Tuesday, February 17, 2009

बसंत

रोज देखता हूँ तुम्हारी ओर

लगता है हर दिन बारह घण्टे पुरानी हो रही हो तुम ।

राशन, सब्जी, दूध, बिजली, के बढ़ते दाम

व्यस्त रखते हैं तुम्हें हिसाब -किताब में ।

नई चिन्ता के साथ केलेंडर में ही आता

है फागुन , सावन, कार्तिक ।

जिन्दगी का गुणा-भाग करते-करते

जब ढल आती है कोई लट चेहरे पर

या पोंछते हुए पसीना माथे का

मुस्कुरा देती हो मुझे देख

सच समझो उतर आता है

बसंत हम दोनों की जिन्दगी में ।

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