Wednesday, November 2, 2022

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ: खुद को दूसरा महात्‍मा कहा तो गुरुदेव को लिखा स्टूपेंद्रनाथ बेगोर

 
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ भारतीय पाठकों के लिए नया नाम नहीं है. महात्‍मा गांधी के प्रति सम्‍मान हो, गुरुदेव रवींद्रनाथ के प्रतीक चरित्र को अपने एक नाटक में ‘स्टूपेंद्रनाथ बेगोर’ का नाम देना हो या मुंबई यात्रा के दौरान ब्रिटिश सरकार की आलोचना करना. बर्नार्ड शॉ का भारत से कई-कई रूपों में जुड़ाव  है. ऐसे समय में जब साहित्‍य में पुरस्‍कारों को लेकर तमाम तरह के आरोप-प्रत्‍यारोप लगते रहते हैं तब यह जानकार अचरज ही होगा कि बर्नार्ड शॉ ने नोबल पुरस्‍कार स्‍वीकार करने का जवाब देने में सात दिनों का समय ले लिया था. अन्‍यथा तो नाइटहुड की उपाधि सहित कई पुरस्‍कार वे लेने से इंकार कर चुके थे.


बर्नार्ड शॉ के समूचे जीवन को देखा जाए तो उनका ही एक कथन उन्‍हीं पर लागू होता प्रतीत होता है. यह कथन है, ‘सफलता का रहस्य है बड़ी संख्या में लोगों को नाराज करना.’ कठोर शब्‍दों के कारण बर्नार्ड शॉ से लोग नाराज हुए या नहीं यह अलग बात है मगर बेबाकी से लिखने और जीने के अंदाज ने समूची दुनिया को उनका मुरीद बना दिया है. जब हम जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के बारे में जानना शुरू करते हैं तो सबसे पहले यही तथ्‍य सामने आता है कि  ‘सेंट जॉन’, ‘मेन एंड सुपरमेन’, ‘आर्म्‍स एंड मेन’ के लेखक शॉ दुनिया के पहले ऐसे सर्जक थे जिन्‍हें नोबल और ऑस्‍कर पुरस्‍कार मिले हैं.


ऐसे जॉर्ज बर्नार्ड शॉ को हम नाटककार व उपन्‍यासकार, राजनीतिज्ञ मानवतावादी लेखक के रूप में जानते हैं. उनका जन्‍म आयरलैंड के डबलिन में 26 जुलाई 1856 को हुआ था. साहित्यिक रूचियों के चलते में इंग्लैंड आ गए थे और वहीं के हो कर रह गए. उनके लेखन में तंज और अपमानजनक शब्‍दों का प्रयोग जीवन की पथरीली राहों का प्रभाव हो सकता है. जैसे कि लेखन के बारे में उन्‍होंने अपनी इसी शैली में कहा है:


“जीवन यापन के लिए साहित्य को अपनाने का कारण यह था कि पाठक अपने लेखक को देखते नहीं हैं. इसलिए उसके पहनावे से जज नहीं करते हैं. व्यापारी, डॉक्टर, वकील या कलाकार बनने के लिए साफ व उनके लिए तय कपड़े पहनने पड़ते और अपने घुटने और कोहनियों से काम लेना छोड़ना पड़ता. साहित्य ही एक ऐसा सभ्य पेशा है जिसकी अपनी कोई पोशाक नहीं है, इसीलिए मैंने इस पेशे को चुना है.”


1880 के बाद से लेकर उनके देहांत तक और बाद में भी बर्नार्ड शॉ के विचारों ने इंग्‍लैंड ही नहीं पूरी दुनिया की राजनीति व जीवन को प्रभावित किया है. उनका निधन 2 नवंबर 1950 को हुआ था. 94 वर्ष के अपने लंबे जीवन में उन्होंने साठ से अधिक नाटक लिखे. इन नाटकों में मैन एंड सुपरमैन (1902), पाइग्मेलियन (1913) और सेंट जॉन (1923) प्रमुख शामिल हैं. सेंट जॉन के लिए शॉ को 1925 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. जबकि नोबेल मिलने के 13 साल बाद 1939 में फिल्‍म ‘पाइग्मेलियन’ का स्‍क्रीन प्‍ले लिखने के लिए ऑस्‍कर अवॉर्ड मिला. ऑस्कर हासिल करते वक़्त उनकी उम्र 82 साल थी.


सम्‍मान और पुरस्‍कारों को नकारने वाले बर्नार्ड शॉ ने नोबल पुरस्‍कार भी आसानी से नहीं लिया था. किस्‍सा कुछ यूं है कि नोबल पुरस्कार को पचीस वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 1925 में समारोह हुआ. उस वर्ष का पुरस्कार बर्नार्ड शॉ को दिया गया था. उनसे तीन वर्ष पहले ही आयरलैंड के प्रसिद्ध कवि और नाटककार डब्‍ल्‍यूबी यीट्स को यह पुरस्कार मिल चुका था. इसलिए आयरलैंड के रचानाकार को इतनी जल्‍दी नोबल देने पर कटाक्ष किए गए थे. जब बर्नार्ड शॉ के पास पुरस्कार की सूचना भेजी गई तो उन्‍होंने एक सप्ताह तक स्वीडिश एकेडमी को जवाब ही नहीं भेजा. कयास लगाए गए कि बर्नार्ड शॉ यह पुरस्‍कार नहीं लेंगे. कुछ अखबारों ने जवाब देने में देरी करने पर बर्नार्ड शॉ की आलोचना भी की. हालांकि, बर्नार्ड शॉ ने, मुझे और कीर्ति की आवश्‍यकता नहीं है, कहते हुए पुरस्‍कार ग्रहण किया और उससे प्राप्‍त धन को स्‍वीकार न करते हुए स्वीडन और ब्रिटेन के बीच साहित्यिक साझेदारी के प्रोत्साहन के लिए रख दिया था. इसी तरह, ऑस्‍कर को भी उन्‍होंने स्‍वयं का अपमान कहा था.


बर्नार्ड शॉ का यह तीखा व्‍यवहार कई लोगों के साथ देखा गया. वे आमतौर पर खतों के जवाब देना पसंद नहीं करते थे, क्‍योंकि उनका मानना था कि अधिकांश पत्र किसी सम्‍मान, किसी कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आते थे. विवियन इलियट ने अपनी पुस्‍तक ‘डियर मिस्‍टर शॉ’ में लिखा है कि 94 वर्ष के जीवनकाल में शॉ को ढ़ाई लाख से ज्‍यादा पत्र मिले हैं. पत्रों के जवाब के मामले में उनके कुछ खास नियम थे जैसे, वे लंबे पत्र नहीं पढ़ते थे. वे अपने प्रकाशित विचारों पर खत में बात नहीं करते थे. वे किसी लेखक की अप्रकाशित पांडुलिपी नहीं पढ़ते थे, न किसी को लेखन के बारे में सलाह देते थे.


जहां तक भारत से संबंध की बात है तो बर्नार्ड शॉ अहिंसा के अग्रदूत महात्‍मा गांधी के अनन्‍य प्रशंसकों में से एक थे. जब शॉ से गांधी के प्रभाव के बारे में पूछा गया तो उन्‍होंने तपाक से उत्‍तर दिया था, ‘क्‍या आप किसी से हिमालय के प्रभाव के बारे में पूछेंगे?’ 1933 में समुद्री यात्रा के दौरान जॉर्ज बर्नार्ड शॉ अपनी पत्‍नी के साथ मुंबई आए थे. इस छोटी यात्रा के दौरान वे गांधी जी से मिल नहीं सके थे क्‍योंकि उस समय गांधी जी यरवदा जेल में कैद थे. बाद में शॉ की लंदन में गांधी से मुलाकात हुई थी. गांधी जी की इस यात्रा के दौरान बर्नार्ड शॉ ने स्‍वयं को दूसरा महात्‍मा कहा था.


बर्नार्ड शॉ और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के रिश्‍ते की शुरुआत भी शॉ के कटु व्‍यवहार से हुई थी. गुरुदेव के गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद से प्रख्‍यात कवि डब्‍ल्‍यू.बी. यीट्स बेहद प्रभावित हुए जबकि शुरुआत में गुरुदेव को लेकर शॉ की राय ठीक नहीं थी. उन्‍होंने वर्ष 1919 में उन्होंने अपनी एक नाटिका के कवि चरित्र को ‘स्टूपेंद्रनाथ बेगोर’ का नाम दिया था. संदर्भ बताते हैं कि टैगोर के पुत्र रतींद्रनाथ ने ‘ऑन द एजेस ऑफ़ टाइम’ में शॉ के साथ हुई मुलाकात का जिक्र करते हुए लिखा था, “एक शाम हम सभी सिन्क्लेयर द्वारा दिए गए रात्रिभोज में आमंत्रित थे. पिताजी गुरुदेव बर्नाड शॉ के पास बैठे थे. सभी लोगों को इस बात की हैरत थी कि शॉ एकदम चुपचाप बैठे थे. सारी बातचीत पिताजी को ही करनी पड़ रही थी. उनसे हमारी अगली मुलाक़ात क्वींस हॉल में हुई. संगीत सभा के अंत में जब हम हॉल से बाहर निकल रहे थे तो किसी ने अचानक पिताजी का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर घुमाते हुए कहा, “क्या आपको मेरी याद है? मैं बर्नाड शॉ हूं.”


इन दो मुलाकातों के बाद शॉ में टैगोर के प्रति मैत्री भाव पैदा हो गया और दोनों के बीच कई सालों तक पत्रों के आदान-प्रदान का सिलसिला चला.


ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्‍टन चर्चिल को लेकर बर्नार्ड शॉ का एक व्‍यंग्‍य संवाद खासा चर्चित हुआ था. कहा जाता है कि बर्नार्ड शॉ ने पीएम चर्चिल अपने एक नाटक के शो के दो टिकट भेजते हुए पर कहा था कि आप अपने एक मित्र के साथ आमंत्रित हैं, यदि आपका कोई मित्र हो. यह चर्चिल के अपनी राजनीतिक कार्यपद्धति के साथ अकेला होने पर तंज था. चर्चिल ने भी मजेदार जवाब लिख भेजा कि वे पहले शो में नहीं आ सकते हैं, दूसरे शो में आएंगे यदि दूसरे शो तक नाटक चला तो.


हम अक्‍सर अंग्रेजी वर्णमाल और ग्रामर को लेकर मजाक बनाते हैं कि यहां जरा से हेरफेर में शब्‍द का अर्थ बदल जाता है मगर उच्‍चारण में बहुत बारीक अंतर को समझना मुश्किल होता है. जैसे, अंग्रेजी में दो देयर, दो एडवाइज, दो टू हैं. बहुत कम लोगों को पता होगा कि अंग्रेजी को इस चक्‍कर से बचाने के लिए बर्नार्ड शॉ ने एक वर्णमाला की पैरवी की थी. इस शॉ वर्णमाला में 40 अक्षर हैं. इस वर्णमाला में रोमन में अंग्रेजी की वर्तनी (स्पेलिंग) की उलझन का समाधान है. इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए बर्नार्ड शॉ ने अपनी वसीयत में धन की व्यवस्था की थी. उनका जोर था कि वर्णमाला में अक्षरों को ध्‍वन्यात्मक होना चाहिए. ये वर्ण लैटिन वर्णमाला से अलग हो ताकि भ्रम की स्थिति न बने.


बर्नार्ड शॉ ने मृत्‍यु के 16 साल पहले शाकाहार को अपना लिया था. बाद में उन्‍होंने शाकाहार की पैरवी करते हुए मांसाहारियों के लिए कटु शब्‍दों का इस्‍तेमाल किया. यहां तक कि बीमार होने पर डॉक्‍टरों ने मांस सूप लेने को कहा तो उन्‍होंने इस सलाह का भी मखौल उड़ाया और कहा कि मेरी अंतिम यात्रा में पशुओं, मुर्गों, बकरी को शामिल करना और उनके गले में पट्टी बांधना कि अपनी जान बचाने के लिए इस इंसान ने हमारी जान नहीं ली. हालांकि, तथ्‍य यह भी है कि उन्‍होंने लाखों लोगों की जान लेने वाले हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाहों को सही भी करार दिया था.


शॉ के जीवन के ऐसे तमाम पहलुओं पर भारी है उनके विचार और लेखन. कुछ विचार यूं हैं:


  • कभी सुअरों के साथ कुश्ती मत लड़िए. आप गंदे भी होते हैं और इस लड़ाई का मजा भी सुअर को ही आता है.

  • दुनिया की सबसे बड़ी समस्या यह है कि मूर्ख और कट्टरपंथी खुद को लेकर एकदम दृढ़ होते हैं और बु्द्धिमान लोग संदेह से भरे होते हैं.

  • तुम चीजें देखते हो; और कहते हो, ‘क्यों?’ लेकिन मैं उन चीजों के सपने देखता हूं जो कभी थीं ही नहीं; और कहता हूं ‘क्यों नहीं?

  • सफलता कभी गलती ना करने में नहीं होती है बल्कि एक ही गलती दोबारा ना करने में निहित होती है.

  • कभी भी किसी बच्चे को वो किताब पढ़ने को मत दीजिये जो आप खुद नहीं पढेंगे.

  • जानवर मेरे दोस्त हैं और मैं अपने दोस्तों को नहीं खाता.

  • जो अपना दिमाग नहीं बदल सकते वे कुछ भी नहीं बदल सकते.

  • आज अध्‍ययन करना सब जानते हैं, पर क्‍या अध्‍ययन करना चाहिए यह कोई नहीं जानता.

  • जब आदमी बाघ का शिकार करता है तो उसे खेल कहता है; जब बाघ इंसान का शिकार करना चाहता है तो इंसान इसे क्रूरता कहता है.

  • सत्ता व्यक्ति को भ्रष्ट नहीं बनाती, हालांकि, यदि मूर्ख सत्ता में आ जाते हैं तो वे सत्ता को भ्रष्ट बना देते हैं.

  • स्वतंत्रता का अर्थ जिम्मेदारी है. इसीलिए ज्यादातर लोग इससे डरते हैं.

  • जिस आदमी के दांत में दर्द होता है, वो सोचता है कि हर कोई जिसके दांत सही हैं, खुश है. गरीबी से त्रस्‍त व्‍यक्ति अमीरों के बारे में यही गलती करता है.

  • एक सज्जन व्यक्ति वह है जो दुनिया से जितना लेता है उससे अधिक देता है.

  • बहुत कम लोग साल में दो-तीन बार से ज्यादा सोचते हैं; मैंने हफ्ते में एक-दो बार सोच कर खुद की एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा बना ली है. 
(शॉ की पुण्‍यतिथि 2 नवंबर 2022 को न्‍यूज 18 में प्रकाशित) 

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