Monday, November 7, 2022

चंद्रकांत देवताले: खून की जांच करो अपने, कहीं ठंडा तो नहीं हुआ

 वह औरत


आकाश और पृथ्वी के बीच

कब से कपड़े पछीट रही है,


पछीट रही है शताब्दियों से

धूप के तार पर सुखा रही है,

वह औरत आकाश और धूप और हवा से

वंचित घुप्प गुफा में

कितना आटा गूंध रही है?


एक औरत का धड़

भीड़ में भटक रहा है

उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं

उसके पांव

जाने कब से

सबसे

अपना पता पूछ रहे हैं. (औरत) 


इस कविता से इसके लेखक कवि चंद्रकांत देवताले के समूचे कृतित्‍व को समझा जा सकता है. उनके संवेदना के स्‍तर को जाना जा सकता है. आज उन देवताले जी की जयंती है. उनका जन्‍म 7 नवम्बर 1936 को जौलखेड़ा बैतूल में हुआ था. सेवानिवृत्ति के बाद वे उज्‍जैन में ही बस गए थे. उज्‍जैन में ही 14 अगस्त 2017 को उनका निधन हुआ. किसी के प्रिय कवि, किसी के प्रिय प्रोफेसर, किसी के लिए बेहतरीन इंसान, जाने कितनी छवियां हैं जिनके बहाने देवताले जी किसी एक दिन नहीं कभी भी एक अनूठी याद बन स्‍मृत हो जाते हैं. आज भी उन्‍हें याद करने के कई बहाने हैं.


पूरे देश के साहित्‍यकारों की क्‍या कहिए, मालवा खासकर, इंदौर, रतलाम, उज्‍जैन, भोपाल के साहित्‍यकारों के पास चंद्रकांत देवताले के साथ की अपनी यादें हैं. उनके अपने खास किस्‍से हैं. ये वे किस्‍से हैं जो हमें एक कवि के कोमल मन का साक्षात्‍कार ही नहीं करवाते हैं बल्कि हमें एक कवि ह्रदय इंसान के साथ होने के गर्व से भी भरते हैं. रतलाम कॉलेज में पढ़े कई विद्यार्थी उन्‍हें आज भी अपने प्रोफेसर के रूप में याद करते हैं तो साहित्‍यप्रेमी उनकी रचनाशीलता के किस्‍से सुनाते हैं.


रतलाम में हुए कार्यक्रमों में मुझे उनके साथ कुछ पल बिताने का मौका भी मिला है. जब वे मंच पर होते और रचना पाठ करते तो खास अंदाज में सुनाई गई कविताओं का पाठक पर विशेष प्रभाव होता था. उन्‍हें रतलाम छोड़े अर्सा हो गया था. ‘रतलाम उत्‍सव’ के लिए वे रतलाम में आए हुए थे. उस दोपहर रचना पाठ के बाद मैं उनकी काव्‍य आभा से मुग्‍ध था तभी सुनाई दिया- ‘गुजराती स्‍कूल के सामने कचौरी की दुकान है या नहीं? वहां ले चल. माणक चौक भी जाएंगे’.


तब मेरे सामने तस्‍वीर का दूसरा पहलू था.अपने आसपास के मित्रों, प्रशंसकों के घेरे को तोड़ कर कुछ समय बाद वे मेरी बाइक पर सवार थे. उनकी जानी पहचानी दुकान पर खड़े थे हम. वे कचौरियों का स्‍वाद ले रहे थे और मैं उनके संग का आनंद.


उनके व्‍यक्तित्‍व का एक पहलू वरिष्‍ठ कवि प्रोफेसर आशुतोष दुबे की याद से उभरता है. आशुतोष दुबे लिखते हैं, बहुत साल पहले की बात है. किसी प्रसंग में चंद्रकांत देवताले जी के साथ देवास जाना था बस से. समय तय हुआ जब हम दोनों को बस स्टैंड पर मिलना था. मुझे कुछ देर हो गई. देवताले जी एक पेड़ के नीचे अपनी काइनेटिक होंडा लिए खड़े थे.

मैंने कहा- आपको इंतज़ार करना पड़ा.

उन्होंने जवाब दिया- नहीं. मैंने अपने से कहा, मैं किसी का इंतजार नहीं कर रहा हूं. न कोई आने वाला है न मुझे कहीं जाना है. मैं यहां पेड़ के नीचे इस छांह में खड़ा होने के लिए आया हूं. इस छांह को, इस दोपहर को और यहां की चहल पहल को इंजॉय कर रहा हूं.


क्‍या ही बेहतरीन जीवन प्रबंधन है. इस सुलझे सूत्र के बिना जीवन के मकड़जाल से अप्रभावी रहना संभव नहीं है. उज्‍जैन के कवि नीलोत्‍पल अकसर ही देवताले जी को याद करते हुए उनके व्‍यक्तित्‍व के जाने-अनजाने रंगों से हमें रूबरू करवाते रहते हैं.


नीलोत्‍पल लिखते हैं, देवताले जी के साथ कुछ साल रहने का अवसर मिला. कई बार ऐसा होता था कि मैं किसी बात पर देवताले जी से असहमत हो जाता, वे चिकोटी की तरह भरकर कहते, ‘देख तू नहीं मान रहा पर यह सच है ज्वार माता की कसम’. यह इतना प्रिय वचन होता कि मैं उन्हें सहमति का स्वर देता. यह सहमति मुझे अपनी असहमति से ज़्यादा प्रिय थी. यह मानवीय और उद्दात्त से भरे क्षणों में हम एक-दूसरे को निथारते रहते. कभी वे बाजरे की भी कसम खाया करते, यह उनके शगल में था. प्रकृति में भरोसा भी दिलाता था यह आप्तवचन.


ऐसे कितने ही अनुभव है जिनके माध्‍यम से हम कवि चंद्रकांत देवताले को जानते हैं और ऐसी कितनी ही रचनाएं हैं जिनके जरिए श्रेष्‍ठ मानव के रूप में वे हमसे मुखातिब होते हैं. हमेशा अपनी उपस्थिति से किसी को परेशान नहीं करते हुए, प्रकृति को आत्‍मसात करते हुए, इंसानों के भावों को उकेरते हुए. कभी कभी तो लगता है, स्‍त्री जीवन के मनोभावों के कपास और संघर्ष के पात को समझना हो तो मां, बेटी, प्रेम को इंगित करते हुए लिखी गई देवताले जी की कविताओं को पढ़ लेना ही काफी है. कविता को जीने वाले और जीवन को रचने वाले देवताले जी को याद करना, उनकी रचनाओं से गुजरता वास्‍तव में हमारे श्रेष्‍ठ होने के मार्ग का अनिवार्य कदम है. आप भी पढ़िए उनकी कुछ पंक्तियां :


अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही

तो मत करो कुछ ऐसा

कि जो किसी तरह सोए हैं

उनकी नींद हराम हो जाए

हो सके तो बनो पहरुए

दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें

गाओ कुछ शांत मद्धिम

नींद और पके उनकी जिससे

सोए हुए बच्चे तो नन्हे फरिश्ते ही होते हैं

और सोई स्त्रियों के चेहरों पर

हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम

और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो

नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी

दुश्मनी का कोई निशान

अगर नींद नहीं आ रही हो तो

हंसो थोड़ा, झांको शब्दों के भीतर

खून की जांच करो अपने

कहीं ठंडा तो नहीं हुआ. (अगर तुम्‍हें नींद नहीं आ रही है)



वसंत जो पृथ्वी की आंख है

जिससे वह सपने देखती है

मैं पृथ्वी का देखा हुआ सपना कहना चाहता हूं.



सीता ने कहा था- फट जा धरती

ना जाने कब से चल रही है ये कहानी

फिर भी रुकी नहीं है दुनिया

बाई दरद ले!

सुन बहते पानी की आवाज

हां! ऐसे ही देख ऊपर हरी पत्तियां

सुन ले उसके रोने की आवाज़

जो अभी होने को है

जिंदा हो जाएगी तेरी देह

झरने लगेगा दूध दो नन्हें होंठों के लिए. (बाई दरद ले)



सोई हुई है जैसे उजड़कर गिरी सूखे पेड़ की टहनी

अब पड़ी पसर कर


नींद में हँसते देखना उसे मेरा एक सपना यह भी

पर वह तो

माथे की सिलवटें तक नहीं मिटा पाती

सोकर भी. (एक सपना यह भी) 


‘नींबू मांगकर’ कविता में वे लिखते हैं:


बेहद कोफ़्त होती है इन दिनों

इस कॉलोनी में रहते हुए

जहां हर कोई एक-दूसरे को

जासूस कुत्ते की तरह सूंघता है

अपने-अपने घरों में बैठे लोग

वहीं से कभी-कभार

टेलीफोन के जरिए अड़ोस-पड़ोस

की तलाशी लेते रहते हैं

पर चेहरे पर एक मुस्कान चिपकी रहती है

जो एक-दूसरे को कह देती है-

“हम स्वस्थ हैं और सानंद

और यह भी की तुम्हें पहचानते हैं, ख़ुश रहो”,


यहां तक भी ठीक है

पर अजीब लगता है कि

घरु ज़रूरतों के मामले में

सब के सब आत्मनिर्भर और

बढ़िया प्रबंधक हो गए है

पुरानी बस्ती में कोई दिन नहीं जाता था

की बड़ी फज़र की कुंडी नहीं खटखटाई जाती

और कोई बच्चा हाथ में कटोरी लिए नहीं कहता-

‘बुआ, मां ने चाय-पत्ती मंगाई है’

किसी के यहां आटा खुट जाता

और कभी ऐन छौंक से पहले

प्याज, लहसुन या अदरक की गांठ की मांग होती


होने पर बराबर दी जाती

चाहे कुढ़ते-बड़बड़ करते हुए

पर यह कुढ़न दूसरे या तीसरे दिन ही

आत्मीय आवाज़ में बदल जाती

जब जाना पड़ता कहते हुए

भाभी! देख थोड़ी देर पहले ही खत्म हुआ दूध

और फिर आ गए हैं चाय पीने वाले


रोज़मर्रा की ऐसी मांगा-टूंगी की फेहरिस्त में

और भी कई चीज़ें शामिल रहतीं

जैसे तुलसी के पत्ते या कढ़ी-नीम

बेसन-बड़े भगोने, बाम की शीशी

और वक़्त पड़ने पर दस-बीस रुपए भी

और इनके साथ ही

आपसी सुख-दुःख भी बंटता रहता

जो इस पृथ्वी का दिया होता प्राकृतिक

और दुनिया के हत्यारों का भी


पर इस कॉलोनी में लगता है

सभी घरों में अपने-अपने बाजार हैं

और बैंकें भी

पर नींबू शायद ही मिले

हां! नींबू एक सुबह मैं इसी को मांगने दो-तीन घर गया

पद्मा जी, निर्मला जी, आशा जी के घर तो होने ही थे

नींबू क्योंकि इसके पेड़ भी है उनके यहां

पर हर जगह से ‘नहीं है’ का टका-सा जवाब मिला

मैंने फोन भी किए

दीपा जी ने तो यहां तक कह दिया

‘क्यों मांगते हैं आप मुझसे नींबू’

मै क्या जवाब देता

बुदबुदाया- इतने घर और एक नींबू तक नहीं. 


उज्जैन फोन लगाकर

कमा को बताया यह वाकया

वहीं से वह बड़बड़ाई

वहां मांगा-देही का रिवाज नहीं

समझाया था पहले ही

फिर भी तुम बाज नहीं आए आदत से अपनी

वहां इंदौर में नींबू मांगकर तुमने

यहां उज्जैन में मेरी नाक कटवा ही दी

हंसी आई मुझे अपनी नाक पर हाथ फेरते

जो कायम मुकम्मल थी और साबूत भी.

(देवताले जी की जयंती पर 7 नवंबर 2022 को न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग) 

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