आपने एक प्रख्यात हेल्थ ड्रिंक का टीवी विज्ञापन देखा होगा जिसमें
बच्चे पूछते हैं कि उनका साथी साथ इत्तू सा था, इतनी जल्दी इतना लंबा कैसा हो गया? आखिर खाता क्या
है? ऐसे विज्ञापनों
ने बच्चों और उनके माता-पिता में लंबाई को लेकर प्रतिस्पर्धा और हीनता का बोध
जगाया लेकिन क्या आपको पता है कि कुपोषण मप्र के बच्चों को दुर्बल
और कमजोर ही
नहीं बना रहा बल्कि यह उनके नाटे रहने का कारण भी है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि
कुपोषण के कारण राज्य के 42 प्रतिशत बच्चे
नाटे रह जाते हैं। मप्र के बच्चे पूरी तरह स्वस्थ्य नहीं हैं क्योंकि जन्म के दो
दिन के अंदर 82 फीसदी बच्चों को
डॉक्टरों से उपचार नहीं मिलता। उन्हें पोषण आहार नहीं मिलता। इस कारण 60 फीसदी बच्चों
में खून की कमी है और इन शारीरिक दुर्बलताओं के कारण बच्चे पढ़ाई में कमजोर रह
जाते हैं। इस तरह कुपोषण के कारण बच्चों का कम शारीरिक और मानसिक विकास अंततः
प्रदेश की विकास दर को भी प्रभावित कर रहा है। मप्र के नाटे बच्चों को देख कर
बार-बार पूछा जाना चाहिए कि आखिर ये खाते क्या हैं? ताकि सरकार और समाज ध्यान दे कि हमारे प्रदेश के
बच्चे खा क्या रहे हैं?
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 का प्रतिवेदन कई
खुलासे करता है। इन आंकड़ों को जानने के बाद कुपोषण के प्रति अधिक व्यापक रूप से
सोचने की आवश्यकता महसूस होती है। यदि कुपोषण को बच्चों के कम वजन या कमजोरी के
रूप में ही देखा जाता है तो अब यह समझना होगा कि बच्चों का कद न बढ़ना और उनका
नाटा रह जाना भी कुपोषण का ही दुष्परिणाम है। यह सर्वे बताता है कि राज्य में 100 में से 40 बच्चे आज भी
कुपोषण से ग्रस्त हैं। 13 राज्यों और 2 केन्द्र शासित
प्रदेशों के लिए जारी एनएचएफएस 4 के आंकड़ों के अनुसार मप्र में 5 साल से कम उम्र
के 40 फीसदी से ज्यादा
बच्चों का विकास ठीक से नहीं हो पाता है यानि उनकी ऊँचाई और वजन सामान्य से कम रह
जाता है। जबकि 5 साल से कम उम्र
के 42.8 फीसदी बच्चों का
वजन सामान्य से कम (अंडरवेट) होता है। सामान्य से कम वजन वाले बच्चों की प्रतिशतता
के आंकड़े 35 फीसदी से कम
होकर 25.8 फीसदी पर आ गए
हैं लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानदण्डों के अनुसार यह संख्या अब भी बहुत
ज्यादा है।
यहां ध्यान दे सरकार:
जन्म के बाद बच्चों की मृत्यु रोकने के लिए जन्म के तुरंत
बाद प्रसव के पहले और बाद में सही उपचार आवश्यक है। खासतौर पर तब, जब बड़ी संख्या में बच्चे गांवों एवं आदिवासी इलाकों में
रहते हैं। इन बच्चों को आंगनवाड़ी, स्वास्थ्य सेवाएं एवं पोषण सुविधाएं सीमित मात्रा में
उपलब्ध हो पाती हैं। स्तनपान एवं अर्द्ध ठोस आहार पाने वाले दो साल से कम उम्र के
बच्चों की प्रतिशतता यानी पर्सेंटाइल 6.6 फीसदी है। ऐसे में बाल मृत्यु और कुपोषण से बचाव के लिए
गांवों में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य और पोषण सुविधाएं पहुंचाना आवश्यक है।
आंकड़ें बताते हैं कि राज्य के 50 फीसदी बच्चों को
निवारणीय रोगों की रोकथाम के लिए पर्याप्त टीकाकरण तक उपलब्ध नहीं हो पाता है। 2014 में राज्य सरकार
ने मिशन इन्द्र धनुष आरंभ किया है। उम्मीद है कि अगले सर्वेक्षण में आंकड़ों में
सुधार होगा। प्रसवपूर्व देखभाल, नवजात शिशुओं के
स्वास्थ्य एवं जीवित रहने तथा कुपोषण से लड़ने के लिए आवश्यक है। राज्य सरकार को
इस ओर ध्यान देना होगा।
गणित में होगा कमजोर
बच्चों के स्वास्थ्य का उनके भावी जीवन में भी बड़ा असर
देखा गया है। अध्ययनों में बताया गया है कि अस्वस्थ्य या कुपोषित बच्चा अपने जीवन
में आगे चल कर कई अन्य बीमारियों से परेशान होता है। इतना ही नहीं, यह कमजोरी उसकी शिक्षा
को भी प्रभावित करती है। बचपन में यदि कोई गेंद पकड़ने या फेंकने जैसा काम ठीक से
नहीं कर पाता तो माना जाना चाहिए कि आगे चल कर वह गणित में कमजोर होगा। स्टेवांगर
यूनिवर्सिटी के नार्वेजियन रीडिंग सेंटर के प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर एलिन रेइकेरस
ने इस अध्ययन के आधार पर दावा किया कि दो साल के बच्चों के पेशी कौशल (मोटर स्किल)
और गणितीय कौशल के बीच रिश्ता होता है। पेशी कौशल किसी खास कार्य के लिए शरीर की
मांसपेशियों की होने वाली सटीक गतिविधि को कहते हैं।
मप्र के बच्चे शिक्षा में पहले ही कमजोर
नेशनल अचीवमेंट सर्वे (नास) में शिक्षा के मामले में प्रदेश
दूसरे राज्यों की तुलना में तीन पायदान फिसला है। कक्षा तीन के बच्चों पर किए गए
सर्वे में भाषा के मामले में मप्र 25वें से 28वें नंबर पर आ गया है। वहीं गणित में 23वें नंबर पर है।
भाषा का स्तर जानने के लिए सर्वे के तीन आधार रखे गए थे। सर्वे शब्दों को सुनकर
समझने, पढ़कर समझने और
लिखकर बताने व समझने के बिंदुओं पर किया गया। सर्वे बताता है कि मप्र के बच्चे
सुनकर समझने के मामले में 62 प्रतिशत तक
शिक्षित हैं, जबकि राष्ट्रीय
औसत 65 प्रतिशत है। यदि
लिखने व लिखे शब्दों को पहचानने की बात करें तो मप्र के बच्चे 83 प्रतिशत पर हैं, जबकि देश का औसत 86 प्रतिशत है।
पढ़कर समझने के मामले में मध्यप्रदेश के बच्चे देश में 28वें नंबर पर हैं।
यह 52 प्रतिशत है और
यही सबसे खराब स्थिति है। राष्ट्रीय औसत 59 प्रतिशत है।
गणित के मामले में दस बिंदुओं पर सर्वे किया गया। संख्या को
जोडने के मामले में मध्यप्रदेश के बच्चे देश में 21वें नंबर पर हैं, जो राष्ट्रीय औसत 69 प्रतिशत से पीछे
हैं। घटाने के मामले में मध्यप्रदेश के बच्चे सबसे बेहतर हैं। राष्ट्रीय औसत 65 प्रतिशत है, जबकि मप्र का औसत
68 है। गुणा करने पर
मप्र देश में 28वें नंबर पर है।
देश का औसत 63 प्रतिशत है, जबकि मप्र 59 प्रतिशत पर है।
आंकड़े जो चिंता बढ़ाते हैं
- 5 साल से कम उम्र के प्रत्येक 100 में से 40 से ज्यादा बच्चों का विकास ठीक से नहीं हो रहा।
- 5 साल से कम उम्र के 100 में से 40 बच्चों का वजन सामान्य से कम है।
- पांच साल से कम उम्र के 60 फीसदी से ज्यादा बच्चों में खून की कमी है।
- केवल 55 प्रतिशत बच्चों का ही सम्पूर्ण टीकाकरण होता है।
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