Tuesday, October 8, 2013

नैना जैसे मामलों में देरी से मिला न्याय भी अन्याय जैसा

आखिरकार, नैना साहनी के हत्यारे सुशील शर्मा को सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी के बदले उम्र कैद की सजा सुना ही दी। सुशील ने जुलाई, 1995 में अवैध संबंधों के शक में नैना की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इसके बाद उसने नैना के शव को दिल्ली के एक रेस्तरां में तंदूर में जलाने की कोशिश की थी। इस दौरान मामला खुल गया और पुलिस ने तंदूर से नैना का अधजला शव बरामद किया था। रेस्तरां मैनेजर केशव कुमार को मौके पर ही गिरफ्तार कर लिया गया था, जबकि शर्मा की गिरफ्तारी कुछ दिन बाद हुई थी। सत्र अदालत और दिल्ली हाई कोर्ट ने शर्मा को मौत की सजा सुनाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 7 मई, 2007 को शर्मा की अपील विचारार्थ स्वीकार करते हुए उसकी सजा पर अंतरिम रोक लगा दी थी। शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट से मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने की गुहार लगाई थी। बहस के दौरान शर्मा की सजा उम्रकैद में बदलने की गुहार लगाते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता जसपाल सिंह ने दलील दी थी कि यह मामला दुर्लभतम अपराध (रेयरेस्ट आॅफ रेयर) की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए शर्मा को मौत की सजा देना न्याय संगत नहीं है। उनका कहना था कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है इसलिए इसमें मौत की सजा नहीं दी जा सकती। युवा कांग्रेस के पूर्व नेता सुशील शर्मा को साल 2007 में दिल्ली हाईकोर्ट ने फांसी की सजा सुनाते समय कहा था कि सुशील शर्मा का गुनाह माफ करने लायक नहीं है। रहम की कोई गुंजाइश भी नहीं है, ऐसे गुनाहगारों के लिए एक ही सजा है, सजा-ए-मौत। कोर्ट ने कहा कि सबूतों और गवाहों से ये साबित होता है कि सुशील शर्मा ने ही नैना साहनी की हत्या की और फिर उसकी लाश को तंदूर में जलाने की कोशिश की। कोर्ट का यह कहना सही है कि इस तरह का घृणित अपराध करने वाले अपराधी के सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं है। लोग दिल दहलाने वाले इस हत्याकांड को अब तक भूले नहीं होंगे लेकिन साल-दर-साल जख्मों पर वक्त की परत चढ़ती गई। नैना के दोषी को फांसी मिले या उम्रकैद इसका फैसला करने में 18 वर्षों का समय लग गया। निश्चित रूप से एक बार फिर यह बात पुख्ता होगी कि देर से मिला न्याय भी अन्याय के समान है और यह मांग बलवती होगी कि न्यायिक प्रक्रिया को शीघ्र पूरा करने में आने वाली बाधाओं को दूर किया जाना  चाहिए। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय न्याय प्रक्रिया में देरी पर सवाल उठा चुका है। न्यायालय कई बार सरकार को बता चुका है कि कोर्ट के सामने मुकदमों की जो स्थिति है उसको देखते हुए त्वरित न्याय की उम्मीद करना व्यर्थ है लेकिन इस दिशा में उठाए गए कदम नाकाफी है। देरी से मिला न्याय जहां पीड़ित पक्ष के लिए पीड़ादायक होता है वहीं समाज में भी इसका सही संदेश नहीं जा पाता और अपराधियों के हौंसले बुलंद होते हैं। दिल्ली गैंगरेप के बाद ऐसे मामलों में शीघ्र न्याय की चाह बढ़ी है ताकि आरोपी पक्ष गवाह और पीड़ित पक्ष पर दबाव बना कर केस को कमजोर न कर सके। यह तभी संभव होगा जब त्वरित न्याय के मार्ग की सारी बाधाएं दूर की जाएंगी।

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