Monday, April 15, 2013

क्या आप अपने नेताओं को सुन रहे हैं ?


कोई सोच भी नहीं सकता है कि चुनावी सभा में दिया गया कोई भाषण किसी नेता को इतना भारी पड़ेगा और उसकी विधायकी जाती रहेगी। ऐसा अचरज पैदा करने वाला कार्य पिछले हफ्ते हुआ जब इंदौर हाईकोर्ट ने रतलाम विधायक पारस सकलेचा का निर्वाचन रद्द कर दिया क्योंकि सकलेचा अपने प्रतिद्वंद्वी हिम्मत कोठारी पर लगाए भ्रष्टाचार के आरोप साबित नहीं कर पाए। सकलेचा ने ये आरोप एक चुनावी सभा में लगाए थे। ये एक फैसला नजीर है जो बोलने पर नेताओं की जिम्मेदारी तय करता है। कोर्ट ने करीब चार साल लंबी जिरह के बाद ही सही फैसला तो दिया, सवाल तो जनता की अदालत से है जो नेताओं को रोज बोलते सुन रही है। क्या वह कभी कुछ भी बोलने को अपना अधिकार समझने  वाले नेताओं को अपना फैसला सुनाएगी?
कभी कोई नेता किसी सार्वजनिक सभा में किसी महिला अफसर की सुंदरता के गुणगान करने लगता है तो कभी कोई नेता किसी समुदाय विशेष के खिलाफ जहर उगलता है। कुछ बोल पर ठहाके लगते हैं तो कुछ पर तलवारें निकल आती है। जानें चली जाती हैं। कहने वाले इसे राजनीति कहते हैं। साम-दाम-दंड-भेद का पालन कर किसी तरह अपना मतलब निकालने का नाम ही राजनीति नहीं है। शब्दार्थ में राज करने की नीति को राजनीति कहा जाता है। वैदिक काल से लेकर आज तक देख लीजिए अपने शासन को नीतिपूर्वक चलाने वाले शासक भी हुए हैं और राज के लिए नीतियों का चौपट करने वाले शासक भी। तब भी जनता सब देखती-समझती थी। आज भी जनता सब देखती-समझती है। अंतर इतना है कि तब शासक  मजबूरी था और आज हमारा अपना चुनाव। तो फिर अगर शासन में अनीति है तो उसके दोषी हम हुए क्योंकि हमने कभी राजनीति को गंभीरता से लिया ही नहीं। तभी तो नेता ऐसे बोल बोलते हैं और जनता ठहाके लगा कर चुप रह जाती है। 
अमेरिका हास्य अभिनेता विली रोजर्स ने कहा था कि कैसा वक्त आ गया है जब हास्य अभिनेताओं को गंभीरता से लिया जाने लगा है और नेताओं को मजाक में। यह व्यंग्य जनता पर था। हिम्मत कोठारी ने अदालती लड़ाई लड़ी तो यह फैसला हुआ। हजारों मामलों में कोई अदालत के पास नहीं जाता तो फैसला नहीं हो पाता लेकिन जनता तो खुद पक्ष भी है और अदालत भी। उसकी अदालत में सुनवाई के लिए कौन अपील करे? जनता को खुद ही सोचना होगा। अपने नेताओं के बोलों को याद रखना होगा। वे कोई कॉमेडियन नहीं है जो हमें हंसाने के लिए रूप-स्वांग करें। असल में जो मसखरे से दिखते हैं वे नेता ज्यादा चालक होते हैं। वे जनता को बहला कर अपना घर भर रहे होते हैं। अच्छा लगता है जब अदालतें ऐसे फैसले देती हैं। कभी आप-हम भी तो अपने जागृत होने का परिचय दें। नहीं तो प्लेटो बरसों पहले कह गए थे कि राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का यह खामियाजा होगा कि घटिया लोग हम पर शासन करेंगे। 

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