Wednesday, November 24, 2010

किताब सी तुम

जिंदगी क्या है? कभी सोचा तुमने? मैं सोचता रहता हूँ अकसर। जब कभी में होता हूँ इश्क में तो गुमान होता है कि मैं इक शायर और जिंदगी मेरी गजल जैसे। कभी-कभी मैं होता अफसानानिगार और ये जिंदगी सुहाना अफसाना जैसे। कभी मिल जाए तो जगमग रोशनी और न मिले तो रूमानी ख्याल जैसे।
'अमां यार, तुम भी क्या जिंदगी को समझाने बैठ गए। यह कोई किताब है कि पन्ने  दो पन्ने पढ़े और जान लिया कि बंद किताब में क्या लिखा है लिखने वाले ने। फिजुल कहते हो कि किताबों की तरह है जिंदगी और इंसान एक-एक पन्ने , एक-एक हर्फ की तरह। जिंदगी को समझने चले हो पहले इंसानों को तो समझ लो।'

मैं गलत नहीं कहता मियाँ। जिंदगी मेरे लिए एक किताब ही है और इंसान इसके किरदार। यकीन न हो तो कुछ नमूना पेश करूँ? कहो तो? रूठ गए लगता है। चलो, मैं ही बताता हूँ। वह एक किरदार था या जाने कोई किताब, पर था बड़ा मनमौजी। वरक देख कर लगता था कि किताब बड़ी रोचक होगी। जब से देखा था उसे लगता था, जब खुलेंगे पन्ने , एक-एक कर तो जाने क्या सितम गुजरेगा। खुदा जाने कहर बरपेगा या कयामत होगी। सुनने वाले बताते हैं, वह जो किरदार था सच में किसी किताब से कम न था। बोले तो तोल कर ऐसे कि अच्छो-अच्छो को चुप कर दे।

साहब, बताते हैं कि हर बात उसकी जैसे सोलह आने सच। ऐसे ही किस्सों के चलते वह किताब मेरी जिंदगी का एक किरदार हो गई भी समझो। सोते, जागते हरदम लगता था कब वह हाथ लगे और पढ़ डालूँ उसे। एक ही रात में एक ही साँस में। पता है, वह उन सारे किरदारों में सबसे जुदा थी जो खुदा ने रखे थे उसके साथ। एक दम सुनहरी जिल्द वाली उस रूहानी किताब की तरह जो शेल्फ में सजी दूसरी किताबों से अलग, साफ दिखाई दे जाती है, अपनी चमक और दमक से। कहते हैं, किताब का वजन उसके आकार को देख कर तय नहीं करना चाहिए। यह किताब भी कुछ ऐसी ही थी। देखो तो बित्ती सी, जानो तो जैसे कभी खत्म ही ना होगी। सोचता था लिखने वाले ने भी क्या कयामत कही होगी। जब भी शेल्फ में रखी इस किताब को देखता तो बस देखता ही रहता। मन करता कि जरा हाथ बढ़ा कर उसे अपने कब्जे में ले लूँ और पढ़ डालूँ  उसके एक-एक हर्फ को। काश! वो मौका जल्दी आ जाए।

' फिर? फिर क्या हुआ? वह किताब तुम्हें मिली? कभी तुमने पढ़ी वो किताब?'

अच्छा मियाँ! मेरी सुन रहे थे? मैं तो समझा तुम खो गए होगे किसी किरदार के सपनों में। अब तुमने पूछा है तो बताता हूँ। हाँ, हाँ, हाँ। वह किताब मेरे हाथ भी लगी और मैंने पढ़ी भी। खूब पढ़ी। हुआ यूँ कि एक दिन मौका पा कर मैंने दुकानदार की नजर बचा उस किताब को कुछ देर के लिए चुरा लिया और ले आया अपने पसंद के कॉफी शॉप पर। तुम उसे रेस्त्रां भी कह सकते हो। समय कम था और मैं हैरां। क्या खोलूँ, क्या जानूँ। कुछ समझ नहीं पा रहा था। जल्दी-जल्दी कुछ पन्नो पलटे। किताब नहीं जैसे जिंदगी की इबारत थी। हर लाइन एक फलसफा। हर हर्फ एक घटना। सबकुछ जाना तो यह पाया कि यह किताब कितनी उजली है! जैसे स्याह रात में चमकता जुगनू।

'फिर?फिर? क्या जाना?'

मैंने कहा ना, वक्त कम था तो जल्दी से कुछ हर्फ पढ़, रख आया उसे अपने ठिकाने पर ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो। वो भी अपने रैक में रखी ऐसे मुस्कुरा रही थी जैसे मेरी छुअन के निशान दिखा कर मुँह चिड़ा रही हो मुझको। मियाँ,ऐसे एक-एक दिन, एक-एक लम्हा में पढ़ता गया उसे जैसे वह एक किताब हो। कभी उसकी जुबानी सुनी, कभी मैंने खुद खोले राज जो दफ्न थे उसके भीतर, घटनाएँ बन कर। अब सोचता हूँ उस नन्हीं-सी किताब में जाने कितने जमाने बिखरे पड़े थे। कभी उसकी पंक्तियाँ यूँ चमक उठती जैसे खिलखिला के हँसता है कोई और कभी वो ऐसे झूम के लग जाती गले कि माशूका-सी महसूस होती। कभी उसकी गुत्थियाँ यूँ पीछे पड़ती जैसे दुश्वारियाँ। कभी साथ चल पड़ती ऐसे, जैसे हमारा कोई दूसरा वजूद न हो। क्या जाने वो किताब थी या प्रेमी मेरी?

क्या कहूँ? क्या बताऊँ, क्या छुपाऊँ? उसे पढ़ते-पढ़ते लगा जैसे उसको पहले से जानता हूँ मैं। कभी लगता कि ऐसा होता उसके एक किरदार का नाम मेरा होता। मैं कभी उसके संग समंदर की लहरों में छलांगें लगाता, कभी गोद में उसकी सर रख, सो ही जाता। क्या भरोसा वो सो जाती कभी मेरी तहों में जैसे खो जाते है दो जिस्म चादर की सिलवटों में। क्या जाने, क्या होता। वो मेरी होती, मैं उसका होता।

'मियां, तुम तो कविता कहने लगे। अपना अफसाना ना बताओ। जरा वो सुनाओ जो तुमने पढ़ा था उस किताब में।'

हाँ, हाँ। वही सुनाता हूँ।  एक दिन, दो दिन, तीन दिन। दिन, महीना, साल गुजरते गए। किताब मेरे संग ही रहने लगी। मुँहबोली हो गई मेरी। कभी मेरे संग सो जाती, कभी जी करता तो दूर तक टहल आती और कभी जी करता तो कुतर देती मुझे अपने पैने दाँतों से। दाँत! हाँ, विचार दाँत ही तो होते हैं ना।
 'सच कहते हैं किताबों को गौर से पढ़ो तो वे बिल्कुल अपनी जान पड़ती है, जरा करीब जाओ तो डूब जाओ उसकी खुमारी में।'
खूब जाना मैंने उसे। कभी हाथों के बीच रख कर पढ़ा तो कभी संग लेकर खो गया ख्वाबों में। कुछ रातें जली ऐसे जैसे घी-बाती रोशन कर रही हो सूरज से किया वादा। उजास सी वह किताब जब भी पढ़ी मैंने, हर बार हर्फ ने उसके मुझमें उगाए अर्थ कई नए।

'यह भी खूब कही। मियाँ तुम किताब का किस्सा सुनाते हो या अपनी हाँक लगाते हो? उस किताब के किस्से में अपना दर्द, अपना रंज क्यों मिलाते हो?'

माफ करना मियां। सच कहते हो। वह किताब भी कहती है-'तुम क्या जानों। हर सुख में जीने वाले। तुम्हें क्या पता, कैसे बनती है किस्मत और कैसे बिगड़ती है सूरत अपने इरादों की। कौन है जो तुम्हें बार-बार तोड़ने, मोड़ने की कोशिश करता है? तुम तो अपने मन के राजा हो। जब चाहे जो करते हो? बताओ कभी किसी ने किया तुमसे कोई सवाल?  बोलो?  बोलो कभी किसी ने लगाया तुम्हारा मोल? कभी तुम सजाए गए शेल्फ में? कभी तुमने कुर्बान की बेहतर इंसान से पढ़े जाने की हसरत? तुम किताब कहते हो मुझे। जिंदगी हूँ मैं! भले कितना पढ़ लो, समझ न पाओगे।"

सच कहती थी वह। कहाँ मैंने समझा है? कितने ही पन्ने बिना सुलझे रह गए। जवाब खोजते खोजते और भटक गया मैं। जवाब माँगा तो कहने लगी- 'बस, थक गए।  ये प्रेम का दरिया है और डूब कर जाना है। जब तुम्हे लगे कि पार कर गया मैं, तभी समझना कि आगे कोई मुसीबत पेश होने को है। नाउम्मीद मत होना। असल में ये उम्मीद भी तो एक मुसीबत है। अपने पास है तो मुसीबत ना है तो मुसीबत। तुम ही बताओ कौन सी मुसीबत अजीज है।"
 भई, ये किताब क्या कहती है, अपनी तो कुछ समझ ही नहीं आता। जब भी उलझ जाती है जिंदगी, मैं खामोशी का चादर ओढ़ लेता हूँ जैसे बोझिल होने पर किताब बंद कर सो जाते हैं मुसाफिर।

जानते हो मियाँ। जिंदगी को हम ही नहीं पढ़ते वो भी हमें पढ़ती है, आजमाती है। और कभी-कभी हमारी बोलती भी बंद कर देती है। तभी तो हम कहते हैं जिंदगी का कोई जवाब नहीं। कुछ ऐसी ही किताबें भी होती हैं। कितना ही पढ़ो, लगता है, कुछ न जाना हमने। हर बार जब भी खोलो कोई पेज तो लगता है कुछ नया-नया सा है इन हर्फों में। भले दर्जनों बार पढ़ा हो उन पंक्तियों को। बीसियों बार फेर के हाथ देखा हो कुछ उठी, कुछ गिरी बुनावटों को।

एक बार की और बात बताऊँ। शायद सपना था, या सपने सी थी कोई हकीकत मेरी। किताब को हाथ में  ले बैठ गया मैं। कभी वरक के छू कर महसूसता तो कभी पलट कर उसे गालों से लगा लेता अपने। ऐसे महसूस करता मैं उसकी ािग्ध्ाता। कभी सहलाता रहता उसके हर्फों को जैसे जिस्म हो आगोश में और चैन खोज रहा हूँ मैं। वो उलटती-पलटती, कभी झुकती मेरे काँधें पर कभी गिरती मेरी गोद में, कभी हाथों में समा कर मेरे, खुद को भिगो लेती अपने ही वजूद में। किताबों का बातें करने का जरिया कितना अलहदा है, हम इंसानों से! वह भी मुझे उतार लेती भीतर अपने। कभी बेकरार लौट कर जाने न दिया। जब कभी विचारों ने पैदा की गर्मी तो वह ठंडा पानी डालती अपनी ओर से और कहती अभी तुम सही, बाद में सोचोगे तो जान जाओगे किताबें कभी गलत नहीं होती। क्या जिंदगी के किसी फलसफे को तुम गलत साबित कर पाए हो, चाहे जीवन भर कितने ही दफे उसके खिलाफ बका हो तुमने। जब कभी फूलने लगती नसें मेरी, वही तो थी तो इत्मिनान से थामती और बहा ले जाती संग। उसे पढ़ते-पढ़ते कितनी ही बार तटबँध तोड़ बही है धाराएँ , कितने ही मानसून बरसे हैं और कितने ही पतझड़ में पीले पात झरे हैं।

सोचता हूँ जिंदगी और किताब में कुछ अंतर होता है क्या?
या अपनी पसंद की किताब ही अपनी पसंद का किरदार होती है?

2 comments:

  1. last week i had been to a dentist for a tooth job ,i know at such places ypou have to sit and wait for hours , so i took a book to read with me . There were 4 persons in the que in front of me and 6 or 7 after me .

    so i started reading the book , the dentist saw some tears in my eyes and came to me , saying aap ki ankhon me ansoo hai lagta hai aap ko jyada dard ho raha hai , aap pehle aa jayeye .

    the fact is i was reading SANPNO KE AAAS PAS and it was a poem about PITA (father) and i got sentimental and the doctor presumed that i was crying because of tooth ache . it was so touching .
    you are wonderful
    love you
    pankaj ji

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  2. अद्भूत लिखा है। पढ़कर लगता है कि अखबारों की खबरें, आलेख तो धोखा है। सही, सच्चा लेखन ऐसा ही होना चाहिए। वैसे इस तरह का लेखन कम पढ़ता हूं, लेकिन जब पढ़ता हूं तो खूब पढ़ता हूं। फिर से बधाई बहुत अच्छा लिखा है।
    - jitendra chourasiya

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