बौद्ध धर्म में हाथी मानसिक दृढ़ता और बुद्ध के गर्भ में आने के प्रतीक हैं. हिंदू मंदिरों और बौद्ध गुफाओं में हाथी उकेरे गए हैं. मध्य प्रदेश में भोपाल के पास भीमबेटका गुफाएँ हाथियों की सबसे पुरानी पेंटिंग हैं, जो लगभग 10,000 वर्ष पुरानी बताई जाती हैं. मुंबई के पास घारापुरी द्वीप को एलीफेंटा गुफाओं के नाम से जाना जाता है. हाथी की नक्काशी और अकेली हाथी की मूर्तियां उड़ीसा के कोणार्क सूर्य मंदिर और दक्ष प्रजापति मंदिर जैसे स्थलों पर पाई जाती हैं. ‘हस्ती आयुर्वेद’ एक ग्रंथ है जो हाथियों का आयुर्वेद है. इसे गजयुर्वेद या गजचिकित्सा कहा जाता है जो हाथियों की विभिन्न बीमारियों के उपचार की विधियां बताता हैं.
विस्तार दिया जाए तो कई संदर्भ और प्रतीक का उल्लेख किया जाएगा. मगर मुद्दा कुछ ओर है. इस सबको बताने के पीछे लक्ष्य है कि हाथी यानी गजराज हमारे जीवन का हिस्सा रहे हैं, इतना महत्वपूर्ण अंग कि उनकी उपस्थिति हमारे धर्म, कला-संस्कृति, साहित्य व आर्थिकी में विशिष्ट रही है. अब भय लग रहा है कि शक्ति, धैर्य, विवेक के प्रतीक गज कहीं वास्तव में ही प्रतीक बन कर ही न रह जाएं. इनकी सिमटी संख्या यह भय पैदा कर रही है. ये चिंताएं और भय केवल भारत की ही नहीं है बल्कि पूरी दुनिया की हैं. तभी 12 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय हाथी दिवस मनाया जाता है. यह दिन हमें याद दिलाता है कि हमारे धर्म, हमारी कहानियों और हमारे लिए प्रतीक हाथी को बचाने के प्रयास तेज करना है. इस दिन की शुरुआत 2012 में कनाडाई पेट्रीसिया सिम्स और थाईलैंड के एलिफेंट रीइंट्रोडक्शन फाउंडेशन की एचएम क्वीन द्वारा की गई थी. हर साल की तरह 12 अगस्त को एक नई योजना, एक नए रोडमैप के साथ हाथी बचाने की पहल पर बल दिया जाता है. विश्व हाथी दिवस 2023 की थीम ‘वन्य प्राणियों के अवैध व्यापार पर रोक’ लगाना है.
हाथी के संरक्षण की पहल कितनी महत्वपूर्ण है यह इस बात से समझा जा सकता है कि हर साल 16 अप्रैल को विश्व हाथी बचाओ दिवस मनाया जाता है. कोशिश यही है कि पूरी दुनिया हाथी महत्ता को जाने तथा उन्हें बचाने के जतन करें. अन्य लुप्त होते वन्य प्राणियों की तरह ही हमारे विकास ने हाथियों के अस्तित्व को संकट में डाला है. वनों में बढ़ते अतिक्रमण तथा वन संसाधनों पर शहरी इंसान के कब्जे ने वन प्राणियों के लिए खतरा बढ़ा दिया है. इस तरह पिछले कुछ सालों में एशियाई हाथियों का आवास भी कम हुआ और हाथी दांत के लिए हाथियों का शिकार भी खूब हुआ. जरा सर्च करें तो पाएंगे कि 1980 में एशिया में लगभग 93 लाख हाथी थे और अब इनकी संख्या लगातार घट रही है. एक साल पहले तक यह संख्या कम हो कर 50 हजार तक पहुंच गई है. इनमें से भी 55 फीसदी हाथी यानी 27 हजार हाथी भारत में हैं. भारत में हाथियों के रहवासी स्थल 10 हैं. ये 27 हजार से अधिक हाथी 15 राज्यों में 10 रहवास क्षेत्रों तथा 33 हाथी अभयारण्यों में रहते हैं.
भारत के लिहाज से देखें तो इंसान हाथियों के प्राकृतिक आवास क्षेत्र में बस गए हैं और बेदखल कर दिए गए हाथी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गोवा और मध्य प्रदेश के उन क्षेत्रों चले गए जहां उनका पारंपरिक आवास नहीं है. स्वाभाविक है कि इंसान के साथ उनका संघर्ष होगा. अध्ययन बताते हैं कि अपने मुख्य आहार वाली वनस्पतियों के खत्म होने के कारण भोजन और पानी की तलाश हाथी एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच गए हैं.
अपना प्राकृतिक आवास छिन लिए जाने से हाथी का स्वभाव भी बदलता जा रहा है. वे उन स्थलों पर ठहर जाते हैं जहां उन्हें अपने खाने लायक वनस्पति और रहने को जगह मिलती है। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश का सीमावर्ती क्षेत्र हाथियों के इसी बदले स्वभाग का गवाह बन रहा है. हाथियों के झुंड के आने से किसानों की फसलें बर्बाद होती है तो उनसे बचने के लिए शोर किया जाता है. और जब किसानों का धैर्य टूटने लगता है तो वे करंट के तार बिछा कर हाथियों को भगाने का जतन करते हैं. नजीतन आंकड़ें बताते हैं कि पिछले दस सालों में करंट लगने के कारण हमारे देश में ही 482 हाथियों की मौत हुई है. पहले हमने पालतू हाथी को अपने महावत के साथ शहरों-गांवों में घूमते देखा है. मगर अब आंकड़ें बताते हैं कि इंसानों और हाथियों के संघर्ष में अधिकांश जान महावत की जाती है. वह महावत जो हाथी के साथ सबसे ज्यादा समय गुजारता है. इसका कारण यह है कि महावतों को हाथी के साथ रहने या उसे पालने का कुशल पता नहीं होता. हाथी के पालन और देखरेख का कौशल समय के साथ लुप्त होता जा रहा है.
हाथी के संरक्षण की फिक्र कर रहे प्रकृति प्रेमी पिछले दिनों सरकार के उस निर्णय से चिंतित हो गए है जिसमें वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय प्रोजेक्ट टाइगर और प्रोजेक्ट एलिफैंट को एक कर दिया है. अब दोनों प्रोजेक्ट ‘प्रोजेक्ट टाइगर एंड एलिफैंट डिवीजन’ नामक नए डिवीजन के तहत मिला दिया गया है. यह प्रस्ताव 2011 में भी लाया गया था. तब राष्ट्रीय वन्यजीव स्थायी समिति के विशेषज्ञों की आपत्तियों के बाद इस प्रस्ताव को रोक दिया गया था. अब इसे लागू कर दिया गया है. यह बात अच्छी है कि प्रोजेक्ट टाइगर ने बेहतर सफलता प्राप्त की है और देश में बाघ की तादाद 2010 की 1706 बाघ की तुलना में 2023 में बढ़ कर 3167 हो गई है लेकिन फिक्र तो हाथी की है. चिंता का कारण यह है कि बाघ संरक्षण के लिए धन आवंटन 2018-19 से घट रहा है. अब दोनों प्रोजेक्ट को मिला देने से भय है कि हाथी के संरक्षण का पैसा प्रोजेक्ट टाइगर पर खर्च होने लगेगा. धन के बंटवारे में अंतर के अलावा वन्य प्राणी विशेषज्ञों का तर्क है कि बाघ और हाथी दोनों की प्रकृति अलग है और दोनों ही प्रोजेक्ट्स के लक्ष्य व चुनौतियां अलग-अलग हैं. उन्हें एक साथ मिला देने से दोनों के ही संरक्षण के प्रयासों को नुकसान पहुंचेगा.
सहअस्तिव के दर्शन को मानने वाले देश भारत में हमें हाथी जैसे बड़े प्राणी के रहने तथा खाने की फिक्र करनी होगी. यह दुर्भाग्य है कि वन्य प्राणियों को लुप्त होने से बचाने के लिए प्रोजेक्ट चलाने पड़ रहे हैं लेकिन केवल प्रोजेक्ट चलाने और संख्या बढ़ा देने से काम नहीं चलेगा. यदि ऐसे प्रोजेक्ट सफलता के बाद वन्य प्राणी बढ़ते हैं तो उनके जिंदा रहने की फिक्र भी करनी होगी.
(न्यूज 18 पर 12 अगस्त 2023 को प्रकाशित)
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