पादप जगत के बारे में यह उक्ति चर्चित हो गई है कि बरगद के नीचे कोई दूसरा पेड़ नहीं पनप सकता है. अब प्रकृति के बारे में यह नियम कितना उचित है, यह तो नहीं कह सकते मगर हमारे जीवन में कई उदाहरण हैं जिनमें बरगद के नीचे दूसरा बरगद बनते और विकसित होते देखा है. इन उदाहरणों में एक जो सबसे अधिक जाना पहचाना नाम है वह है ‘मानस के हंस’ और ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ के लेखक अमृतलाल नागर. पद्म विभूषण नागर जी मुंशी प्रेमचंद, कथाकार शरतचंद्र, महाप्राण निराला, जयशंकर प्रसाद जैसे रचनाकारों के सानिध्य में अद्वितीय लेखक बने. ऐसे रचनाकार जिनकी गिनती हिंदी साहित्य के गद्य शिल्पियों में प्रेमचंद के बाद होती है.
उन्हीं अमृतलाल नागर की आज जयंती है. नागर जी का जन्म 17 अगस्त 1916 को आगरा के गोकुलपुरा में हुआ था. 55 वर्ष के लेखनकाल में उन्होंने बेहद विस्तृत और वैविध्यपूर्ण साहित्य रचा है. बाल साहित्य, कविताएं, कहानियां, उपन्यास, व्यंग्य, अनुवाद, संपादन, संस्मरण नाटक, रेडियो नाटक व फीचर, साहित्य की ऐसी कौन सी विधा जो नागर जी ने नहीं रची. इस रचना प्रक्रिया की शुरुआत 1932 में हुई. पहले मेघराज इंद्र के नाम से कविताएं लिखीं. ‘तस्लीम लखनवी’ नाम से व्यंग्यपूर्ण स्केच व निबंध लिखे. कहानियां मूल नाम अमृतलाल नागर से ही लिखीं. पहला कहानी संग्रह, ‘वाटिका’ वर्ष 1935 में प्रकाशित हुआ था. 1956 में प्रकाशित, ‘बूंद और समुद्र’ बड़ा उपन्यास है जो लखनऊ के चौक मोहल्लों और गलियों के किरदारों से रूबरू करवाता है. ‘अमृत और विष’ 1965 में आत्मकथा शैली में लिखा गया जिसे 1967 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ है. ‘एकदा नैमिषारण्य’ में भारत के पौराणिक और ऐतिहासिक अतीत के दर्शन होते हैं. 1972 में आया ‘मानस का हंस’ और 1977 में प्रकाशित ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ नागर जी का प्रतिनिधि साहित्य कहा जाता है. ‘मानस का हंस’ महकवि तुलसीदास की जीवनी है. ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ में सफाईकर्मी समाज और नारी शोषण की संवेदनशील गाथा है. 1980 में रचा गया ‘खंजन नयन’ उपन्यास भक्त कवि सूरदास की जीवनी पर आधारित हैं.
इस कृतित्व पर पाठकों ने अपना स्नेह ही न्योछावर नहीं किया बल्कि अनेकों सम्मान प्रदान कर लेखक के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की है. इन सम्मानों में ‘मानस का हंस’ पर मध्य प्रदेश सरकार ने अखिल भारतीय वीरसिंह देव पुरस्कार, वर्ष 1985 का उ.प्र. हिंदी संस्थान का सर्वोच्च भारत भारती सम्मान तथा साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण सम्मान प्रमुख हैं.
अमृतलाल नागर ने काव्य के साथ रचना कार्य आरंभ किया था, अत: पद्य शैली होना स्वाभाविक है. मगर पद्य शैली में लिखे जा रहे गद्य की दिशा बदलने का प्रसंग भी रोचक है. जब हम अमृतलाल नागर जी के जीवन के बारे में पड़ताल करते हैं तो पता चलता है कि उन्होंने अपना पहला कहानी संग्रह ‘वाटिका’ मुंशी प्रेमचंद को भेजा था. जवाब में प्रेमचंद ने उन्हें लिखा कि वाटिका की कहानियां गद्यकाव्य जैसी चीज हैं. मैं रियलिस्टिक कहानियां चाहता हूँ जिनका आधार जीवन हो, जिनसे जीवन पर कुछ प्रकाश पड़ सके. मैंने वाटिका के दो-चार फूल सूंघे, अच्छी खुशबू है.
लेखन के शुरुआत में ही कथा सम्राट प्रेमचंद से मिली इस सलाह को नागर जी ने शिरोधार्य किया. यहीं से उनके लेखन की दिशा बदल गई. अगली रचनाओं में ‘गद्यकाव्य जैसी चीज’ संशोधित होती गई और उनकी रचनाओं में सामाजिक सरोकार बढ़ते चले गए. स्वयं नागरजी ने इस बात को स्वीकार करते हुए लिखा है कि प्रेमचंद के इस वाक्य ने एक तरह से मेरी जन्मपत्री ही बदल दी. वे चिंतन और लेखन में मोड़ लाने का एक कारण बने!
मैंने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, ”जी हां.”
वे बोले, ”ठीक है. केवल इस बात का ध्यान रखना कि जो कुछ भी लिखो, वह अधिकतर तुम्हारे अपने ही अनुभवों के आधार पर हो. व्यर्थ की कल्पना के चक्कर में कभी न पड़ना.”
आरामकुर्सी पर इत्मीनान के साथ लेटे हुए, सटक के दो-तीन कश खींचने के बाद वह फिर कहने लगे, ”कॉलेज में मुझे एक प्रोफेसर महोदय पढ़ाते थे. वह सुप्रसिद्ध समालोचक भी थे. कॉलेज से बाहर आकर मैंने ‘देवदास’, ‘परिणीता’, ‘बिंदूरछेले’ (बिंदू का लड़का) आदि कुछ चीजें लिखीं. लोगों ने उन्हें पसंद भी किया. एक दिन मार्ग में मुझे वे प्रोफेसर महोदय मिले. उन्होंने मुझसे कहा, ‘शरत, मैंने सुना है, तुम बहुत अच्छा लिख लेते हो. लेकिन भाई, तुमने अपनी कोई भी रचना मुझे नहीं दिखलाई.”
शरत विनयपूर्वक बोले व पुस्तकें इस योग्य नहीं कि आप जैसे पंडित उन्हें पढ़े.” तब प्रोफेसर बोले और पुस्तकें तो मैं कहीं से लेकर पढ़ लूंगा, पर चूंकि अब तुम लेखक हो गए हो इसलिए मेरी तीन बातें ध्यान में रखना. एक तो जो लिखना सो अपने अनुभव से लिखना. दूसरे अपनी रचना को लिखने के बाद तुरंत ही किसी को दिखाने सुनाने या सलाह लेने की आदत मत डालना. कहानी लिखकर तीन महीने तक अपनी दराज में डाल दो और फिर ठंडे मन से स्वयं ही उसमें सुधार करते रहो. इससे जब यथेष्ठ संतोष मिल जाए, तभी अपनी रचना को दूसरों के सामने लाओ.” प्रोफेसर साहब का तीसरा आदेश यह था कि अपनी कलम से किसी की निंदा मत करो.
अपने गुरु की ये तीन बातें बताते हुए शरत जी ने नागर जी को कहा कि यदि तुम्हारे पास चार पैसे हो तो तीन पैसे जमा करो और एक खर्च. यदि अधिक खर्चीले हो तो दो जमा करो और दो खर्च. यदि बेहद खर्चीले हो तो एक जमा करो और तीन खर्च. इसके बाद भी यदि तुम्हारा मन न माने तो चारों खर्च कर डालो, मगर फिर पांचवां पैसा किसी से उधर मत मांगो. उधार की वृति लेखक की आत्मा को हीन और मलीन कर देती है.
नागर जी लिखते हैं कि मैं यह तो नहीं कह सकता कि इन चारों उपदेशों को मैं शत-प्रतिशत अमल में ला सकता हूं, फिर भी यह अवश्य कह सकता हूं कि प्रायः नब्बे फीसदी मेरे आचरण पर इन उपदेशों का प्रभाव पड़ा है.
टुकड़े-टुकड़े दास्तान में नागर जी लेखकों के लिए एक सूत्र देते हैं कि दूसरों की रचनाएं, विशेष रूप से लोकमान्य लेखकों की रचनाएं पढ़ने से लेखक को अपनी शक्ति और कमजोरी का पता लगता है. यह हर हालत में बहुत ही अच्छी आदत है. इसने एक विचित्र तड़प भी मेरे मन में जगाई. बार-बार यह अनुभव होता था कि विदेशी साहित्य तो अंग्रेजी के माध्यम से बराबर हमारी दृष्टि में पड़ता रहता है, किंतु देशी साहित्य के संबंध में हम कुछ नहीं जान पाते. उन दिनों हिंदीवालों में बांग्ला पढ़ने का चलन तो किसी हद तक था, लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य हमारी जानकारी में प्रायः नहीं के बराबर ही था. इसी तड़प में मैंने अपने देश की चार भाषाएं सीखी. आज तो दावे से कह सकता हूंं कि लेखक के रूप में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए मेरी इस आदत ने मेरा बड़ा ही उपकार किया है. विभिन्न वातावरणों को देखना, घूमना भटकना, बहुश्रुत और बहुपठित होना भी मेरे बड़े काम आता है. यह मेरा अनुभवजन्य मत है कि मैदान मैं लड़नेवाले सिपाही को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए जिस प्रकार नित्य की कवायद बहुत आवश्यक होती है, उसी प्रकार लेखक के लिए उपरोक्त अभ्यास भी नितांत आवश्यक है. केवल साहित्यिक बातावरण ही में रहनेवाला कथा लेखक मेरे विचार में घाटे में रहता है. उसे निस्संकोच विविध वातावरणों से अपना सीधा संपर्क स्थापित करना ही चाहिए.
कितना ही कारगर सूत्र दिया है नागर जी ने. बेहतर लेखक बनने के लिए यथार्थवादी लेखन जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है श्रेष्ठ और लोक मान्य साहित्य को पढ़ा जाना.
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