क्या यह प्रश्न अब उत्तर पाने को है कि क्या प्रियंका गांधी कांग्रेस की कमान संभाल रही है? विधानसभा चुनावों की करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस और कांग्रेस कार्यकर्ता ऐसी ही किसी ‘जड़ी’ की तलाश में है जो बूढ़ी हो चली पार्टी में युवकोचित सामर्थ्य का संचार कर दे। यह उम्मीद कुछ बरस पहले तक राहुल गांधी से की जा रही थी लेकिन राहुल गांधी ने डायलिसिस पर पड़ी कांग्रेस की संजीवनी का जो रास्ता चुना वह संगठनात्मक बदलाव की जटिलताओं से घिरा है। वैकल्पिक चिकित्सा की तरह इस बदलाव के परिणाम देर से दिखाई देंगे लेकिन कांग्रेस को तो ऐसा रसायन चाहिए जो तुरंत ही उसकी मूर्च्छा दूर कर सके। देश में नरेंद्र मोदी की लहर सी है।
अधिकांश कांग्रेसी पहले यह स्वीकार नहीं कर रहे थे लेकिन खुले तौर पर स्वीकारने लगे हैं कि मोदी एक मुद्दा है। अब तो दिल्ली में सत्ता संभाल रही ‘आप’ भी खतरा बन गई है। ऐसे में राहुल के नेतृत्व को क्या फिर से प्रियंका का साथ मिलेगा जैसा वे बहन होने के नाते उत्तर प्रदेश के चुनावों के दौरान देती रही हैं या वे और बड़ी भूमिका संभाल कर उन लाखों कांग्रेस कार्यकर्ताओं की उम्मीदों को पूरा करेंगी जो कांग्रेस के कर्ताधर्ताओं के तौर-तरीकों को देख कर त्रस्त हो चुके हैं? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रियंका के आने से कांग्रेस जी उठेगी या जनता चेहरे के करिश्मे की तुलना में योजनाओं और काम को महत्व देने वाली राजनीति का समर्थन करेगी? सवाल बड़े हैं और इनके जवाब खुद कांग्रेस के पहले गांधी परिवार को खोजना है।
कांग्रेस भले ही देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी हो। भले ही इसमें कितने ही गुणी और क्षमतावान नेता हों लेकिन कांग्रेस की शुरुआत तो गांधी-नेहरू परिवार से ही होती है। बाकी का नंबर इनके बाद आता है। यही कारण है कि पार्टी ने इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद पार्टी ने उनके बेटे राजीव गांधी की ओर देखा। जब राजीव गांधी नहीं रहे तो सोनिया गांधी, प्रियंका और राहुल गांधी की ओर टकटकी लगाई गई। कहते हैं सोनिया अपने पति को राजनीति में नहीं आने देना चाहती थी लेकिन ऐसा हो न सका। जब स्वयं की बारी आई तो सोनिया ने कांग्रेस की कमान तो संभाली लेकिन प्रधानमंत्री के पद से स्वयं को दूर ही रखा। तब प्रियंका की तुलना इंदिरा गांधी से की गई और उन पर दबाव बनाया कि वे कांग्रेस की पतवार थाम लें। यही कारण था कि 2004 में राहुल गांधी के चुनावी राजनीति में प्रवेश से भी पहले प्रियंका गांधी के राजनीति में सक्रिय होने की चर्चाएं होती थी। खासकर 1999 में रायबरेली के चुनाव में उनके द्वारा भाजपा प्रत्याशी अरुण नेहरु पर किए गए भावुक हमले की जिसने उस चुनाव का रुख बदल दिया। कांग्रेस प्रत्याशी कैप्टन सतीश शर्मा के समर्थन में प्रियंका ने एक सभा में कहा था- ‘मुझे रायबरेली के लोगों से एक शिकायत है कि जिसने मेरे पिता के मंत्रिमंडल में रहते उनसे गद्दारी की, जिसने भाई की पीठ में छुरा घोपा, आपने उसे रायबरेली में घुसने कैसे दिया?’ प्रियंका के इतना कहने के बाद अरुण नेहरु न केवल हारे बल्कि चौथे स्थान पर पहुंच गए।
कांग्रेस को प्रियंका में वह सब नजर आया जो जनता को लुभा सकता था और उनकी भावुकता को वोट में बदल सकता था। प्रियंका ने राजनीति से दूरी बनाने का फैसला किया तो सारी उम्मीदें राहुल तक आ कर टिक गई। राहुल पार्टी में आए जरूर लेकिन उन्होंने पद पहले संगठन को सुधारने का काम चुना। यह ऐसी राह थी जो कई कांग्रेसियों को पसंद नहीं आ रही है। राहुल आम आदमी और कार्यकर्ता की बात कर रहे हैं और नेताओं को तो ऐसे नेता की तलाश है जो केवल पार्टी का ‘चेहरा’ हो। वह पार्टी की ‘मांसपेशियों’ से छेड़छाड़ न करे। यही कारण है कि प्रत्यक्ष रूप से राहुल की बातों को स्वीकारने वाले नेता उन निर्णयों को लागू ही नहीं होने देते जो उन्हें पसंद नहीं है या जो उनकी राह में बाधा बनते हैं। यही कारण है कि राहुल के ‘आॅपरेशन कांग्रेस’ से अलग बड़ी संख्या में नेता ‘करिश्माई चेहरा’ प्रियंका की सक्रियता से आस लगाए बैठे हैं। मंगलवार को प्रियंका द्वारा कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ बैठक का यही अर्थ निकाला गया कि वह खुलकर बड़ी भूमिका में आने की तैयारी में है।
मोदी और ‘आप’ के दौर में प्रियंका में अपना भविष्य खोजने वाली कांग्रेस को सोचना होगा कि क्या सच में प्रियंका कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का है? कांग्रेस बार-बार यह खारिज करती रही है कि प्रियंका राजनीति में आ रही है। अभी भी उसके बड़े नेता प्रियंका के बैठक लेने को सामान्य घटना ही मान रहे है लेकिन आम कांग्रेसी के लिए प्रियंका का कांग्रेस की कमान संभालना आम बात नहीं है। यह उसके लिए उसकी पंसदीदा पार्टी के जीवन मरण का प्रश्न है। भीतर ही भीतर यह भय भी है कि कहीं प्रियंका भी असफल हो गई तो? इस तो का जवाब है कि तब पार्टी को चेहरे के करिश्मे पर निर्भरता को खत्म करना होगा। यह निर्भरता आज से नहीं है, बरसों पुरानी है। अगर पार्टी को चेहरे पर निर्भरता को खत्म करके ही आगे बढ़ना है तो वह आज राहुल-प्रियंका के साथ ही यह कदम क्यों नहीं उठाती है? चेहरों पर निर्भरता खत्म करना ही तो आखिर पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी का एजेंडा है।
अधिकांश कांग्रेसी पहले यह स्वीकार नहीं कर रहे थे लेकिन खुले तौर पर स्वीकारने लगे हैं कि मोदी एक मुद्दा है। अब तो दिल्ली में सत्ता संभाल रही ‘आप’ भी खतरा बन गई है। ऐसे में राहुल के नेतृत्व को क्या फिर से प्रियंका का साथ मिलेगा जैसा वे बहन होने के नाते उत्तर प्रदेश के चुनावों के दौरान देती रही हैं या वे और बड़ी भूमिका संभाल कर उन लाखों कांग्रेस कार्यकर्ताओं की उम्मीदों को पूरा करेंगी जो कांग्रेस के कर्ताधर्ताओं के तौर-तरीकों को देख कर त्रस्त हो चुके हैं? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रियंका के आने से कांग्रेस जी उठेगी या जनता चेहरे के करिश्मे की तुलना में योजनाओं और काम को महत्व देने वाली राजनीति का समर्थन करेगी? सवाल बड़े हैं और इनके जवाब खुद कांग्रेस के पहले गांधी परिवार को खोजना है।
कांग्रेस भले ही देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी हो। भले ही इसमें कितने ही गुणी और क्षमतावान नेता हों लेकिन कांग्रेस की शुरुआत तो गांधी-नेहरू परिवार से ही होती है। बाकी का नंबर इनके बाद आता है। यही कारण है कि पार्टी ने इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद पार्टी ने उनके बेटे राजीव गांधी की ओर देखा। जब राजीव गांधी नहीं रहे तो सोनिया गांधी, प्रियंका और राहुल गांधी की ओर टकटकी लगाई गई। कहते हैं सोनिया अपने पति को राजनीति में नहीं आने देना चाहती थी लेकिन ऐसा हो न सका। जब स्वयं की बारी आई तो सोनिया ने कांग्रेस की कमान तो संभाली लेकिन प्रधानमंत्री के पद से स्वयं को दूर ही रखा। तब प्रियंका की तुलना इंदिरा गांधी से की गई और उन पर दबाव बनाया कि वे कांग्रेस की पतवार थाम लें। यही कारण था कि 2004 में राहुल गांधी के चुनावी राजनीति में प्रवेश से भी पहले प्रियंका गांधी के राजनीति में सक्रिय होने की चर्चाएं होती थी। खासकर 1999 में रायबरेली के चुनाव में उनके द्वारा भाजपा प्रत्याशी अरुण नेहरु पर किए गए भावुक हमले की जिसने उस चुनाव का रुख बदल दिया। कांग्रेस प्रत्याशी कैप्टन सतीश शर्मा के समर्थन में प्रियंका ने एक सभा में कहा था- ‘मुझे रायबरेली के लोगों से एक शिकायत है कि जिसने मेरे पिता के मंत्रिमंडल में रहते उनसे गद्दारी की, जिसने भाई की पीठ में छुरा घोपा, आपने उसे रायबरेली में घुसने कैसे दिया?’ प्रियंका के इतना कहने के बाद अरुण नेहरु न केवल हारे बल्कि चौथे स्थान पर पहुंच गए।
कांग्रेस को प्रियंका में वह सब नजर आया जो जनता को लुभा सकता था और उनकी भावुकता को वोट में बदल सकता था। प्रियंका ने राजनीति से दूरी बनाने का फैसला किया तो सारी उम्मीदें राहुल तक आ कर टिक गई। राहुल पार्टी में आए जरूर लेकिन उन्होंने पद पहले संगठन को सुधारने का काम चुना। यह ऐसी राह थी जो कई कांग्रेसियों को पसंद नहीं आ रही है। राहुल आम आदमी और कार्यकर्ता की बात कर रहे हैं और नेताओं को तो ऐसे नेता की तलाश है जो केवल पार्टी का ‘चेहरा’ हो। वह पार्टी की ‘मांसपेशियों’ से छेड़छाड़ न करे। यही कारण है कि प्रत्यक्ष रूप से राहुल की बातों को स्वीकारने वाले नेता उन निर्णयों को लागू ही नहीं होने देते जो उन्हें पसंद नहीं है या जो उनकी राह में बाधा बनते हैं। यही कारण है कि राहुल के ‘आॅपरेशन कांग्रेस’ से अलग बड़ी संख्या में नेता ‘करिश्माई चेहरा’ प्रियंका की सक्रियता से आस लगाए बैठे हैं। मंगलवार को प्रियंका द्वारा कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ बैठक का यही अर्थ निकाला गया कि वह खुलकर बड़ी भूमिका में आने की तैयारी में है।
मोदी और ‘आप’ के दौर में प्रियंका में अपना भविष्य खोजने वाली कांग्रेस को सोचना होगा कि क्या सच में प्रियंका कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का है? कांग्रेस बार-बार यह खारिज करती रही है कि प्रियंका राजनीति में आ रही है। अभी भी उसके बड़े नेता प्रियंका के बैठक लेने को सामान्य घटना ही मान रहे है लेकिन आम कांग्रेसी के लिए प्रियंका का कांग्रेस की कमान संभालना आम बात नहीं है। यह उसके लिए उसकी पंसदीदा पार्टी के जीवन मरण का प्रश्न है। भीतर ही भीतर यह भय भी है कि कहीं प्रियंका भी असफल हो गई तो? इस तो का जवाब है कि तब पार्टी को चेहरे के करिश्मे पर निर्भरता को खत्म करना होगा। यह निर्भरता आज से नहीं है, बरसों पुरानी है। अगर पार्टी को चेहरे पर निर्भरता को खत्म करके ही आगे बढ़ना है तो वह आज राहुल-प्रियंका के साथ ही यह कदम क्यों नहीं उठाती है? चेहरों पर निर्भरता खत्म करना ही तो आखिर पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी का एजेंडा है।
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