Wednesday, November 25, 2015

विश्लेषण : झाबुआ की जीत जंगल की आग नहीं जिसका फैलना तय हो...

लम्बे अर्से बाद कांग्रेस के खेमे में खुशियों का डेरा है, वरना तो पिछले कई चुनाव और उपचुनाव में भाजपा ही जश्न मनाती रही है। झाबुआ लोकसभा उप चुनाव में हार से भाजपा संगठन में जितनी हताशा है उससे कहीं अधिक प्रसन्नता कांग्रेसी कैम्प में है। इसकी वजहें हैं जिन पर आगे बात की जाएगी, लेकिन कांग्रेस को झाबुआ में अपनी इस जीत पर फूल कर कुप्पा होने की आवश्यकता नहीं है। असल में, झाबुआ की जीत मैदान की ‘सूखी’ घास में लगी आग की तरह है जो स्थानीय मुद्दों व नाराजी की ‘चिंगारी’ के कारण लगी है। यह आग जल्द ही ठंडी भी पड़ जाएगी। कांग्रेस को इसे ‘जंगल की आग‘ मान कर यह मंसूबा नहीं बनाना चाहिए कि वह इस अग्नि में भाजपा को खाक कर देगी। विधानसभा और लोकसभा के मुख्य चुनावों में अभी कई महीने हैं और इस दौरान राजनीतिक ‘गर्मी’, ‘सर्दी’ और ‘बारिष’ के कई मौसम आना षेष हैं। कोई कह नहीं सकता कि इन मौसमों की आवाजाही में राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा। जाहिर है, भाजपा के पास सुधार के उतने ही दिन हैं जितने कांग्रेस के पास एकजुट बने रहने के अवसर। इसलिए इस एक जीत या हार से न भाजपा को डरने की आवष्यकता है और न कांग्रेस के लिए निष्क्रिय होने का सबब। 
झाबुआ की सीट खोकर भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देष में पहली बार लोकसभा का चुनाव हारा है। यह सीट जाने से लोकसभा में उसका संख्या बल 280 से घट कर 279 रह गया और कांग्रेस के खेमे की संख्या 44 से बढ़ कर 45 हो गई। इस एक सीट के खोने के कई संदेष हैं। खास कर बिहार के संदर्भ में इस हार के लिए कहा जाएगा कि यह सरकार की नीतियों के खिलाफ जनादेश है। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है। यदि ऐसा होता तो यह परिणाम देवास में दिखाई देना था और मणिपुर में भी महसूस होना था जहां भाजपा ने चौंकाते हुए अपना खाता खोला है। असल में, झाबुआ-रतलाम हारने के कई कारण हैं। वहां के स्थानीय मुद्दे, स्थानीय राजनीति और स्थानीय आक्रोश को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जब स्थानीय ताकत कमजोर पड़ रही थी तभी भोपाल को अपना ‘पैर’ वहां जमाना पड़ा। भाजपा के ही बड़े नेता प्रचार के दौरान स्वीकारने लगे थे कि निर्मला भूरिया ने अपने ही क्षेत्र में वैसी साख नहीं बनाई जैसी उनके पिता की थी। यही कारण है कि आज निर्मला अपनी विधानसभा सीट में भी जीत हासिल नहीं कर पाई हैं। ऐसी ही षिकायत अन्य विधायकों को लेकर भी है। जबकि इसके उलट कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया ने पूरा ध्यान अपने क्षेत्र पर लगाया। पिछले चार-पांच माह से वे झाबुआ से बाहर तक नहीं निकले। ऐसा नहीं है कि निर्मला के लिए ही पूरी पार्टी लगी थी। कांतिलाल के लिए भी हर विधानसभा में अलग-अलग नेताओं ने मोर्चे संभाले थे। यही कारण है कि रतलाम ग्रामीण और सैलाना में कांग्रेस को महत्वपूर्ण लीड मिली। 
इस एक हार से सरकारों को फर्क नहीं पड़ता लेकिन ऐसी ही हार-जीत आंतरिक अवलोकन का अवसर देती है। मैंने कहा है कि झाबुआ की जीत दावानल नहीं है जो भाजपा को खाक कर देगी तो इसके पीछे कई तर्क हैं। संगठन के पैमाने पर देखें तो भाजपा आज कांग्रेस से कई मामलों में आगे हैं। भाजपा के पास संगठन है। उसके पास बूथ स्तर तक के कार्यकर्ता हैं। उसके पास नेतृत्व में आस्था है। गुटबाजी पार्टी के हितों पर हावी नहीं होती। भाजपा के पास लक्ष्य है। भाजपा के पास रणनीति है। भाजपा के पास समर्पित कार्यकर्ता हैं जो वोट में तब्दील होते हैं। भाजपा के पास कार्यक्रम है, वह अपने नेताओं को खाली नहीं बैठने देती। और इस सबके बाद भी उसके पास सरकार और समय है। 
कांग्रेस ने अपने शासनकाल में नीतियों की समीक्षा कर न सत्ता का कार्य व्यवहार सुधारा और न संगठन को खड़ा किया। उसके नेताओं का विभाजित होना तथा खेमेबंद होना साफ नजर आता है। शिवराज सिंह चौहान, सरकार और भाजपा संगठन के लिए लोकसभा उपचुनाव चुनौती थी और उन्होंने इसे हारा है, लेकिन यह सिलसिला नहीं है। भाजपा के पास समय है कि वह वास्तव में आकलन करे और अपने नेताओं, विधायकों-सांसदों की कार्यप्रणाली में सुधार करे। ठीक ऐसा ही मौका कांग्रेस के पास भी है। इसके लिए कांग्रेस को उस व्यवहार को छोड़ना होगा जो उसका स्वभाव बन गया है। 
क्या संघ की निष्क्रियता भारी पड़ी?
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने कहा है कि पार्टी झाबुआ में हार की समीक्षा करेगी। यह तो सोचा ही जाएगा कि इतना भारी लाव लश्कर लगाने के बाद भी सीट क्यों हाथ से गई लेकिन यह तय है कि पार्टी को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की निष्क्रियता भारी पड़ी है। संघ पदाधिकारी कहते हैं कि उप चुनाव में उनकी भूमिका नहीं होती। झाबुआ में प्रचार के दौरान ऐसा दिखाई भी दिया। अब तो परिणाम इसकी पुष्टि भी कर रहे हैं। रतलाम विधानसभा क्षेत्र भाजपा का तुरूप का इक्का है। इस बार यहां मात्र 52 फीसदी ही मतदान हुआ, जबकि 2014 में यहां 65 फीसदी मतदान हुआ था। इसी तरह आलीराजपुर भी संघ का गढ़ है। यहां भी इस बार 44 फीसदी मतदान हुआ जबकि 2014 में यहां 62 प्रतिषत मतदान हुआ था। कांग्रेस ने रतलाम ग्रामीण और सैलाना में धुंआधार वोट अर्जित किए तथा भाजपा संघ के प्रभाव वाले क्षेत्रों में 31 प्रतिशत कम वोटिंग का खामियाजा भोग कर रह गई। 

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