Monday, April 29, 2013
Saturday, April 20, 2013
बोल खुद के तो ठिकरा मीडिया पर क्यों फूटे?
अगर सवाल पूछा जाए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह, केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद, बेनी प्रसाद और रेणुका चौधरी, कांग्रेस नेता शकील अहमद, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार, मप्र के पूर्व मंत्री विजय शाह, आध्यात्मिक गुरु आसाराम में क्या समानता है तो जवाब मिलेगा कि इन सभी में विवादास्पद बयान देने की समानता है। विचारधारा और कार्यक्षेत्र भले ही अलग है लेकिन आचरण और नजरिया समान है। इनमें से अधिकांश अपने बयान पर विवाद उठ खड़ा होने के बाद मीडिया को दोष देते हैं और उसे तोड़-मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगाते हैं। क्या इतने ऊंचे स्थान तक पहुंच गए ये लोग अपरिपक्व हैं कि रिकार्डेड बयान को भी तोड़ा-मरोड़ा जा सके या बच निकलने के लिए मीडिया को दोष देने से बेहतर कोई गली नहीं?
कांग्रेस नेता शकील अहमद ने यह कहकर बवाल खड़ा कर दिया कि कर्नाटक में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दफ्तर के पास हुए बम विस्फोट से अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा को मदद मिलेगी। हालांकि कांग्रेस को तुरंत समझ आ गया कि बोल बवाल पैदा करेंगे सो कांग्रेस महासचिव जर्नादन द्विवेदी ने सफाई दी कि आतंकवाद की कोई भी घटना चिंता की बात है। देश के समक्ष यह एक चुनौती के समान है। इसे किसी तरह के राजनीतिक फायदे के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। कांग्रेस ने हालांकि अहमद के बयान से खुद को अलग बताया और कहा कि यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं, इसका पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है। आतंकी हमले, महिला पर अत्याचार, बढ़ते अपराध, भ्रष्टाचार जैसे मामलों में राजनीति नहीं होना चाहिए लेकिन अफसोस तो यही है कि हर जगह राजनीतिक फायदा ही देखा जाता है। हल्के बोल कह कर मुद्दों को कमजोर कर दिया जाता है। आपको याद हो जब केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे तब एक अन्य केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा था-‘केंद्रीय मंत्री के लिए 71 लाख बहुत छोटी राशि होती है। 71 करोड़ का आंकड़ा होता तो गंभीर मसला होता। सलमान 71 लाख के लिए कोई घपला नहीं कर सकते।’
कमोबेश यही हालत महिला हिंसा के मामले में भी है। हरियाणा में कांग्रेस नेता धर्मवीर गोयत कहते हैं कि हरियाणा में बलात्कार के 90 फीसदी मामलों में लड़कियों की मर्जी होती है। संघ प्रमुख मोहन भागवत बलात्कार को भारत और इंडिया में बांट कर देखते हैं। आध्यात्मिक गुरु आसाराम तो सलाह देते हैं कि बलात्कारियों के पैर पकड़ना चाहिए और गिड़गिड़ा कर दया याचना की जाना चाहिए।
हमारे नेतृत्वकतार्ओं के बयान व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोपों में तो और भी निम्न स्तर पर चले जाते हैं। मसलन, बाबा रामदेव के हमलों से परेशान केंद्रीय मंत्री रेणुका चौधरी कहती हैं -‘रामदेव पागल हो गए हैं। वो एकदम नोनसेंस हैं, जो ऐसा बयान देने में लगे हैं। रामदेव पहले अपनी शक्ल तो ठीक करें, फिर बोलें। ’ या बतौर प्रवक्ता दिया लुधियाना सांसद मनीष तिवारी का बयान जिसमें उन्होंने अण्णा हजारे पर खीज जाहिर करते हुए कहा था- ‘मैं किशन बाबू राव अण्णा हजारे से सवाल पूछता हूं कि जो खुद भ्रष्टाचार में सिर से पैर तक डूबा हुआ है वो कैसे किसी से सवाल कर सकता है। अण्णा हजारे फौज से भागे हुए हैं।’ याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि इस बयान के बाद प्रवक्ता पद से हटाए गए तिवारी कुछ ही समय बाद केंद्रीय मंत्री के रूप में ज्यादा ताकतवर बन कर लौटे। इसका क्या मतलब निकाला जाए?
अधिकांश नेता बयान देने के बाद बेशर्मों की तरह कह देते हैं कि मीडिया ने गलत मतलब निकाला। वे यह भूल जाते हैं कि उनके बोल रिकार्ड किए गए हैं। लगभग हर विवादास्पद बयान के बाद पार्टियां उसे नेता की व्यक्तिगत राय बताते हुए खुद को अलग कर लेती हैं लेकिन क्या हम नहीं जानते कि यह व्यक्तिगत राय ही सामुहिक राय में परिवर्तित हो जाती है। अफसोस तो यही है कि हमारे नेताओं की ऐसी व्यक्तिगत सोच है। जब नेतृत्व ऐसी सोच रखेगा तो क्रियान्वयन भी तो ऐसी ही सोच का होगा। यहां अब कितने अलगू चौधरी रह गए हैं जो निर्णय का वक्त आने पर पंच परमेश्वर हो जाते हैं? यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन जुमलों पर ठहाके लगते हैं वे दिल भी तोड़ते हैं और महाभारत भी रचते हैं। बेहतर है कि नेता विजय शाह जैसे मामलों से सबक लें और अव्वल तो बदजुबानी से बचें। अगर नेताओं की आदत ही ऐसी हो ही जाएं तो उन्हें माकूल जवाब भी मिले। 66 साल के लोकतंत्र से ऐसी उम्मीद तो की जा सकती है।
Monday, April 15, 2013
क्या आप अपने नेताओं को सुन रहे हैं ?
कोई सोच भी नहीं सकता है कि चुनावी सभा में दिया गया कोई भाषण किसी नेता को इतना भारी पड़ेगा और उसकी विधायकी जाती रहेगी। ऐसा अचरज पैदा करने वाला कार्य पिछले हफ्ते हुआ जब इंदौर हाईकोर्ट ने रतलाम विधायक पारस सकलेचा का निर्वाचन रद्द कर दिया क्योंकि सकलेचा अपने प्रतिद्वंद्वी हिम्मत कोठारी पर लगाए भ्रष्टाचार के आरोप साबित नहीं कर पाए। सकलेचा ने ये आरोप एक चुनावी सभा में लगाए थे। ये एक फैसला नजीर है जो बोलने पर नेताओं की जिम्मेदारी तय करता है। कोर्ट ने करीब चार साल लंबी जिरह के बाद ही सही फैसला तो दिया, सवाल तो जनता की अदालत से है जो नेताओं को रोज बोलते सुन रही है। क्या वह कभी कुछ भी बोलने को अपना अधिकार समझने वाले नेताओं को अपना फैसला सुनाएगी?
कभी कोई नेता किसी सार्वजनिक सभा में किसी महिला अफसर की सुंदरता के गुणगान करने लगता है तो कभी कोई नेता किसी समुदाय विशेष के खिलाफ जहर उगलता है। कुछ बोल पर ठहाके लगते हैं तो कुछ पर तलवारें निकल आती है। जानें चली जाती हैं। कहने वाले इसे राजनीति कहते हैं। साम-दाम-दंड-भेद का पालन कर किसी तरह अपना मतलब निकालने का नाम ही राजनीति नहीं है। शब्दार्थ में राज करने की नीति को राजनीति कहा जाता है। वैदिक काल से लेकर आज तक देख लीजिए अपने शासन को नीतिपूर्वक चलाने वाले शासक भी हुए हैं और राज के लिए नीतियों का चौपट करने वाले शासक भी। तब भी जनता सब देखती-समझती थी। आज भी जनता सब देखती-समझती है। अंतर इतना है कि तब शासक मजबूरी था और आज हमारा अपना चुनाव। तो फिर अगर शासन में अनीति है तो उसके दोषी हम हुए क्योंकि हमने कभी राजनीति को गंभीरता से लिया ही नहीं। तभी तो नेता ऐसे बोल बोलते हैं और जनता ठहाके लगा कर चुप रह जाती है।
अमेरिका हास्य अभिनेता विली रोजर्स ने कहा था कि कैसा वक्त आ गया है जब हास्य अभिनेताओं को गंभीरता से लिया जाने लगा है और नेताओं को मजाक में। यह व्यंग्य जनता पर था। हिम्मत कोठारी ने अदालती लड़ाई लड़ी तो यह फैसला हुआ। हजारों मामलों में कोई अदालत के पास नहीं जाता तो फैसला नहीं हो पाता लेकिन जनता तो खुद पक्ष भी है और अदालत भी। उसकी अदालत में सुनवाई के लिए कौन अपील करे? जनता को खुद ही सोचना होगा। अपने नेताओं के बोलों को याद रखना होगा। वे कोई कॉमेडियन नहीं है जो हमें हंसाने के लिए रूप-स्वांग करें। असल में जो मसखरे से दिखते हैं वे नेता ज्यादा चालक होते हैं। वे जनता को बहला कर अपना घर भर रहे होते हैं। अच्छा लगता है जब अदालतें ऐसे फैसले देती हैं। कभी आप-हम भी तो अपने जागृत होने का परिचय दें। नहीं तो प्लेटो बरसों पहले कह गए थे कि राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का यह खामियाजा होगा कि घटिया लोग हम पर शासन करेंगे।
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