Monday, August 26, 2013

और लगेंगी पाबंदियां, कड़े होंगे पहरे

और नहीं बस अब और नहीं... ऐसा हमें कितनी बार कहना होगा और कितनी बार ऐसे ही चुप हर जाना होगा? यह सवाल केवल सरकार या प्रशासन से ही नहीं समाज से भी है। कुछ महीने पहले जब दिल्ली में निर्भया के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था, तो पूरा देश उबल पड़ा था। औरतों की सुरक्षा के सवाल पर हजारों युवा दिल्ली के राष्ट्रपति भवन के द्वार पर कई दिन तक जमे रहे थे। समाज में औरतों के दर्जे और पुरुषों की मानसिकता पर भी बहुत सारी बहसें चली थीं। ऐसे कानून बनाने की मांग भी उठी थी, जिससे बलात्कार के दोषियों को कड़ी सजा दी जा सके। लेकिन हुआ क्या? ऐसे मामलों की बाढ़ आ गई जैसे। हर तरफ से ऐसी ही मामलों की सूचनाएं। कहीं बेटियां घर में शिकार हुई तो कही सड़क पर भद्दी टिप्पणियों ने शर्मसार किया।
महिलाओं के साथ हिंसा और उत्पीड़न पुलिस के रोजनामचे में दर्ज होने वाले सामान्य अपराध से अलग है। यह सामाजिक पतन का गवाह है। पिछले  दो दिन की खबरों पर ही गौर करिए। उत्तरी दिल्ली के कांझावाला में घर में 15 वर्षीय लड़की के साथ उसका 55 वर्षीय पिता दुष्कर्म करता रहा।  पति-पत्नी का तलाक हो चुका है और बेटी पिता के साथ रहती थी। दूसरी घटना मुंबई कि जहां शुक्रवार देर शाम एक महिला पर हमला किया गया। वह महिला लोकल से जा रही थी तभी कुछ बदमाशों ने महिला पर तेजाब फेंकने  की धमकी दी। साफ है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए सिर्फ कानून पर्याप्त नहीं है। यह ठीक है कि मुंबई पुलिस ने मुस्तैदी दिखाते हुए एक अपराधी को कुछ घंटे के भीतर ही पकड़ लिया, लेकिन सवाल है कि शाम छह-सात बजे जब वहशी ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं तब वह कहां होती है? क्या ऐसे मामलों में समाज मूक दर्शक ही बना रहेगा या पुलिस की तरह घटना के बाद पहुंच कर विरोध ही जताता रहेगा? जब सड़क पर या स्टेशन पर किसी महिला का अपमान होता है तब वहां खड़े लोग तमाशबीन क्यों बने रहते हैं? उसी समय विरोध और प्रतिकार का साहस कहां गया?
बलात्कार की घटनाओं को लेकर सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी जैसे तर्क बेमानी लगते हैं। असल में ऐसी घटनाओं के लिए पुरुषों की वह मानसिकता भी जिम्मेदार है, जो महिलाओं को न तो उनकी पारंपरिक घरेलू भूमिका से बाहर निकलते देखना चाहती है और न ही उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता को स्वीकार कर पा रही है। ऐसी घटनाओं का बुरा परिणाम यह होगा कि अन्य लड़कियों पर परिवार द्वारा तमाम तरह की पाबंदियां लाद दी जाएंगी। जैसे, अकेले घर से जाओ, शाम को मत निकलो, नौकरी मत करो, कॉलेज मत जाओ आदि। ऐसा हो भी रहा है। दिल्ली के निर्भया बलात्कार कांड के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई थीं, उसी तरह की प्रतिक्रियाएं मुंबई की घटना के बाद भी आने लगी हैं। यह पूछा जा रहा हैं कि सांझ ढलने के बाद उस सुनसान इलाके में वह लड़की गई ही क्यों थी? घटना के बाद सोशल मीडिया हो या अनौपचारिक बातचीत माता-पिताओं ने बेटी की सुरक्षा को लेकर डर जाहिर करते हुए तमाम तरह के प्रतिबंध की पैरवी की। यह प्रतिबंध प्यार से लागू किए जाएं या डरा कर लेकिन वास्तविक रूप में उसी पुरूषवादी सोच को बढ़ावा देंगी कि महिलाओं को घर के काम करने चाहिए। वह पढ़े क्यों और बाहर काम करने क्यों निकले? काम करने के लिए पुरूष है। हालांकि बलात्कार के आंकड़े और  घटनाएं कुछ और ही कहानी कहती हैं। आंकड़े बताते हैं कि सुनसान जगहों पर ही नहीं, बेटी हो या प्रौढ़ महिलाएं, वे अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। दुष्कर्म ज्यादातर घरों में होता है और अपराधी कोई रिश्तेदार या परिचित होता है। दरअसल, औरतों के साथ शारीरिक हिंसा और यौन उत्पीड़न के पीछे जो मानसिकता काम करती है, वह किसी सुनसान जगह या अवसर की तलाश में नहीं रहती। वह मानसिकता तो सरेराह, सभी के बीच महिलाओं को प्रताड़ित करती है। उसके निजत्व पर कब्जा जमा कर गुलाम बनाए रखने में यकीन करती है। हमें यह मानना होगा कि यह हमारे ही समाज की एक विकृति है और जब तक हम इसे दुरूस्त नहीं कर लेते आगे बढ़ती पत्नी, बहन या सहकर्मी तथा एक तरफा प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार करती युवती पर हमले होते रहेंगे। यह सच स्वीकार नहीं कर लेते, तब तक हम इससे मुक्ति का रास्ता भी खोज नहीं पाएंगे। समाज को इस मानसिकता से मुक्त करवाना केवल कानून व्यवस्था का मामला नहीं है। सजग व तत्पर पुलिस और सख्त कानून दोनों बहुत आवश्यक हैं लेकिन हमें पूरे समाज की सोच को बदलने की मुहिम भी छेड़ना होगी। यह दोतरफा लड़ाई है। इसके कानूनी पक्ष को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों का निपटारा जल्दी हो। दूसरी तरफ, सामाजिक सुधारों के प्रति हमारा आग्रह ज्यादा प्रबल हो। यह हमारे समाज की विडंबना है कि 21 वीं सदी में भी नरेंद्र दाभोलकर को अंध विश्वास का विरोध करने के लिए जान गंवानी पड़ती है और महिलाओं को कुछ कुत्सित सोच वाले पुरूषों के कारण चार दीवारों में कैद होना पड़ता है। एक बार फिर उम्मीद युवाओं से ही है। वे ही इस मामले में ऐसी पहल कर सकते हैं जिसके कारण राजनीति हो या प्रशासन या समाज सभी को अपना रूख बदलना पड़े।

No comments:

Post a Comment