी। उसे शाम को घर के बाहर निकलना ही न था। क्या जरूरत थी नौकरी करने की।" खूब दुख जताते हुए यहाँ तक कह देगें कि माँ-बाप की बात मान कॉलेज न जा कर शादी कर लेती तो यह न भोगना पड़ता। या यह निष्कर्ष हवा में उछाल देते हैं कि लड़कियों को तो पढ़ाना ही पाप है।
अब आप ही बताइये क्या यह हमारी पक्षपात और एकतरफा क्रर सोच नहीं है? लड़की का शारीरिक बलात्कार तो एक बार हुआ लेकिन मानसिक बलात्कार इस तरह पल-प्रतिपल होता है। ऐसी सहानुभूति दिखला कर हम उसका भला नहीं कर रहे होते बल्कि समूची स्त्री समाज की प्रगति में बाधा बन रहे होते हैं। एक साथ घटना घटी तो उसकी हमउम्र हजारों लड़कियों को घर में रहने की नसीहतों और दर्जनों पाबंदियों से गुजरना पड़ता है। क्या बलात्कार के लिए लड़की के कपड़ें या उसका काम के लिए घर से बाहर निकलना दोषी है? क्या वह निठल्ला आवारा दोषी नहीं है जो रात दिन कुत्सित विचारों के साथ जीता है? पहले मानस में और फिर शारीरिक तौर पर किसी मासूम को हवस का शिकार बनाता है? फिर घर में रहने या रखने की सलाह लड़कियों को ही क्यों दी जाती है? क्या ऐसे पुरूषों को खुले रहने का हक है? क्या हम अब भी रेप के लिए लड़की को ही दोष देंगे?
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