Thursday, July 30, 2009

जाना `हबीब´ का

यह श्रध्दांजलि 8 जून को लिखी थी जब मेरे शहर भोपाल ने चार कलाधर्मियों की मौत देखी थी। कला की सरहदें नहीं होती और इस सच को मकबूल रंग निदेशक हबीब तनवीर ने साकार किया था। उस दिन तड़के हबीबजी ही रूखसत नहीं हुए बल्कि उसी सुबह तीन कवि भी मंच को अलविदा कह गए थे....

'रंगमंच पर पड़े पर्दे की तरह/ कौन जानता है/ रात के काले परदे के पीछे कल कौन सा दृश्य खुलने वाला है।'

सोमवार सुबह जब दो फोन काल्स पर खबर मिली की रंग पुरोधा हबीबजी और शीर्षस्थ मंच कवि ओम प्रकाश `आदित्य´, नीरज पुरी और लाड़सिंह गुर्ज़र नहीं रहे, उस वक्त मुझे निमाड़ी रचनाकार प«श्री दादा रामनारायण उपाध्याय की यही पंक्तियाँ याद आई। इन सूचनाओं ने मुझे सक्रिय कर दिया और मैं जानकारी और सूचनाएँ जुटाने में व्यस्त हो गया। अपने अखबार में बेहतर सामग्री संयोजना की ख्वाहिश के बीच एक सवाल रह रह कर मुँह उठाते रहा कि चार व्यक्तित्वों का एक साथ जाना कितना सूनापन छोड़ जाएगा?हबीबजी की मौजूदगी हमें आश्वस्त करती थी कि अभी भी सबकुछ बिगड़ा नहीं है। उम्मीद जगाता यह सर्ज़क असल में दीप स्तंभ था। एक पूरी संस्था जिसने स्वप्न बुने और उन्हें साकार किया। अध्यात्म की मान ले तो आत्मा ने चोला बदला है, लेकिन बार-बार गीता सार को नकारने का मन करता है। उस देह का मोह कैसे छोड़ दें जिसकी जुम्बिशों ने इतिहास गढ़ा है।

मंच पर पढ़ी जा रही चुटकुलोंनुमां कविताओं के बीच आदित्यजी ने छंद को बरकरार रखा। उनके पास जितना शुद्ध कवित्त था, उतनी ही पवित्र भाषा भी थी। कविता पर ये भरोसा न होता तो क्या वे उम्र के 70 वें पड़ाव तक असरदार तालियों के बीच काव्य पाठ कर पाते? नीरज पुरी और लाल सिंह गुर्ज़र हमारे प्रदेश के है। इनकी कविताएँ सुन कई शहरों के काव्य प्रेमी रश्क करते थे-`काश! ये हमारे शहर के होते तो रोज मिला करते।´एक खास तरह की ख्वाहिश, एक खास तरह धुन और एक खास तरह की जिद पालने वाले चार फनकार एक साथ रूखसत हो गए।

कहते हैं, अच्छे लोगों की भगवान के घर भी जरूरत होती है, क्या वहाँ भी अच्छाई का इतना टोटा हो गया है? ऊपर वाले से नाराजी और भी है, ये क्या कि कविता रचने वालों को इतने क्रूर तरीके से बुला लिया। हास्य चाहने वालों ने अब तक मुंबई लोकल ट्रेन में श्याम ज्वालामुखी के खोने का गम भुलाया भी नहीं था कि अब ये जख्म मिल गए। मंच भले ही सूना नहीं होगा, शो चलता रहेगा लेकिन अब वैसी टेर लगाने वाले न होंगे। कवि भले ही जिंदगी को केन्द्र में रख कविताएँ लिखते हों मगर जिंदगी तो हर पल कविताएँ रचती रहती है। इस बार भी जिंदगी ने दुखांत कविता रची है।

हमारे `हबीब´ हम से छिन कर, वह फिर हमें आजमा रही है।

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