Wednesday, January 25, 2023

कृष्‍णा सोबती: ‘मित्रो’ की छवि बचाने के लिए रचा दिया दूसरा पात्र

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कृष्णा सोबती की आज पुण्‍यतिथि है. 2010 में यदि वे पद्मभूषण पुरस्‍कार ठुकराती नहीं तो हम इस अलंकरण के साथ उन्‍हें संबोधित कर रहे होते. देश की पहली फेमिनिस्‍ट लेखिका कही जाने वाली कृष्‍णा सोबती स्‍वयं को लेखिका कहलाना पसंद नहीं करती थी. वे मानती थी कि लेखक स्‍त्री या पुरूष नहीं होता है, वह लेखक होता है. अशोक वाजपेयी के शब्‍दों में कहें तो ऐसे लोग कम होते हैं जिनके लिखे और जीने में बहुत कम अंतर होता है. ऐसे बहुत कम लोगों में एक नाम है कृष्‍णा सोबती.

कृष्णा सोबती का जन्म अविभाजित भारत में पंजाब के गुजरात जनपद (जो अब पकिस्तान में है) में 18 फरवरी, 1925 को हुआ था. विभाजन के बाद वे भारत आ गईं. उन्‍हें जिंदगीनामा (1979) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. उन्हें 1981 में शिरोमणि अवार्ड, 1982 में हिंदी अकादमी अवार्ड, 1996 में साहित्य अकादमी फैलोशिप, 2017 में भारतीय साहित्य का सर्वश्रेष्ठ सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला.

वे उसूलों की पक्‍की थीं और खुद्दार इंसान थीं. इतनी खुद्दार की कभी कोई सरकारी पद नहीं लिया और सम्‍मान, पुस्‍तकों की रॉयल्‍टी से मिली राशि रजा फाउंडेशन आदि को सौंप दी. कृष्णा सोबती ने एक करोड़ रुपए से अधिक की रजा फाउंडेशन के अशोक वाजपेयी को दी. इसी तरह ज्ञानपीठ पुरस्कार की ग्यारह लाख की राशि भी रजा फाउंडेशन को प्रदान की. अपनी वसीयत में अपनी सहायिका के घर और जीवनयापन का पुख्‍ता इंतजाम किया. 94 वर्ष के लंबे जीवन में सबकुछ सुखमय नहीं था. कई संघर्ष थे. समय के थपेड़े थे मगर इस सबसे लड़ती-भिड़ती कृष्‍णा सोबती के चेहरे पर मासूम मुस्‍कान हमेशा कायम रही. उनके हिस्‍से में ‘जिंदगीनामा’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘ऐ लड़की’ और ‘हम हशमत’ जैसी रचनाओं को मिला पाठकों का प्‍यार ही नहीं आया बल्कि एक लंबी कानूनी लड़ाई भी आई. अमृता प्रीतम जैसी ख्‍यात समकालीन पंजाबी साहित्‍यकार के साथ उनकी यह लड़ाई साहित्‍य जगत का एक अनचाहा प्रसंग है.

यह विवाद किताब के शीर्षक को लेकर था. कृष्‍णा सोबती का उपन्‍यास ‘जिंदगीनामा’ आने के करीब चार साल बाद ‘हरदत्‍त का जिंदगीनामा’ शीर्षक से अमृता प्रीतम की भी किताब का विज्ञापन छपा. आवरण पर हरदत्‍त छोटे अक्षरों में था जबकि जिंदगीनाम बड़े अक्षरों में. इस पर कृष्‍णा सोबती केा ऐतराज हो गया. वे शीर्षक के कॉपीराइट का मामला लेकर कोर्ट में चली गई. हाईकोर्ट ने मामला दिल्ली के जिला अदालत में भेज दिया. वह मुकदमा 27 साल तक चला. फैसला अमृता प्रीतम के पक्ष में ही आया मगर तब तक उनका देहांत हो चुका था. फैसले के बाद कृष्‍णा सोबती ने कहा था कि लड़ाई लंबी खींच गई और मजाक बनकर रह गई. मगर वे इसे ताउम्र सिद्धांत की लड़ाई कहती रही.

सिद्धांत के लिए अगर वे लंबी कानूनी लड़ाई लड़ सकती थी जिस दौरान उनके तीन घर बिक गए तो अपने पात्र के लिए संवेदनाओं के शिखर पर भी खड़ी दिखाई देती हैं. अपने उपन्‍यास ‘मित्रो मरजानी’ की पात्र मित्रो के लिए वे इतनी संवेदनशील थीं कि फिल्‍म में मित्रो के चरित्र से छेड़छाड़ रोकने के लिए उन्‍होंने दूसरा पात्र गढ़ दिया. कृष्णा सोबती की जीवनी ‘दूसरा जीवन’ में गिरधर राठी इस प्रसंग का जिक्र करते हैं. वे लिखते हैं कि फिल्मकार राम माहेश्वरी ने ‘मित्रो मरजानी’ पढ़ा तो इस पर फिल्‍म बनाने का विचार आया. आरंभिक चर्चा के बाद अनुबंध की बात हो गई. फिल्म के स्‍क्रीन प्‍ले के दौरान सुझाव आया कि मित्रो को बिकिनी पहना कर गांव में तैराने का दृश्य फिल्माया जाए.

कृष्‍णा सोबती कहती हैं, ‘बिकनी पहने मित्रो! यह जुमला और इससे उभरती छवि दोनों ने मेरे दिल-दिमाग़ में खलबली मचा दी. मैं मित्रो के लिए खासी परेशान हुई. मैं चौकस हुई. लेखक होने के नाते मेरा कर्तव्य बनता है कि बनता है कि मैं मित्रो जैसे पात्र से इतनी छेड़छाड़ न होने दूं.”

तब कृष्णा सोबती ने दो रात और एक दिन में बिकिनी में नहाने योग्य पात्र जैनी रच डाला. अगली बैठक में उन्‍होंने जैनी की कहानी सुना दी. उन्‍होंने प्रस्‍ताव रखा कि मित्रो के बदले सुनहरे बालों वाली कनाडा में जन्मी जैनी पर ही फिल्म बनाई जाए. मगर न जैनी पर फिल्म बनी न मित्रो पर. ‘मित्रो मरजानी’ पर फिल्‍म नहीं बन सकी मगर रंगमंच पर यह कथा नुमाया हुई और देश भर में शहरों में सौ से अधिक नाट्य प्रस्तुतियां हुईं. कृष्णा सोबती ने लेखक गिरधर राठी को बताया था कि कहानी लेखक के तौर पर उन्‍हें पांच हजार रुपए का चेक भेजा गया था. मगर उन्‍होंने पैसा लेने से इंकार कर दिया था. कोई फिल्‍म बनाए, नाटक प्रस्‍तुत करे इतना ही बहुत है. इसके लिए पैसा लेना क्या जरूरी है?

कृष्‍णा सोबती का जीवन संयोगों से भरा हुआ है. कई संयोगों में एक संयोग यह भी कि उन्‍होंने रिटायर्ड आईएएस और अनुवादक शिवनाथ के साथ विवाह का भी है. दोनों की जन्मतिथि और जन्म वर्ष एक, दोनों की माताओं का नाम एक, दोनों पढ़े भी लाहौर में. 1983 में पत्नी के निधन के बादशिवनाथ अकेले 1989 में दिल्‍ली की आनंदलोक सोसाइटी के अपार्टमेंट बी-505 में रहने आ गए थे. कृष्णा सोबती ने 1990-91 में आनन्दलोक सोसाइटी का बी-503 नंबर का फ्लैट खरीदा था. सोसाइटी के पुस्तकालय का उद्घाटन करने आईं कृष्णा सोबती को सोसायटी अध्‍यक्ष शिवनाथ ने पहली बार देखा था. इसके बाद इंडियन लिटरेचर के संपादक के आग्रह पर शिवनाथ ने कृष्‍णा सोबती के उपन्‍यास ‘ऐ लड़की’ का अंग्रेजी अनुवाद किया. इसके बाद ‘डार से बिछुड़ी’ का अनुवाद शुरु किया. तब से लेकर सन् 2000 तक शिवनाथ सुख-दु:ख में कृष्‍णा सोबती के साथ रहे. अंतत: 24 नवंबर 2000 को दोनों ने मैरिज रजिस्‍ट्रार के समक्ष विवाह कर लिया.

लेखक कृष्णा सोबती और अनुवादक शिवनाथ का विवाह दोनों की 75 वर्ष की आयु में हुआ. वास्‍तव में यह मन का मिलाप था. कृष्णा सोबती के ही शब्दों में, ‘वे अपने कमरे में. मैं अपने कमरे में. मेरी आदत रात-रात भर काम करने की, सुबह देर से उठने की. उनका दिन प्रातः से शुरु. हम दोनों के स्वभाव अलग लेकिन एक दूसरे को पूरी तरह समझने वाले.’

इस संयोग जैसा ही एक और संयोग है पहली किताब का सबसे अंत में छपना. यह भी बेहद दिलचस्‍प प्रसंग है. कृष्णा सोबती ने 1954 में एक उपन्यास लिखा था ‘चन्ना’. यह उनका पहला उपन्यास था. ‘लीडर प्रेस’ इलाहाबाद ने इसे छापने का निर्णय किया. कोई 350 पेज छापने के बाद उसकी प्रति कृष्‍णा सोबती को भेजी गई. उन्‍होंने देखा कि कुछ शब्दों को बदल दिया गया है. जैसे ‘वृक्ष’ को मैंने रूख लिखा था इसीतरह शाहनी को शाहपत्नी कर दिया. स्थानीय भाषा के शब्दों को बदलने पर वे परेशान हो गईं. उन दिनों लीडर प्रेस बहुत चर्चित था. उन्होंने सोचा होगा कि पहला उपन्यास है तो बदलाव कर सकते हैं मगर कृष्‍णा सोबती अड़ गईं. बात बनी नहीं और कृष्णा सोबती ने कागज तथा छपाई का खर्चा चुका कर उपन्‍यास वापस ले लिया. तब उनके पास छोटी सी नौकरी थी फिर भी उन्होंने ऐसा निर्णय लिया था.

इस घटना के करीब 65 साल बाद राजकमल प्रकाशन ने ‘चन्‍ना’ उपन्‍यास को प्रकाशित किया. 11 जनवरी 2019 को ‘चन्ना’ उपन्यास का विमोचन हुआ और 25 जनवरी 2019 को सुबह 8 बजे कृष्णा सोबती का दिल्ली में लंबी बीमारी के बाद देहावसान हो गया. कृष्‍णा सोबती जैसे इंसान कम ही होते हैं, अपने समय के सबसे ‘बोल्‍ड’ किरदार रचने वाली कृष्‍णा सोबती जितनी साहसी लेखक थीं, विचारधारा के मामले में उतनी ही स्‍पष्‍ट भी. निर्णय पर अडिग रहने वाली कृष्‍णा सोबती को लोग बेहद संवेदनशील व्‍यक्तित्‍व और सौम्‍य मुस्‍कान के लिए याद करते हैं.

(25 जनवरी 2023 को न्‍यूज 18 में प्रकाशित ब्‍लॉग)

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