Friday, May 24, 2013

सैयां के ‘बेलगाम’ कोतवाल बनने से डर लगता है जी

एक बड़ी प्रचलित कहावत है कि सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का। ये कहावत इनदिनों बहुत याद आ रही है खास कर तब जब भांजा अपने मामा के कोतवाल (रेलमंत्री) बनने पर ऐसा निडर हुआ कि मामा की कुर्सी ही खा गया। शनिवार को एक खबर मिली कि सीबीआई मुख्यालय के बाहर एक सीबीआई अधिकारी सात लाख की रिश्वत लेते पकड़ा गया। ऐसे बेलगाम कोतवाल सैंया और उसके निडर परिजनों के कृत्य डराते हैं।
यह डर तब और भारी हो जाता है जब सीबीआई की स्वायत्ता की बात होती है और उसे पूरी आजादी देने की मांग की जाती है। यहां कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की यह बात याद आती है कि हम सीबीआई अधिकारी जो एक इंस्पेक्टर या उप पुलिस अधीक्षक को पूरी स्वायत्ता देना चाहते हैं, लेकिन उन्हें किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं बनाना चाहते हैं। सारी समस्या यहीं है। अंग्रेजी इतिहासकार लार्ड एक्शन ने कहा था- ‘पॉवर करप्टस एंड एब्स्योलूट पॉवर करप्टस एब्स्योल्यूटली’। यानि ताकत भ्रष्ट बनाती है और असीमित ताकत असीमित रूप से भ्रष्ट बनाती है। असल में जब भ्रष्टाचार की बात आती है तो पूरी उम्मीदें अंतत: व्यक्तिगत शुचिता और मूल्यों पर आकर टिक जाती है अन्यथा तो पूरा माहौल आदमी को भ्रष्ट बनाने पर आमादा है। तमाम शोध और दृष्टिकोण बताते हैं कि ताकत मिलने के बाद व्यक्ति भ्रष्ट होता है। यही वजह है कि अपने पक्ष में निर्णय करवाने के लिए किसी भी हद तक भ्रष्टाचार किया जा सकता है। तो क्या सीबीआई जैसी ताकतवर जांच संस्था को पूरी स्वायत्ता देने के विरोध के  पीछे ये डर काम नहीं कर रहा है? जो सरकार अभी सीबीआई का प्रयोग अपने हित में करती है वह इसलिए भी डर रही है कि कहीं सीबीआई स्वायत्त हो गई तो निरंकुश हो जाएगी जैसे पाकिस्तान में सेना है जो सरकार की नहीं सुनती।
यही डर लोकपाल की नियुक्ति में भी है और भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए बनने वाले हर ताकतवर संस्थान से भी है, क्योंकि अपनी गलती छिपाने के लिए इन संस्थानों में और बड़े भ्रष्टाचार की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता है। तो फिर, इसका समाधान क्या? बार-बार समाधान संविधान में ही नजर आता है। अगर लोकतंत्र के चारों स्तंभों में से एक ज्यादा ताकतवर और अधिकार संपन्न होगा तो लोकतंत्र लड़खड़ा जाएगा। लोकतंत्र की बेहतरी के लिए जरूरी है कि चारों स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया स्वतंत्र भी रहें और एक-दूसरे पर एक-दूसरे की निगाह भी रहे। तभी जवाबदेही भी तय होगी और कार्य भी। वरना अभी की तरह होगा कि कहीं नेताओं पर अधिकारी भारी हैं तो कहीं प्रशासन नेताओं को पिछलग्गू है। न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका से असंतुष्टि है तो ये दोनों न्यायपालिका की टिप्पणियों से हैरान-परेशान।
                

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