हमारा देश विविधवर्णी है. पूर्व से पश्चिम तक तथा उत्तर से दक्षिण तक, बोलने, सोचने, रहने, खाने की इतनी विविधता. हम इस विविधता में ही अखंडता सोचते हैं. जो तमाम बातें हमें एक रखती है उनमें किसी खास का जिक्र हो तो वह आम ही होगा. आम यानि सामान्य नहीं, हमारा खास आम. संस्कृत का आम्र जो हिंदी, मराठी आदि में आम बना. मलयालम का मान्न जो बाद में अंग्रेजी का मैंगो बना. पिकबंधु, रसाल, मादक, सहकार, फलश्रेष्ठ, अंब, अमृतफल जिसके पर्याय हैं. वह आम जो हमें खास तरह की राष्ट्रीयता में बांधता है. स्वाद और परंपरा के गौरव भाव की राष्ट्रीयता.
आम का जिक्र इसलिए कि 22 जुलाई को हम राष्ट्रीय आम दिवस मनाते हैं. आम हमारा राष्ट्रीय फल है तो इसके लिए एक दिन घोषित जरूर है मगर यह तो हमारे हर दिन के स्वाद का हिस्सा है. अचार, मुरब्बा, आम पापड़, आम मिष्ठान के रूप आम तब भी हमारी थाली और भोजन का अंग होता है जब यह बाग में उपलब्ध नहीं होता. अन्यथा तो वसंत ऋतु में आम के बौराने के साथ ही हमारे भीतर आम का स्वाद हरियाने लगता है.
शायद आम के बौराने से ही इंसान के बौराने का मुहावरा बना होगा. यह एक मुहावरा ही क्यों, ‘आंधी के आम होना’ और ‘आम के आम, गुठलियों के दाम’ जैसे मुहावरों में भी आम हमारे कहने, लिखने-पढ़ने का हिस्सा है. देखिए, यहां भी आम कितना विशिष्ट है. किसी को बहुत सस्ता बताना हो तो कह दीजिए आंधी के आम. धरती पर पड़े मिले हो जैसे. और जब कह दिया जाए आम के आम गुठलियों के दाम तो मानिए पूरी उपयोगिता है काम की. जब कोई व्यंग्य करना हो या सीख देनी हो तो हम तपाक से कह देते हैं, बोए पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय. गीता दर्शन का ऐसा मुहावरा आम के लिए ही हो सकता है.
भारत के लोकगीतों में आम खास स्थान रखता है. हमारे पूजा पाठ में कलश पर रखे श्रीफल के संग आम के पत्तों का होना मंगल का प्रतीक है. अनुष्ठान के दौरान आम के पत्तों से वंदनवार बनते हैं. महात्मा बुद्ध को एक आम्रकुंज भेंट करने का संदर्भ है. सांची के स्तूप में उकेरे गए आम्र की अपनी कथा है. भारतीय आभूषण हो या जरी व छपाई के वस्त्र आम या अंबी की डिजाइन का अपना महत्व है. साड़ी का बॉर्डर हो या पल्लू, अंबी की डिजाइन हमेशा चलन में रही है.
‘ए हिस्टोरिकल डिक्शनरी ऑफ इंडियन फूड’ के हवाले से कहें तो लंबे समय तक आम केवल शाही बागों में ही होते थे, लेकिन शाहजहां ने इसे खत्म कर दिया था. मुगलों के समय तोतापरी, केसर जैसी किस्म बेहद मशहूर थी.
आम को खास के दायरे से हटा कर आम लोगों की पहुंच तक जाने देने का लाभ यह हुआ कि आज देश भर में आम की कोई दो-चार सौ नहीं 14 सौ से अधिक प्रजातियां उपलब्ध हैं. प्रगतिशील किसान व कृषि वैज्ञानिक हर साल नई किस्मों को सामने ले आते हैं. आम को लेकर हर जगह अलग-अलग किस्से व कहानियां हैं. दुनिया ने आम का स्वाद भारत के कारण ही जाना है. आम की जन्मभूमि भी मूलतः पूर्वी भारत में असम, बांग्लादेश व म्यांमार बताई जाती है. कई संदर्भ बताते हैं कि चौथी-पांचवी सदी में बौद्ध धर्म प्रचारकों के साथ आम मलेशिया और पूर्वी एशिया के देशों तक पहुंचा. 10 वीं सदी में पारसी लोग आम को पूर्वी अफ्रीका ले गए. पुर्तगालियों को आम इतने ज्यादा पसंद थे कि वो जहां गए आम के बीज ले गए और इसे कई देशों से परिचित करवाया.
महाराष्ट्र का अल्फांसो आम की एक ऐसी किस्म है जिसका चर्चा दुनिया भर में होता है. पुर्तगाली वायसराय अल्फांसो के नाम पर पहचाने जाने वाले इस नाम को उत्तर भारत में हापुस भी कहा जाता है. सिंदूरी आम अपने रंग और बहुत अधिक मात्रा में पल्प के कारण पसंद किया जाता है. केसरिया रंग के कारण चर्चित रसदार आम केसर विभिन्न पकवानों के लिए शेफ की खास पसंद है. केसर, तोतापुरी और बंगनपाली के लिए भी लोगों की अपनी राय और अपना जजमेंट है. ऐसे ही जैसे मालदा आम के बारे में कहा जाता है कि अगर मालदा आम न खाया तो फिर समझो आम ही नहीं खाया. आकार में बड़ा और गूदेदार मालदा पकने के बाद भीतर से भले रंग बदल दे मगर बाहर इसका छिलका हरा ही बना रहता है.
कम लोग नहीं है जो दशहरी आम को आमों का राजा मानते हैं. लखनवी तहजीब जैसे इस आम के संस्कार में आई है. उत्तर भारत का सबसे प्रसिद्ध दशहरी आम काकोरी के पास दशहरी गांव से ही सारी दुनिया में मशहूर हुआ है. इस गांव में दशहरी आम का सबसे पुराना, पहला पेड़ अब भी फल दे रहा है. कहा जाता है कि मलीहाबाद के एक पठान जमींदार ईसा खान ने लगभग डेढ़ सौ साल पहले नवाबों के बाग की देखभाल करने वाले एक पासी गुडै़त से इसका एक पेड़ प्राप्त कर लिया था. उसी दशहरी गांव से फैलकर इस आम ने सारी दुनिया में अपना सिक्का जमा दिया. आज भी मलीहाबाद और यहां के दशहरी आम के किस्से उतने ही फैले हैं जितने इसका स्वाद दुनिया भर में पहुंचा है.
चौसा को लेकर दो बातें कही जाती हैं. मलीहाबाद के इलाके में ही आम की एक किस्म चौसा के विकसित होने का संदर्भ मिलता है. संडीला के पास के गांव चौसा के एक जिलेदार ने अपने दौरे के दौरान इस आम को खाया था. स्वाद से गदगद अफस्र ने नवाब संडीला को इसकी खबर दी. फिर नवाब संडीला के जरिए चौसा की नस्ल कई जगह फैल गई. कहा जाता है कि शेरशाह सूरी ने पटना के पास चौसा की लड़ाई जीतने के बाद इस आम का नाम चौसा रखा था.
बहुतों के प्रिय लंगड़ा आम की कहानी भी उतनी ही सरस है. माना जाता है कि बनारस के एक लंगड़े फकीर के घर के पिछवाड़े में उगे आम को लंगड़ा आम कहा गया. बिहार के फजली आम के बारे में कहा जाता है कि भागलपुर के एक गांव में फजली नामक महिला के यहां उपजी किस्म को फजली आम कहा गया.
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक में पाया जाने वाला तोतापरी हर वर्ग की पहुंच का आम है. यह अपने अन्य बंधुओं की तरह उतना मीठा और रसीला नहीं होती. लेकिन इसका कुछ कच्चा सा रूप और खट्टा-मीठा स्वाद इसे खास बनाता है. कच्ची केरी की तुलना में खट्टा होने के कारण यह आम अचार, मुरब्बा, छुंदा या सलाद बनाने की प्रिय किस्म है.
आम की यह बात करते, सुनते, पढ़ते यदि कोई सवाल पूछ ले कि आप आम किस तरह खाते हैं, तो आपका जवाब क्या होगा? क्या स्मृति में पेड़ के नीचे गिरा डाल पाक आम याद हो आएगा, या कच्ची केरी का स्वाद घुल जाएगा? प्लेट में सजा हापुस याद आएगा या कटोरी में रखा केसर का रस मुंह में पानी ले आएगा? अचार, मुरब्बा, आम पापड़, आम्रखंड, केरी का पना, मैंगो टकीला सनराइज, मैंगो मार्टिनी और अम्बरसरिया. सोचिए, किसका स्वाद याद आएगा?
संभव है, आपको किस तरह डाल पाक देशी केरी को अंगूठे और उंगलियों से दबादबा कर रसीला बनाना याद हो आए. संभव है, कच्ची केरी को पाला डाल कर पकाने का देसी तरीका कौंध जाए. या ठेले पर सजे आमों को देख सरपट भागती गाड़ी पर ब्रेक लगाना याद हो जाए. या वे दोस्त याद हो आएं जो सोशल मीडिया पर आम के फोटो लगा लगा कर हमें दुबला करते रहते हैं. ऐसे ही दोस्तों के लिए तो अकबर इलाहाबादी ने लिखा है :
जब आम पर कहन की बात चली है तो सागर खय्यामी याद आते हैं. उन्होंने क्या खूब कहा है:
आम तेरी ये ख़ुश-नसीबी है/ वर्ना लंगड़ों पे कौन मरता है.
और जो देश दुनिया में भारत के आम की पहुंच की बात हो तो अकबर इलाहाबादी को ही पढ़ लीजिए :
अमीर खुसरो को तो आप जानते ही होंगे. उन्होंने कहमुकरियां लिखी हैं. अमीर खुसरो की बहुत सी मुकरियां हैं, एक मुकरी आम पर भी है:
आमों की एक खासियत यह भी है कि देश भर में अलग अलग किस्म के आम अलग अलग समय पर पकते हैं. गर्मियों में आम की बहार है. मार्च के आखिर से लेकर अगस्त मध्य तक आम आता ही रहता है. कभी उसे प्रदेश का आम तो कभी इस प्रदेश का आम. मानो रिले रेस चल रही है और एक कुशल एथलिट की तरह टीमवर्क से आम फलों के राजा का ताज अपने पास रख लेता है. बारह महीनों आने वाले सेब, पपीता हों या मौसमी अमरूद, जामून, सबके सब आम के आगे ढ़ेर. देखिए, आम कितने खास हैं कि इनके लिए इतना लिखा भी कम पड़ रहा है. मेरी स्थिति भी वैसी ही है, जैसी प्रख्यात कवि आलोक धन्वा ने यूं व्यक्त की है :
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