आज ऐनी आपा के नाम से चर्चित कुर्रतुलऐन हैदर की जयंती है. माना जाता है कि उर्दू अदब की एक धारा वहां से शुरू होती है जहां से कुर्रतुलऐन हैदर ने लिखना शुरू किया था. वे विभाजन के समय पाकिस्तान गईं, वहां से लंदन और फिर भारत लौटी. यहां आ कर पत्रकारिता की, साहित्य लेखन किया. उनके लिखे को पाठकों ने खूब प्यार दिया तो दिया ही संस्थाओं और सरकार ने साहित्य अकादेमी, ज्ञानपीठ, पद्मश्री, पद्मभूषण सम्मान भी प्रदान किए. तमाम रचनाओं के अलावा कुर्रतुलऐन हैदर को सबसे ज्यादा 1959 में प्रकाशित उपन्यास ‘आग का दरिया’ के लिए जाना जाता है. इस उपन्यास की जितनी प्रशंसा हुई है उतनी ही इसके बारे में गलतबयानी भी. इतना कुछ कहा गया कि आपत्तियों के बाद माफियां मांगी गईं. कुर्रतुलऐन हैदर हर गलत बयान का विरोध करती रहीं. मगर झूठ के सौ पैर होते हैं और वे गलतबयानी आज भी जारी है.
कुर्रतुलऐन हैदर का जन्म 20 जनवरी 1927 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में हुआ था. ऐनी आपा यानी कुर्रतुलऐन हैदर का पूरा नाम मुसन्निफा क़ुर्रतुल ऐन हैदर था. उनके पिता सज्जाद हैदर यलदरम कुर्अतुल नहटौर के रहने वाले थे लेकिन हैदर के जन्म के समय वे अलीगढ़ विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार थे. पिता सज्जाद हैदर यलदरम खुद उर्दू के अच्छे लेखक थे. कुर्अतुल ऐन की मां नजर जहरा भी लेखिका थी. अदब के संस्कार परिवार में ही थे तभी कुर्रतुलऐन हैदर ने छह साल की उम्र से से लिखना शुरू किया. 1945 में उनका पहला कहानी संकलन ‘शीशे का घर’ छपा. तब उनकी उम्र 18 साल थी. वे लेखिका थी और उन्होंने ताउम्र खूब लिखा. कभी साहित्य रचा तो कभी पत्रकारिता की. निधन के समय 21 अगस्त 2007 तक वे लगातार लिखाती रहीं.
भारत के विभाजन पर सबसे चर्चित उपन्यासों में से एक ‘आग का दरिया’ पर बात करने से पहले जान लें कि कुर्रतुलऐन हैदर उन लोगों में शामिल हैं जो विभाजन के वक्त पाकिस्तान चले गए थे और बाद में भारत लौट आए. उनके बारे में कहा गया कि ‘आग का दरिया’ उपन्यास पाकिस्तान में सेंसरशिप का शिकार हुआ. कट्टरपंथियों ने उनके लिखे पर हंगामा किया. उन पर पाबंदियां लगाई गईं. मगर उपन्यास के हिंदी अनुवाद की भूमिका में वे इन सारी बातों को खारिज करती हैं. कहा जाता है कि पाकिस्तान में विरोध से परेशान हो कर वे ब्रिटेन गई थीं और फिर अपने पिता के खास दोस्त मौलाका अबुल कलाम आजाद के कहने पर भारत लौट आईं. यह आधी बात सच है और आधी झूठ.
कुर्रतुलऐन हैदर ने खुद लिखा है कि वे अपनी मां का इलाज करवाने ब्रिटेन गई थीं, न कि कट्टरपंथियों या सेंसरशिप से परेशान हो कर. हां, यह सच है कि पिता के मित्र अबुल कलाम आजाद के कहने पर ही वे लंदन में न रह कर भारत लौट आई थीं. भारत आने के बाद उन्होंने ‘द टेलीग्राफ’ में रिपोर्टिंग की. ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ में संपादन किया. ‘इम्प्रिंट’ की प्रबंध संपादक रहीं. उन्होंने लगभग बारह उपन्यास और ढेरों कहानियां लिखीं. उनकी प्रमुख कहानियां में ‘पतझड़ की आवाज’, ‘स्ट्रीट सिंगर ऑफ लखनऊ एंड अदर स्टोरीज’, ‘रोशनी की रफ्तार’ जैसी कहानियां शामिल हैं. उन्होंने ‘हाउसिंग सोसायटी’, ‘सफीने गमे दिल’, ‘आखिरे- शब के हमसफर’, ‘कारे जहां दराज है’ जैसे उपन्यास भी लिखें. ‘आखिरे- शब के हमसफर’ के लिए इन्हें 1967 में साहित्य अकादमी और 1989 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला. साहित्यिक योगदान के लिए उन्हें 1984 में पद्मश्री और 1989 में उन्हें पद्मभूषण से पुरस्कृत किया गया.
मगर जिस उपन्यास के कारण वे हमेशा चर्चा में रही वह है, ‘आग का दरिया’. 1959 में इतिहास को समेटते वर्तमान की त्रासदी पर एक उपन्यास लिखा जाना क्रांतिकारी ही कहा जाएगा. इसकी शैली वैसी है जैसी बाद में हिंदी में कमलेश्वर ने ‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में अपनाई थी. विभाजन की रक्तरंजित घटनाओं पर यशपाल ने ‘झूठा सच’, भीष्म साहनी ने ‘तमस, राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गांव” जैसे उपन्यास लिखे हैं. इन सबमें प्रसिद्धि का चरम कुर्रतुलऐन हैदर के उर्दू उपन्यास ‘आग का दरिया’ ने छूआ है. यह उपन्यास में भारत के तीन हजार वर्ष के इतिहास को विभाजन की त्रासदी से जोड़ता है.
पुस्तक के अनुवादक नंद किशोर विक्रम कहते हैं कि आग का दरिया की कहानी बौद्ध धर्म के उत्थान और ब्राह्मणत्व पतन से शुरू होती है. ये तीन काल में विभाजित है, किंतु इसके पात्र गौतम, चंपा, हरिशंकर और निर्मला तीनों काल में मौजूद रहते हैं कहानी बौद्धमत और ब्राह्मणत्व के टकराव से शुरू हो कर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के टकराव तक पंहुचती है. उपन्यास देश के विभाजन की त्रासदी पर समाप्त होता है. यहां यह बात बतानी बेहद जरूरी है कि लेखिका ने विभाजन की त्रासदी को मानव त्रासदी के रूप में देखा है. मानव पीड़ा से सरोकार का यह पक्ष ‘चांदनी बेगम’, ‘चाय के बाग’ और ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ में भी दिखाई देता है.
पात्र गौतम और चंपा की एक ही इच्छा है कि वे बनारस पहुंच जाएं. उपन्यास में चंपा कहती है जब वह बनारस में पढ़ती थी तो कभी दो कौमों के सिद्धांत् पर गौर नही किया. काशी की गलियां, शिवालय और घाट मेरे भी इतने ही थे, जितने मेरी दोस्त लीना भार्गव के. फिर क्या हुआ कि जब मैं बड़ी हुई तो मुझे पता चला कि इन शिवालयों पर मेरा कोई हक नहीं, क्योंकि मैं माथे पर बिंदी नही लगाती. कुर्रतुलऐन हैदर लिखती हैं कि यहां हजारों देवी−देवता हैं. आप चाहे किंतु जिसे माने. इस्लाम में ऐसा नहीं है, वहां आपके लिए कोई आजादी नही दी गई है.
लेखक हमें अतीत से साक्षात्कार करवाते हैं और इस आधार पर हम भविष्य की इबारत लिख सकते हैं. विभाजन की त्रासदी को भी कुर्रतुलऐन हैदर की नजर से ‘आग का दरिया’ के रूप में जरूर देखा जाना चाहिए.
(20 जनवरी 2023 को न्यूज 18 में प्रकाशित ब्लॉग)
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