क्या हम मूलत: अवसरवादी लोग हैं? ताकतवरों के सामने कायर और कमजोरों के सामने शेर? क्या हम सिर्फ सत्ता को पूजना जानते हैं? क्या समाज के अहम् के आगे व्यक्ति का स्वाभिमान कोई मायने नहीं रखता? ये सब सवाल इसलिए, क्योंकि आज चाहे देश या राज्य पर शासन की हो या समाज में अधिकार ध्रुवीकरण करना मजबूरी नहीं सुविधा हो गया है।
खबर है कि मंडला जिले की एक महिला को इसलिए जाति के बाहर कर दिया गया क्योंकि वह अपने से छोटी जाति के लोगों से पिट गई थी! सवाल यह है कि क्या एक निजी झगड़े से सामुदायिक अहम् को इतनी ठेस लगती है कि परिवार को जाति से बाहर कर देने जैसे कार्रवाई अनिवार्य हो गई? इससे भी बड़ा अचरज यह है कि समाज कह रहा है कि यह बहिष्कार सामूहिक भोज के बाद ही खत्म होगा यानि पहले से ही महंगाई की मार झेल रहे परिवार पर बड़े भोज की मार पड़ेगी। किसी से प्रेम विवाह कर लेने या किसी अन्य समाज के व्यक्ति से मारपीट कैसे पूरे समाज के प्रतिष्ठा का प्रश्न हो सकता है? यह तो व्यक्तिगत मामला है लेकिन हकीकत यह है कि कमजोरों का व्यक्तिगत हित जब ताकतवरों के निजी स्वार्थ से टकराता है तो यह व्यक्तिगत मामला समाज की नाक का सवाल बन जाता है।
जाति से बाहर करना और हुक्का-पानी बंद कर प्रताड़ित करना तथा फिर समाज मे वापसी के लिए तगड़ा आर्थिक जुर्माना और सामूहिक भोज करवाने की कुप्रथा कई समाजों में सदियों से जारी है। कोई व्यक्ति चाहे जितना उन्नत हो जाए लेकिन जब वह समाज के प्रतिनिधि की भूमिका में आता है तो उसकी सोच आधुनिक से कई कदम पीछे पुरातनपंथी हो जाती है। समाज के पंच बन कर बैठे लोग सदियों पुरानी नीतियों की बेड़ियों को काटना नहीं चाहते क्योंकि इन्हीं के भरोसे उनका वर्चस्व कायम है। ऐसे ही कट्टरता काबिज होती है। आप देखिएगा, विचार विमर्श के दौरान भी ज्यों ही धर्म, जाति या समाज की किसी रूढ़ी का जिक्र होगा, आधुनिक विचार रखने वाले लोग भी अचानक सख्त हो जाएंगे और कट्टरता का आवरण ओढ़ लेते हैं।
अफसोस है कि 21 वीं सदी में पहुंचा विज्ञान और हाईटेक हुई राजनीति भी इस कुपरंपरा को खत्म नहीं कर पाई है। चुनाव करीब है और जातीय समीकरणों को साधने की राजनीति एकबार फिर सारे सरोकारों और जिम्मेदारियों पर भारी पड़ेगी। असल में राजनीति कभी नहीं चाहेगी कि समाज में जातियों को वर्चस्व और भेदभव कभी खत्म हो। देश को जातियों में तोड़ कर और फिर जातियों को ताकतवरों और कमजोरों में बांट कर राज करने की नीति ही सिद्ध नीति मानी गई है। सभी जानते हैं कि हमारे राजनेता वोट भले विकास के नाम पर मांगें लेकिन टिकट वितरण का बड़ा आधार जाति समीकरण होता है और जब तक यह निर्धारक रहेगा समाज में राजनीतिक बराबरी की उम्मीद करना व्यर्थ होगी।
ऐसे समय लोहिया बहुत याद आते हैं। जब तक जाति प्रथा बनी रहेगी, हम आगे नहीं बढ पाऍंगे। आगे बढना तो दूर रहा, मनुष्य भी नहीं बन पाऍंगे।
ReplyDeleteआपसे असहमत होने की कोई गुंजाइश नहीं है। वस्तुत: आपने तो मेरी ही पीडा सार्वजनिक की है।