Friday, November 19, 2010

यूँ ही साथ चलते-चलते

आज बरबस ही चाँद याद आ रहा है। शरद पूर्णिमा पर चाँद पूरे शबाब पर होता है, अपनी 64 कलाओं के साथ। यूँ देखें तो चाँद केवल एक उपग्रह हैं और भावनात्मक दृष्टिकोण कहता हैं कि चाँद हमारा 'मामा" है। बचपन में परिवार के बाहर अगर किसी से नाता जुड़ता है तो वो चन्दा मामा ही है और युवावस्था में जब किसी से दिल जुड़ता है तो वो भी चाँद ही नजर आता है। चाँद हमारी कल्पनाओं, साहित्य, फिल्मों, विज्ञान शोध् का विषय रहा है और अब तो यहाँ ख्वाब के आशियाने की जमीन है। शायद ही कोई होगा जिसे ये प्रेम में यह जमीन चाँद से बेहतर नजर न आई होगी और माशूक चाँद से खूबसूरत न दिखलाई दी होगी। किसी ने इसमें दाग देखे, किसी ने इसे रोटी माना, कोई इसे फतह करने निकला। शायद ही कोई साहित्यकार होगा जिसने चाँद को देख कर कोई रचना न की होगी या लिखने का ख्याल न किया होगा। साहित्य में चाँद कई बिम्ब और रूपों में मुखरित हुआ है। यह प्रेम, बिछोह, मिलन का प्रतीक ही नहीं बल्कि नौ रसों की अभिव्यक्ति का माध्यम बना है। भले ही चांद साहित्य का सबसे प्राचीन विषय हो लेकिन समकालीन कवियों ने नई कविता में भी चाँद पर खूब लिखा है। नई कविता में चांद को लेकर नए और ताजा बिम्ब गढ़े गए हैं।


अशोक वाजपेयी की एक कविता में चाँद अलग प्रतीक बन कर आया है-

 'चांद के तीन टुकड़े हैं/
जिनमें से एक मेरे पास है/
मेरी आंखो में, मेरे दिल में/
और एक तुम्हारे पास है/
चांद का एक टुकड़ा और है/
जिसे मैं तुमसे बचाकर/
किन्हीं और आंखों में/
धीरे से खिसकाया करता हूं।"

जबकि उदयप्रकाश अपनी कविता 'चंद्रमा" में चांद को काव्यात्मक सबजेक्टिविटी के बजाय वैज्ञानिक तथ्यों के जरिए देखा है। चाँद के लिए वे लिखते हैं-

'यह रोशनी भी उसकी नहीं सूर्य की है/
 वह तो है पृथ्वी से छह गुना छोटा मिट्टी का एक अंधा ढेला/
चंद्रमा की मिट्टी में नहीं पैदा होता गेहूं/
चंद्रमा में नहीं रहते किसान वहां नदियां नहीं बहती/
वहां समुद्र का नदियों का ऋतुओं का प्रेम और वीर नायकों का कोई मिथक नहीं।"

युवा कवि पवन करण अपनी कविता में चांद को कुछ यूं बयां करते हैं-

''इस चांद के बारे में तुम कुछ भी नहीं जानते/
एक नंबर का धोखेबाज है/
ये एकदम बिगड़ा नवाब/इसकी संगत ठीक नहीं/
ये तुम्हें कहीं का भी नहीं छोड़ेगा/
कहीं भी फंसा देगा/
इसका काम ही आवारागर्दी करना है।"

चाँद के साथ मैं भी आवारगर्दी करने निकल आया था। यूँ ही साथ चलते-चलते।

2 comments:

  1. अच्छा विश्लेषण किया है. सुंदर प्रस्तुति.

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  2. पंकज भाई अच्छी आदत है, चांद के साथ आवारागर्दी करने की। अब इतना कुछ संकलित कर दिए तो रघुवीर सहाय की रचनाओं से हम भी चुरा लाएं हैं ‘चांद की आदतें’ ...
    चांद की कुछ आदते हैं।
    एक तो वह पूर्णिमा के दिन बड़ा-सा निकल आता है
    बड़ा नकली (असल शायद वही हो)।
    दूसरी यह, नीम की सूखी टहनियों से लटक कर।
    टंगा रहता है (अजब चिमगादड़ी आदत!)
    तथा यह तीसरी भी बहुत उम्दा है
    कि मस्जिद की मीनारों और गुम्बद की पिछाड़ी से
    ज़रा मुड़िया उठा कर मुंह बिराता है हमें!
    यह चांद! इसकी आदतें कब ठीक होंगी।

    बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    फ़ुरसत में .... सामा-चकेवा
    विचार-शिक्षा

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