आम आदमी पार्टी के मुखिया से दिल्ली के मुख्यमंत्री बने अरविंद केजरीवाल
ने आखिरकार अपनी सरकार का विश्वास जीत लिया। साल 2014 का दूसरा ही दिन इस
ऐतिहासिक पल का गवाह बना जब एक साल पुरानी पार्टी का मुखिया देश का दिल कही
जाने वाली दिल्ली का शासक बना। वह दिल्ली जो बहादुर शाह जफर की दिल्ली कही
जाती है। ‘आप’ का उदय और ‘आप’ का बहुमत साबित करना कई मायनों में ऐतिहासिक
है। इस सफलता को बहुत सतही शब्दों में कहा जाए तो ‘आप’ की यह सफलता
कांग्रेस सरकार के कामकाज से नाराजी का परिणाम है। ईमानदारी के पक्ष में
टीम केजरीवाल के काम और कहे पर लोगों ने भरोसा जताया। यह बहुत बड़ा
विरोधाभास है कि जिस कांग्रेस की सरकार को कोस कर केजरीवाल ने वोट हासिल
किए, वही कांग्रेस विश्वास मत हासिल करने में ‘आप’ की सीढ़ी बनी।
शपथ के पहले 48 घंटों में केजरीवाल ने उन सारे वादों को पूरा कर दिया जिनके बल पर वे सरकार में आए थे। इसके पीछे यह उद्देश्य भी था कि अगर सदन में विश्वास मत हासिल न हो तो कम से कम यह तो कहा जा सके कि हमारा मंतव्य था, कांग्रेस ने वादा खिलाफी की। अब सरकार भरोसा जीत चुकी है तो उसके पास काम करने के छह माह हैं। इन छह माह में उसके खिलाफ सदन में अविश्वास प्रस्ताव नहीं आ सकता। यही छह माह अब सदन के बाद अपने विश्वास मत को साबित करने का सुनहरा अवसर और सबसे बड़ी चुनौती है। चुनौती यह भी कि लोकलुभावन बातें करना आसान हैं और उनको यर्थाथ में पूरा करना अलग बात है। कांग्रेस ने शायद यही सोच कर ‘आप’ को समर्थन भी दिया है कि बाहर रह कर बहुत विरोध किया, अब सरकार चला कर दिखाओ। इस लिहाज से वही कांग्रेस ‘आप’ की सबसे बड़ी चुनौती है जो सदन में उसके साथ बैठी है।
जनता के समर्थन के बाद मेट्रो यात्रा, लालबत्ती का तिरस्कार, मुफ्त पानी और सस्ती बिजली, मीटरों और खातों की जांच माहौल ‘आप’ के पक्ष में था। अब तो उसके साथ सदन में विश्वास भी है। अब सवाल यह है कि इस विश्वास मत के बाद अब आगे क्या? असल में दिल्ली की ‘आप’ की सरकार एक फिल्मी प्रेम कहानी के त्रिकोण की तरह है। यहां ‘सत्ता’(पॉवर) अगर प्रेमिका है तो ‘आप’ अपने उद्देश्यों और अपने वादों को साबित करने के लिए उसे पाना चाहती थी। भाजपा वह प्रेमी है जिसके हाथ प्रेमिका के पास पहुंच कर भी रीते हैं। वह विपक्ष में है और उसके दुश्मन कांग्रेस ने विरोधी से हाथ मिला कर सत्ता रूपी प्रेमिका तक उसके पहुंचने की राह रोक दी। कांग्रेस,‘आप’ और भाजपा के इस प्रेम त्रिकोण के कई कोण है। यहां पर्याप्त ईर्ष्या भी है और अबूझ सा नाता भी जिसके कारण कांग्रेस उस पार्टी का साथ दे रही है जिसका हाथ उसकी पराजय का सबब बना। ‘आप’ की ओर से बार-बार कहा गया कि हम सरकार बनाने के इच्छुक नहीं हैं। हमने किसी से समर्थन नहीं मांगा। जनता ने सरकार बनाने का आदेश दिया। हम अपना काम कर रहे हैं। विश्वासमत पर बहस के दौरान भाजपा विधायक दल के नेता हर्षवर्धन ने ‘आप’ के पहले दोनों फैसलों की आलोचना के साथ-साथ पार्टी की फंडिंग और दूसरे मसले भी उठाए। यह भाजपा की नाराजी की पहली अभिव्यक्ति थी। साफ जाहिर होता है कि अब तक चुप रही भाजपा अब तीखी प्रतिक्रिया देने से नहीं चुकेगी। यानि कि जन आशीर्वाद के नाम पर ‘आप’ का सम्मान विराम लेगा और ताकतवर विपक्ष खुल कर सत्ताधारी ‘आप’ पर हमले करेगा।
इस प्रेम तिकोण में कांग्रेस तीसरा और सबसे कमजोर पक्ष है। वह सत्ता से सबसे दूर होनी था लेकिन वही सत्ता पाने का जरिया बनी। कांग्रेस ने ‘आप’ सरकार को समर्थन देने का फैसला जिस इरादे से किया था, वह पूरा नहीं हुआ। बल्कि पार्टी ने खुद को फंसा लिया है। वह सोच रही थी कि ‘आप’ की अनुभवहीनता उसके लिए लाभदायक होगा लेकिन केजरीवाल सरकार ने जिस तेजी से शुरूआती फैसले किए हैं, उसके निहितार्थ को भी समझना चाहिए। ये फैसले विश्वासमत हासिल करने के बाद भी किए जा सकते थे। विश्वास मत गुरुवार को था, पर अरविंद केजरीवाल ने मंगलवार को कहा कि मेरे पास केवल 48 घंटे का समय है क्योंकि कांग्रेस को लेकर चल रही अटकलों के कारण उनके मन में संदेह उपज चुका था। लिहाजा, कांग्रेस के पास पलटने का कोई मौका नहीं था। ‘आप’ को प्रचलित राजनीति नहीं आती, मगर उसने सबसे शातिर राजनीति का पैंतरा चला है। असल में ‘आप’ दिल्ली के बहाने दिल्ली (संसद) तक पहुंचना चाहती है। इसलिए अगले छह माह वह जनता के भरोसे पर खरा उतरने के लिए पूरे प्रयत्न करेगी। सबसे बड़ी बात यह है कि उसकी नकल के तौर पर ही सही लेकिन अन्य दलों को भी अपने कामकाज का तौर तरीका बदलना होगा। ‘आप’ की सफलता इसमें भी है कि वह देश की राजनीति की चाल बदल रही है। उसकी चुनौतियां अपनी जगह है लेकिन इससे अन्य दलों की चुनौतियां खत्म नहीं हो जाती।
शपथ के पहले 48 घंटों में केजरीवाल ने उन सारे वादों को पूरा कर दिया जिनके बल पर वे सरकार में आए थे। इसके पीछे यह उद्देश्य भी था कि अगर सदन में विश्वास मत हासिल न हो तो कम से कम यह तो कहा जा सके कि हमारा मंतव्य था, कांग्रेस ने वादा खिलाफी की। अब सरकार भरोसा जीत चुकी है तो उसके पास काम करने के छह माह हैं। इन छह माह में उसके खिलाफ सदन में अविश्वास प्रस्ताव नहीं आ सकता। यही छह माह अब सदन के बाद अपने विश्वास मत को साबित करने का सुनहरा अवसर और सबसे बड़ी चुनौती है। चुनौती यह भी कि लोकलुभावन बातें करना आसान हैं और उनको यर्थाथ में पूरा करना अलग बात है। कांग्रेस ने शायद यही सोच कर ‘आप’ को समर्थन भी दिया है कि बाहर रह कर बहुत विरोध किया, अब सरकार चला कर दिखाओ। इस लिहाज से वही कांग्रेस ‘आप’ की सबसे बड़ी चुनौती है जो सदन में उसके साथ बैठी है।
जनता के समर्थन के बाद मेट्रो यात्रा, लालबत्ती का तिरस्कार, मुफ्त पानी और सस्ती बिजली, मीटरों और खातों की जांच माहौल ‘आप’ के पक्ष में था। अब तो उसके साथ सदन में विश्वास भी है। अब सवाल यह है कि इस विश्वास मत के बाद अब आगे क्या? असल में दिल्ली की ‘आप’ की सरकार एक फिल्मी प्रेम कहानी के त्रिकोण की तरह है। यहां ‘सत्ता’(पॉवर) अगर प्रेमिका है तो ‘आप’ अपने उद्देश्यों और अपने वादों को साबित करने के लिए उसे पाना चाहती थी। भाजपा वह प्रेमी है जिसके हाथ प्रेमिका के पास पहुंच कर भी रीते हैं। वह विपक्ष में है और उसके दुश्मन कांग्रेस ने विरोधी से हाथ मिला कर सत्ता रूपी प्रेमिका तक उसके पहुंचने की राह रोक दी। कांग्रेस,‘आप’ और भाजपा के इस प्रेम त्रिकोण के कई कोण है। यहां पर्याप्त ईर्ष्या भी है और अबूझ सा नाता भी जिसके कारण कांग्रेस उस पार्टी का साथ दे रही है जिसका हाथ उसकी पराजय का सबब बना। ‘आप’ की ओर से बार-बार कहा गया कि हम सरकार बनाने के इच्छुक नहीं हैं। हमने किसी से समर्थन नहीं मांगा। जनता ने सरकार बनाने का आदेश दिया। हम अपना काम कर रहे हैं। विश्वासमत पर बहस के दौरान भाजपा विधायक दल के नेता हर्षवर्धन ने ‘आप’ के पहले दोनों फैसलों की आलोचना के साथ-साथ पार्टी की फंडिंग और दूसरे मसले भी उठाए। यह भाजपा की नाराजी की पहली अभिव्यक्ति थी। साफ जाहिर होता है कि अब तक चुप रही भाजपा अब तीखी प्रतिक्रिया देने से नहीं चुकेगी। यानि कि जन आशीर्वाद के नाम पर ‘आप’ का सम्मान विराम लेगा और ताकतवर विपक्ष खुल कर सत्ताधारी ‘आप’ पर हमले करेगा।
इस प्रेम तिकोण में कांग्रेस तीसरा और सबसे कमजोर पक्ष है। वह सत्ता से सबसे दूर होनी था लेकिन वही सत्ता पाने का जरिया बनी। कांग्रेस ने ‘आप’ सरकार को समर्थन देने का फैसला जिस इरादे से किया था, वह पूरा नहीं हुआ। बल्कि पार्टी ने खुद को फंसा लिया है। वह सोच रही थी कि ‘आप’ की अनुभवहीनता उसके लिए लाभदायक होगा लेकिन केजरीवाल सरकार ने जिस तेजी से शुरूआती फैसले किए हैं, उसके निहितार्थ को भी समझना चाहिए। ये फैसले विश्वासमत हासिल करने के बाद भी किए जा सकते थे। विश्वास मत गुरुवार को था, पर अरविंद केजरीवाल ने मंगलवार को कहा कि मेरे पास केवल 48 घंटे का समय है क्योंकि कांग्रेस को लेकर चल रही अटकलों के कारण उनके मन में संदेह उपज चुका था। लिहाजा, कांग्रेस के पास पलटने का कोई मौका नहीं था। ‘आप’ को प्रचलित राजनीति नहीं आती, मगर उसने सबसे शातिर राजनीति का पैंतरा चला है। असल में ‘आप’ दिल्ली के बहाने दिल्ली (संसद) तक पहुंचना चाहती है। इसलिए अगले छह माह वह जनता के भरोसे पर खरा उतरने के लिए पूरे प्रयत्न करेगी। सबसे बड़ी बात यह है कि उसकी नकल के तौर पर ही सही लेकिन अन्य दलों को भी अपने कामकाज का तौर तरीका बदलना होगा। ‘आप’ की सफलता इसमें भी है कि वह देश की राजनीति की चाल बदल रही है। उसकी चुनौतियां अपनी जगह है लेकिन इससे अन्य दलों की चुनौतियां खत्म नहीं हो जाती।
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