Saturday, May 21, 2016

सचमुच सुखी हो ?

वहां कोई तुम्हारा अपना रहा करता था खूब गुजारते थे वक्त उसके पहलू में।
उसी का आंचल सुख देता था उसी का सत मिटाता था भूख। उसी के आश्रय में खेल, उसी के साये में चैन। तुम भूल गए। फिर वो दरख्त भी कहां रहा जो याद दिलाता। वो दिन क्या गुजरे फूल खिलना बंद हो गए नहीं मिलती छांव न रस ही मिलता किसी को तुमसे। वो पेड़ क्‍या सूखा सूख गया तुम्‍हारा साया। गांव किनारे की ही नहीं, नदी तो भीतर की भी सूखी है। खरी कहो क्या छई छप्पा छई के बिना तुम सचमुच सुखी हो ?

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