Wednesday, June 22, 2022

केदारनाथ अग्रवाल, तुम्हें भला क्या पहचानेंगे बांदावाले


तुम्हें भला क्या पहचानेंगे साहब काले!

तुम्हें भला क्या पहचानेंगे आम मुवक्किल!

तुम्हें भला क्या पहचानेंगे शासन की नाकों पर के तिल!

तुम्हें भला क्या पहचानेंगे ज़िला अदालत के वे हाकिम!

तुम्हें भला क्या पहचानेंगे मात्र पेट के बने हुए हैं जो कि मुलाज़िम!

प्यारे भाई, मैंने तुमको पहचाना है

समझा-बुझा है, जाना है…

यह लिखा है कवि नागार्जुन ने. वही बाबा नागार्जुन जिनके बारे में कहा जाता है कि उनके रचना संसार में समूची भारतीय काव्‍य परंपरा स्‍पंदित होती दिखाई देती है. उन बाबा नागार्जुन ने यह किसके लिए कहा है? कौन होगा जिसकी प्रशंसा में नागार्जुन ने कविता लिखी, ऐसा काव्‍य विशेषण जो उस व्‍यक्तित्‍व का समग्र परिचय ही बन गया. कौन है जिसके लिए नागार्जुन ने कहा –

मैं बड़भागी, क्योंकि प्राप्त है मुझे तुम्हारा

निश्छल-निर्मल भाईचारा

मैं बड़भागी, तुम जैसे कल्याण मित्र का जिसे सहारा

नागार्जुन ने यह लिखा था प्रगतिशील चेतना के पर्याय कवि केदारनाथ अग्रवाल के बारे में. केदारनाथ अग्रवाल जिनकी 22 जून को पुण्‍यतिथि है. वे केदारनाथ अग्रवाल जो इलाहाबाद में पढ़े, जिन्‍होंने बांदा में उम्र भर वकालात की और जीवन भर साहित्‍य सृजन किया. नागार्जुन ने यह रचना बांदा यात्रा के बाद लिखी है. इसके पहले केदारनाथ अग्रवाल एक कविता लिख चुके थे- ‘नागार्जुन के बांदा आने पर’.

ये दोनों कविताएंं आज हिंदी के दो बड़े कवियों के संवाद के बहाने साहित्‍य परंपराऔर इन दो कवियों के व्‍यक्तित्‍व को जानने का बेहतर माध्‍यम बनी हैं. ये कविताएं मिसाल हैं कि एक कवि अपने समकालीन साथी कवि को कैसे देखता है, उसके कृतित्‍व और व्‍यक्तित्‍व पर कैसे प्रतिक्रिया देता है. पहले देखते हैं, केदारनाथ अग्रवाल की रचना ‘नागार्जुन के बांदा आने पर’. इसमें केदार जी लिखते हैं :

यह बांदा है

सूदख़ोर आढ़त वालों की इस नगरी में,

जहां मार, काबर, कछार, मड़ुआ की फ़सलें,

कृषकों के पौरुष से उपजा कन-कन सोना,

लढ़ियों में लद-लद कर आ-आ कर,

बीच हाट में बिक कर कोठों-गोदामों में,

गहरी खोहों में खो जाता है जा-जा कर,

न्याय यहाँ पर अन्यायों पर विजय न पाता,

सत्य सरल होकर कोरा असत्य रह जाता,

न्यायालय की ड्योढ़ी पर दब कर मर जाता,

यहाँ हमारे भावी राष्ट्र-विधाता,

युग के बच्चे,

विद्यालय में वाणी-विद्या-बुद्धि न पाते,

विज्ञानी बनने से वंचित रह जाते,

केवल मिट्टी में मिल जाते.

यह बांदा है,

और यहाँ पर मैं रहता हूँ,

जीवन-यापन कठिनाई से ही करता हूं,

कभी काव्य की कई पंक्तियां,

कभी आठ-दस बीस पंक्तियां,

और कभी कविताए लिखकर,

प्यासे मन की प्यास बुझा लेता हूं रस से,

शायद ही आता है कोई मित्र यहां पर,

शायद ही आती हैं मेरे पास चिट्ठियां.

अहोभाग्य है जो तुम आए मुझसे मिलने,

इस बांदा में चार रोज़ के लिए ठहरने,

अहोभाग्य है स्वयं उगे इन सब पेड़ों का,

जिनके द्रुम-दल झरते फिर-फिर नए निकलते.

अहोभाग्य है हर छोटी चंचल चिड़िया का,

जिनका नीड़ बिगड़ते-बनते देर न लगती.

अहोभाग्य है बंबेश्वर की चौड़ी-चकली चट्टानों का,

जिनको तुमने प्यार किया है, सहलाया है.

अहोभाग्य है केन नदी के इस पानी का,

जिसकी धारा बनी तुम्हारे स्वर की धारा.

अहोभाग्य है बांदा की इस कठिन भूमि का,

जिसको तुमने चरण छुला कर जिला दिया है.

अतिथि के आने पर कवि मित्र का यूं व्‍यक्‍त होना स्‍वाभाविक है. मगर प्रत्‍युत्‍तर में जो रचना आई वह अद्भुत है. नागार्जुन ने बांदा यात्रा के बाद ओ ‘जन-मन के सजग चितेरे’ कविता में केदार जी के बारे में लिखा है-

मैं बोला : केदार, तुम्हारे बाल पक गए!

‘चिंताओं की घनी भाफ में सीझे जाते हैं बेचारे’-

तुमने कहा, सुनो नागार्जुन,

दुख-दुविधा की प्रबल आंच में

जब दिमाग़ ही उबल रहा हो

तो बालों का कालापन क्या कम मखौल है?

ठिठक गया मैं, तुम्हें देखने लगा ग़ौर से…

गौर-गेहुँआ मुख-मंडल चाँदनी रात में चमक रहा था

फैली-फैली आँखों में युग दमक रहा था

प्यारे भाई, मैंने तुमको पहचाना है

केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो!

कालिंजर का चौड़ा सीना, वह भी तुम हो!

जनगण-मन के जाग्रत शिल्पी,

तुम धरती के पुत्र : गगन के तुम जामाता!

नक्षत्रों के स्वजन कुटुंबी, सगे बंधु तुम नद-नदियों के!

झरी ऋचा पर ऋचा तुम्हारे सबल कंठ से

स्वर-लहरी पर थिरक रही है युग की गंगा

अजी, तुम्हारी शब्द-शक्ति ने बाँध लिया है भुवनदीप कवि नेरूदा को … 

यह थे केदारनाथ अग्रवाल जिन्‍हें बाबा नागार्जुन ने जनगण मन का जाग्रत शिल्‍पी कहा. 1 अप्रैल 1911 को उत्तर-प्रदेश के बांदा जनपद के कमासिन गांव में जन्मे केदारनाथ ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने कविताएं लिखने की शुरुआत की. उनका पहला काव्य-संग्रह ‘युग की गंगा’ मार्च, 1947 में प्रकाशित हुआ था. हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए यह संग्रह एक बहुमूल्य दस्तावेज़ है. गुलमेंहदी, हे मेरी तुम, जमुन जल तुम, जो शिलाएँ तोड़ते हैं, कहें केदार खरी खरी, खुली आँखें खुले डैने, कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह, मार प्यार की थापें, फूल नहीं, रंग बोलते हैं-1, फूल नहीं रंग बोलते हैं-2, आग का आइना, पंख और पतवार, अपूर्वा, नींद के बादल, आत्म गंध, बम्बई का रक्त स्नान, युग-गंगा, बोले बोल अबोल, लोक आलोक, चुनी हुयी कविताएँ, पुष्पदीप, वसंत में प्रसन्न पृथ्वी, अनहारी हरियाली उनकी प्रमुख कृतियां हैं. उनकी अनूदित रचनाओं का संग्रह ‘देश-देश की कविता’.

अपनी लंबी रचनमात्मक यात्रा के लिए उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिंदी संस्थान पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार जैसे सम्मानों से उन्हें सम्मानित किया जा चुका है. 22 जून 2000 को उन्‍होंने देहत्‍याग दी.

वे पूर्णकालिक कवि नहीं थे बल्कि बांदा में वकालत करने के दौरान उन्‍होंने कविताएं लिखी हैं. काव्‍य संकलन ‘अपूर्वा’ की भूमिका में केदार जी लिखते हैं :

‘लोग कहते हैं पेशेवर कवि हो जाना और हर-हमेश कविता लिखते जाना अच्छा नहीं होता. ऐसे में जो लिखा जाता है वह घटिया होता है, चालू होता है, कविता के अच्छे पाठक उसे स्वीकार नहीं करते. लेकिन यह धारणा ठीक हो ही, यह मान लेना गलत होगा. देखा यह भी गया है कि कम लिखने वाले भी घटिया कृतियां देते रहते हैं. इसलिए आग्रह यही करता हूँ कि मेरी कविताओं को जांचें-परखें और इसकी चिन्ता न करें कि इतने लम्बे अरसे में मैंने इतना कम क्यों लिखा. देखें कि ये कैसी हैं!’

आलोचकों ने केदार जी के सृजन संसार का आकलन करते हुए उन्‍हें यथार्थ का कवि कहा है. किसी ने उन्‍हें मनुष्यता विरोधी शक्तियों के मुकाबले उठी चेतना फैलाने वाली और संघर्ष करने वाली आवाज कहा है. जबकि उनकी प्रकृति प्रेम कविताओं को अलग स्‍वर की रचनाएं निरूपित करते हुए कहा गया कि जहां अन्‍य कवियों की कविताओं में किसान की दुर्दशा की करूण गाथा कही गई हैं वहीं, केदार जी ने अपने समकालीन प्रगतिशील कवियों की तरह उजले पक्ष के साथ किसान जीवन का यथार्थ चित्रण किया. ‘खेत का दृश्य’ कविता में वे लिखते हैं–

“आसमान की ओढ़नी ओढ़े,

धानी पहने

फसल घंघरिया,

राधा बन कर धरती नाची,

नाचा हंसमुख

कृषक संवरिया.”  

अपने रचना पक्ष पर चर्चा करते हुए ‘अपूर्वा’ की भूमिका में ही केदार जी लिखते हैं कि एक बात ध्यान में रखने की है. वह यह है कि जहाँ अन्य कवियों का अपना-अपना अलग सच होता है, जो बराबर उन्हीं उन्हीं का बना रहता है, किसी दूसरे का सच नहीं बन पाता, वहाँ प्रगतिशील कवि का सच दूसरों का सच बन जाता है. उसकी मानसिकता दूसरों की मानसिकता बन जाती है. प्रगतिशील कवि जो कुछ लिखता है, वह उसका होकर भी सहज साधारण आदमी की मानसिकता का हो जाता है. इसकी वजह है. जहाँ दूसरे व्यक्तिवादी (अहंवादी) कवि वस्तुनिष्ठता से मुँह चुराये स्वयं में लीन होते हैं, वहाँ प्रगतिशील कवि वस्तुनिष्ठता से ही अपनी आत्मनिष्ठता बनाता है और इस यौगिक संहति को सबको समर्पित कर देता है. तभी तो कविता की निरंतरता कायम रहती है और सांस्कृतिक एकता की अवधारणा सम्भव होती है. मैं कविता की सांस्कृतिक सार्थकता का समर्थक कवि रहा हूँ और अब भी हूं. इससे मेरी कविता उतनी ही मेरी है जितनी दूसरों की.

तभी तो जब हम केदारनाथ अग्रवाल की बरसों पहले लिखी रचनाओं को पढ़ते हैं तो हमें आज का अपना ही सच लगता है. ऐसी ही कुछ रचनाओं की बानगी :

तुम्हारे पांव

देवताओं के पांव हैं

जो जमीन पर नहीं पड़ते

हम वंदना करते हैं तुम्हारी

नेता! (कविता : नेता)

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कोई नहीं सुनता

झरी पत्तियों की झिरझिरी

न पत्तियों के पिता पेड़

न पेड़ों के मूलाधार पहाड़

न आग का दौड़ता प्रकाश

न समय का उड़ता शाश्वत विहंग

न सिंधु का अतल जल-ज्वार

सब हैं –

सब एक दूसरे से अधिक

कनबहरे,

अपने आप में बंद, ठहरे. (कविता: कनबहरे)

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मैंने उसको

जब-जब देखा

लोहा देखा

लोहे जैसा-

तपते देखा-

गलते देखा-

ढलते देखा

मैंने उसको

गोली जैसा

चलते देखा. (कविता : वीरांगना)

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अच्छा होता

अगर आदमी

आदमी के लिए

परार्थी –

पक्का –

और नियत का सच्चा होता

न स्वार्थ का चहबच्चा

न दगैल-

दागी न

चरित्र का कच्चा होता

अच्छा होता

अगर आदमी

आदमी के लिए

दिलदार

और हृदय की थाती होता,

न ईमान का घाती- 

ठगेत ठाकुर न

मौत का बराती होता. (कविता: अच्‍छा होता)

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