Thursday, May 9, 2013

शुक्र है, कला समय ने याद किया सतपुड़ा के घने जंगल वाले भवानी भाई को


'ये सच है कि प्रतिस्मृति उतरती धूप की तरह होती है। जब धूप ठीक सिर के ऊपर ठीक सिर के ऊपर होती है, तब परछाई नजर नहीं आती लेकिन उसक ढलते ही परछाई दीखती है। फिर ये साये वास्तविक कद से और लंबे होते चले जाते हैं। जब तक कोई साक्षात् रहता है, अनुभव की आवृत्ति छोटी होती है, उसमें स्मृतियों का बनना बिगड़ना जारी रहता है लेकिन जैसे ही साक्षात् अदृश्य होता है तब स्मृतियां बार-बार उभरती हैं, अपना घेरा बड़ा करती हैं और मन के किसी कोने में अपना स्थाई बसेरा बना लेती हैं। भवानी प्रसाद मिश्र की स्मृतियां भी कुछ ऐसी ही हैं।' 
मंझले भईया, मन्ना और दादा नाम के संबोधन से लोकप्रिय कवि भवानी प्रसाद मिश्र को याद करते हुए यह टिप्पणी कला समीक्षक विनय उपाध्याय ने कला पत्रिका ‘कला समय’ के ताजा अंक के अपने संपादकीय में की है। जी हां,  ‘राग-भवानी’ शीर्षक से प्रस्तुत यह अंक भवानी दादा के सौ वें जन्मवर्ष के विशिष्ट मौके पर आदरांजलि है।  कई लोग सवाल कर सकते हैं कि भवानी दादा कौन हैं? यह सवाल इसीलिए उपजेगा कि कला समय के अलावा किसी सरकारी-गैर सरकारी संस्थान को इतनी फुर्सत ही नहीं मिली कि वे अपने भवानी दादा को याद करें! सारी साहित्यिक पत्रिकाएं भी इस मामले में पिछड़ गई। ये जिम्मा साहित्यकारों, उनकी संस्थाओं और संस्कृति विभाग का होता है कि वे नई पीढ़ी को भवानी दादा जैसै महापुरूषों के कृतित्व और व्यक्तित्व से रूबरू करवाए। इसलिए जब घर आए एक युवा आगंतुक ने पूछा कि राग भवानी क्या और  तो मैंने प्रतिप्रश्न किया-स्कूल में कभी सतपुड़ा के घने जंगल कविता पढ़ी है? तपाक से जवाब मिला- हां। मैंने कहा कि वह इन्हीं भवानी दादा ने लिखी है। वह यह जानकर हतप्रभ रह गया कि वह भवानी प्रसाद मिश्र ही थे जिन्होंने लिखा था-
"जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख|"

वह बोला-इन पर एक  समारोह होना  चाहिए ताकि सभी को पता चल सके कि हमारी अपनी भाषा में कविता कैसे कही जाती है। कला समय की यही तो सफलता है कि जो बात प्रभाकर श्रोत्रिय, विजय बहादुर सिंह, राजेश जोशी, प्रेमशंकर रघुवंशी जैसे साहित्यकारों ने अपने दीर्घ अनुभवों से साझा की वह सीधा सा तथ्य वह युवक साथी आसानी से कह गया कि भवानी दादा से सीखा जाना चाहिए कि कविता कैसे कही जाती है। भवानी दादा ने ही लिखा था-कलम अपनी साध/और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध/यह कि तेरी-भर न हो तो कह/और बहते बने सादे ढंग से तो बह।  कला समय का धन्यवाद कि इस रूखे समय में भवानी भाई को इतनी शिद्दत से याद दिलवाया। वे भवानी प्रसाद मिश्र जिनके परिचय में कवि जगदीश गुप्त ने कहा था-
‘खुली बांहें,खुला ह्रदय/यही है भवानी भाई का परिचय।’

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