नागार्जुन की कविता -
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
Thursday, December 30, 2010
Wednesday, December 29, 2010
मुझमें अटकी हैं आपकी साँसें
पत्रकार साथी मोहम्मद फैजान के खींचे फोटो पर अपनी बात
'मैं कभी भी गिर पडूँगा क्योंकि मेरे पैरों के नीचे की जमीन लगातार कम पड़ रही है। मुझे गिराने वाले हाथ तुम्हारे हैं और खतरा तुम पर भी है लेकिन तुम इस खतरे से अनजान हो। दुष्यंत के बोल में कहूँ तो -तुम्हारे पाँव के नीचे कोई जमीन नहीं/कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।"
भोपाल की कलियासोत नदी में खड़ा यह पेड़ अगर बोल सकता तो शायद यही कहता। संभव है वह ठहाके मार इंसान के स्वार्थ पर मखौल उड़ाता। आखिर हम से ज्यादा स्वार्थी कौन होगा जो थोड़े से मुनाफे की खातिर अपने जीवन सहायक तंत्र को ही खत्म करने पर तूला है? इंसान सियासी भी है और स्वार्थी भी, तभी तो जिससे प्यार जताता है उसकी को काटता है।
यकीन न आए तो केवल नर्मदा पाइप लाइन बिछाने के दौरान काटे गए पेड़ों का हिसाब देख लीजिए। जवाब मिलेगा- 11 सौ पेड़। बीआरटीएस के तहत सड़क चौड़ी करने के लिए 2 हजार 333 और बीना से भोपाल के बीच तीसरी रेल लाइन के लिए 20 हजार पेड़ काटे जाएँगे। नानके पेट्रोल पम्प के सामने बाजार बनाने के लिए 78 हरे वृक्षों को मार दिया गया है। इन में उन पेड़ों का हिसाब नहीं है जिन्हं आपका आशियाना बनाने या सजाने के लिए काटा गया।
आप जानते हैं, भोपाल की हरियाली खत्म हो रही है। यकीन न हो तो इस रविवार कोलार, हथाईखेड़ा डेम, रायसेन रोड, भदभदा रोड, लहारपुर, बैरागढ़ चिचली, गोरा, बरखेड़ी कलां, फतेहपुर डोबरा, नीलबड़, बोरवन, खजूरीकलां व आसपास घूम कर तो आईए, सब पता लग जाएगा। यहाँ कॉलोनियां और शिक्षण संस्थानों के भवन बन रहे हैं और इन्हें भू उपयोग परिवर्तन की अनुमति उसी संचालनालय नगर तथा ग्राम निवेश ने ही जो पुराने पड़ चुके नए मास्टर प्लान के मसौदे में इस भूमि को कृषि और हरी भूमि मान रहा है!
अगर यह पेड़ बोल सकता तो जरूर कहता-
'आप मुझे तो नहीं बचा सकते लेकिन उन पेड़ों को जरूर बचा लीजिए जो आपके शहर में हरदिन काटे जा रहे हैं। वे पेड़ जिन्हें आपके पुरखों ने रोपा था कि आपको शुद्ध वायु मिल सके। अगर अभी नहीं जागे तो आपके बच्चों को साँस लेने में तकलीफ होगी।"
'मैं कभी भी गिर पडूँगा क्योंकि मेरे पैरों के नीचे की जमीन लगातार कम पड़ रही है। मुझे गिराने वाले हाथ तुम्हारे हैं और खतरा तुम पर भी है लेकिन तुम इस खतरे से अनजान हो। दुष्यंत के बोल में कहूँ तो -तुम्हारे पाँव के नीचे कोई जमीन नहीं/कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।"
भोपाल की कलियासोत नदी में खड़ा यह पेड़ अगर बोल सकता तो शायद यही कहता। संभव है वह ठहाके मार इंसान के स्वार्थ पर मखौल उड़ाता। आखिर हम से ज्यादा स्वार्थी कौन होगा जो थोड़े से मुनाफे की खातिर अपने जीवन सहायक तंत्र को ही खत्म करने पर तूला है? इंसान सियासी भी है और स्वार्थी भी, तभी तो जिससे प्यार जताता है उसकी को काटता है।
यकीन न आए तो केवल नर्मदा पाइप लाइन बिछाने के दौरान काटे गए पेड़ों का हिसाब देख लीजिए। जवाब मिलेगा- 11 सौ पेड़। बीआरटीएस के तहत सड़क चौड़ी करने के लिए 2 हजार 333 और बीना से भोपाल के बीच तीसरी रेल लाइन के लिए 20 हजार पेड़ काटे जाएँगे। नानके पेट्रोल पम्प के सामने बाजार बनाने के लिए 78 हरे वृक्षों को मार दिया गया है। इन में उन पेड़ों का हिसाब नहीं है जिन्हं आपका आशियाना बनाने या सजाने के लिए काटा गया।
आप जानते हैं, भोपाल की हरियाली खत्म हो रही है। यकीन न हो तो इस रविवार कोलार, हथाईखेड़ा डेम, रायसेन रोड, भदभदा रोड, लहारपुर, बैरागढ़ चिचली, गोरा, बरखेड़ी कलां, फतेहपुर डोबरा, नीलबड़, बोरवन, खजूरीकलां व आसपास घूम कर तो आईए, सब पता लग जाएगा। यहाँ कॉलोनियां और शिक्षण संस्थानों के भवन बन रहे हैं और इन्हें भू उपयोग परिवर्तन की अनुमति उसी संचालनालय नगर तथा ग्राम निवेश ने ही जो पुराने पड़ चुके नए मास्टर प्लान के मसौदे में इस भूमि को कृषि और हरी भूमि मान रहा है!
अगर यह पेड़ बोल सकता तो जरूर कहता-
'आप मुझे तो नहीं बचा सकते लेकिन उन पेड़ों को जरूर बचा लीजिए जो आपके शहर में हरदिन काटे जा रहे हैं। वे पेड़ जिन्हें आपके पुरखों ने रोपा था कि आपको शुद्ध वायु मिल सके। अगर अभी नहीं जागे तो आपके बच्चों को साँस लेने में तकलीफ होगी।"
Monday, December 27, 2010
वायदा कारोबार से शकर होगी कड़वी
केन्द्र सरकार ने 5 लाख टन शकर के निर्यात को हरी झंडी दे है। इस फैसले का मकसद अंतराष्ट्रीय बाजार में शकर के बढ़ते भावों का फायदा उठाना है, लेकिन इस निर्णय के बाद चीनी के दाम में तत्काल इजाफा हो गया। अब सोमवार से 19 महीनों बाद राजधानी सहित देश के अन्य हिस्सों में इसका वायदा कारोबार फिर शुरु हो गया है। ऐसे में शकर फिर कड़वी होने का अंदेशा है। पहले ही महंगाई की मार से त्रस्त जनता के लिए यह एक और झटका होगा।
उल्लेखनीय है कि दो साल पहले भी शकर के आसमानी भावों ने आम लोगों को हलकान कर दिया था। शकर का वायदा बाजार शुरु होते ही इसके दाम 45 रु. किलो तक जा पहुँचे थे। भारी आलोचना और हंगामें के बाद सरकार ने मई 2009 में शक्कर के वायदा कारोबार पर रोक लगा दी थी। लेकिन अब वायदा बाजार आयोग (एफसीसी) ने शकर की खरीद बिक्री को औपचारिक मंजूरी दे दी है। सूत्रों के अनुसार यह अनुमति चीनी के बेहतर उत्पादन की संभावना को देखते हुए दी गई है। उद्योग जगत को इस साल 2 करोड़ 55 लाख टन शकर पैदावार की उम्मीद है। जबकि सरकारी अनुमान 2 करोड़ 45 लाख टन का बताया जा रहा है। नेशनल फेडरेशन ऑफ कोऑपरेटिव शुगर फैक्टरीज का अनुमान है कि 2010-11 में देश में गन्ना उत्पादन 10 प्रतिशत बढ़कर करीब 30 करोड़ टन पहुँच जाएगा। वर्ष 2009-10 में 27.4 करोड़ टन गन्नाा उपजाया गया था।
उधर, विशेषज्ञों का मानना है कि शकर के निर्यात और वायदा कारोबार शुरू होने के साथ ही शकर के दाम फिर आसमान पर चले जाएँगे। उदाहरण के लिए 1 दिसंबर 2010 को शकर 29 रु.किलो बिक रही थी, लेकिन 20 दिसंबर को केन्द्रीय कृषि मंत्री का बयान आते ही शकर के दाम अब 34 रु. किलो हो गए। हमे याद रखना होगा कि यह वायदा कारोबार ही था, जिसके कारण 2006 में 12 रुपए किलो बिकने वाली चीनी के दाम चालीस पार चले गए थे।
यह भी एक घोटाला है
अर्थशास्त्री डॉ. आरएस तिवारी कहते हैं कि शकर मिलों और केन्द्रीय मंत्री शरद पवार का रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। चीनी को वायदा कारोबार में शामिल करने से जनता का फायदा नहीं होने वाला। आवश्यक वस्तुओं को वायदा कारोबार में शामिल करना दरअसल एक तरह का आर्थिक घोटाला ही है।
डिलीवरी आधारित हो कारोबार
कल्पतरू इंवेस्टर्स के आदित्य जैन मनयां कहते हैं कि सरकार को शकर मिल मालिकों और किसानों को फायदा देना और कीमतों पर लगाम रखना है तो शकर मिल मालिकों और किसानों को फायदा देना और कीमतों पर भी लगाम रखना है तो उसे शकर सहित आवश्यक वस्तुओं का वायदा कारोबार डिलीवरी आधारित करना चाहिए। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में ऐसा होता है।
उल्लेखनीय है कि दो साल पहले भी शकर के आसमानी भावों ने आम लोगों को हलकान कर दिया था। शकर का वायदा बाजार शुरु होते ही इसके दाम 45 रु. किलो तक जा पहुँचे थे। भारी आलोचना और हंगामें के बाद सरकार ने मई 2009 में शक्कर के वायदा कारोबार पर रोक लगा दी थी। लेकिन अब वायदा बाजार आयोग (एफसीसी) ने शकर की खरीद बिक्री को औपचारिक मंजूरी दे दी है। सूत्रों के अनुसार यह अनुमति चीनी के बेहतर उत्पादन की संभावना को देखते हुए दी गई है। उद्योग जगत को इस साल 2 करोड़ 55 लाख टन शकर पैदावार की उम्मीद है। जबकि सरकारी अनुमान 2 करोड़ 45 लाख टन का बताया जा रहा है। नेशनल फेडरेशन ऑफ कोऑपरेटिव शुगर फैक्टरीज का अनुमान है कि 2010-11 में देश में गन्ना उत्पादन 10 प्रतिशत बढ़कर करीब 30 करोड़ टन पहुँच जाएगा। वर्ष 2009-10 में 27.4 करोड़ टन गन्नाा उपजाया गया था।
उधर, विशेषज्ञों का मानना है कि शकर के निर्यात और वायदा कारोबार शुरू होने के साथ ही शकर के दाम फिर आसमान पर चले जाएँगे। उदाहरण के लिए 1 दिसंबर 2010 को शकर 29 रु.किलो बिक रही थी, लेकिन 20 दिसंबर को केन्द्रीय कृषि मंत्री का बयान आते ही शकर के दाम अब 34 रु. किलो हो गए। हमे याद रखना होगा कि यह वायदा कारोबार ही था, जिसके कारण 2006 में 12 रुपए किलो बिकने वाली चीनी के दाम चालीस पार चले गए थे।
यह भी एक घोटाला है
अर्थशास्त्री डॉ. आरएस तिवारी कहते हैं कि शकर मिलों और केन्द्रीय मंत्री शरद पवार का रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। चीनी को वायदा कारोबार में शामिल करने से जनता का फायदा नहीं होने वाला। आवश्यक वस्तुओं को वायदा कारोबार में शामिल करना दरअसल एक तरह का आर्थिक घोटाला ही है।
डिलीवरी आधारित हो कारोबार
कल्पतरू इंवेस्टर्स के आदित्य जैन मनयां कहते हैं कि सरकार को शकर मिल मालिकों और किसानों को फायदा देना और कीमतों पर लगाम रखना है तो शकर मिल मालिकों और किसानों को फायदा देना और कीमतों पर भी लगाम रखना है तो उसे शकर सहित आवश्यक वस्तुओं का वायदा कारोबार डिलीवरी आधारित करना चाहिए। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में ऐसा होता है।
Thursday, December 16, 2010
पेट्रोल की मात्रा पर कर क्यों नहीं लगाते सरकार!
पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि से परेशान जनता का यह एक सवाल मँहगाई पर घड़ियाली आँसू बहा रही राजनीतिक दलों को खामोश कर सकता है।
पेट्रोल-डीजल की लगातार बढ़ती कीमतों और उसके कारण टैक्स की कमरतोड़ मार से जनता हलाकान है। जब टैक्स घटाने की बात आती है तो केन्द्र और राज्य सरकारें एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ने लगती है। कर कम करने की पहल कोई नहीं करना चाहता। विशेषज्ञों के अनुसार सरकारें यदि टैक्स पेट्रोलियम पदार्थ के मूल्य के बजाए मात्रा पर लगाना शुरु कर दें तो भी अवाम को 2 रु. प्रति लीटर की राहत मिल सकती है। हकीकत यह है कि केन्द्र व राज्य सरकारें मिलकर पेट्रोल-डीजल पर 55 फीसदी कर वसूल रही हैं। इससे हर साल पौने 2 सौ हजार करोड़ रु. से अधिक की कमाई हो रही है।
दरअसल पेट्रोल की 50 फीसदी और डीजल की 31 फीसदी कीमत सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले करों एक्साइज ड्यूटी और वेट के कारण ज्यादा है। 2001-02 में केन्द्र और राज्य सरकारें तेल क्षेत्र से करीब 73 हजार 800 करोड़ कमाती थी। 2007-08 में यह आँकड़ा 164 हजार करोड़ हो गया। जिस तेजी से पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं, उतनी ही तेजी से कम्पनियों और सरकार का मुनाफा भी। मुनाफे की एक वजह कर निर्ध्ाारण का तरीका भी है। करीब 25 फीसदी कर केंद्र सरकार लगाती है तो करीब 30 फीसदी कर राज्य सरकार लगाती है। उत्पाद शुल्क का एक हिस्सा और राज्य सरकार द्वारा लगाए जा रहे सभी कर 'एड वेलोरम" लगाए जाते हैं यानी ये कर मात्रा पर नहीं बल्कि कीमत पर लगाए जाते हैं। अगर कीमत बढ़ेगी तो कर की दर भी बढ़ेगी। विशेषज्ञ बताते हैं कि मात्रा के आध्ाार पर कर लगाने से दाम में करीब 2 रूपए तक की गिरावट हो सकती है।
घाटा केवल वितरक कंपनियों का
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने पर दाम बढ़ाने के लिए हायतौबा मचती है। दाम बढ़ाने के लिए जिस घाटे का हवाला दिया जाता है वह केवल विक्रेता कम्पनी का घाटा है। तेल उत्पादक कम्पनियाँ तो हमेशा फायदे में रहती है। खुदरा तेल बेचने वाली हिंदुस्तान पेट्रोलियम या भारत पेट्रोलियम जैसी कंपनियां तेलशोधक कारखानों से तेल उस कीमत पर खरीदती हैं, जिस कीमत पर ये तेल उन्हें आयात करने पर मिला होता। इस कीमत में कर और ढ़ुलाई का खर्चा शामिल होता है। इन कम्पनियों को भारत में ही उत्पादित होने वाला तेल आयात वाले दामों पर ही दिया जाता है। तेल के इस खेल में जनता पीसती है और सरकार व कम्पनियाँ मुनाफा कमाती है।
# तेल पर सरकार 'एड वेलोरम" कर लगाती है। यह कीमत पर लगने वाला कर है। अगर इसे मात्रा पर लगाया जाए तो पेट्रोल-डीजल की कीमत कम हो जाएगी।
आरएस तिवारी, अर्थशास्त्री
पेट्रोल-डीजल की लगातार बढ़ती कीमतों और उसके कारण टैक्स की कमरतोड़ मार से जनता हलाकान है। जब टैक्स घटाने की बात आती है तो केन्द्र और राज्य सरकारें एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ने लगती है। कर कम करने की पहल कोई नहीं करना चाहता। विशेषज्ञों के अनुसार सरकारें यदि टैक्स पेट्रोलियम पदार्थ के मूल्य के बजाए मात्रा पर लगाना शुरु कर दें तो भी अवाम को 2 रु. प्रति लीटर की राहत मिल सकती है। हकीकत यह है कि केन्द्र व राज्य सरकारें मिलकर पेट्रोल-डीजल पर 55 फीसदी कर वसूल रही हैं। इससे हर साल पौने 2 सौ हजार करोड़ रु. से अधिक की कमाई हो रही है।
दरअसल पेट्रोल की 50 फीसदी और डीजल की 31 फीसदी कीमत सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले करों एक्साइज ड्यूटी और वेट के कारण ज्यादा है। 2001-02 में केन्द्र और राज्य सरकारें तेल क्षेत्र से करीब 73 हजार 800 करोड़ कमाती थी। 2007-08 में यह आँकड़ा 164 हजार करोड़ हो गया। जिस तेजी से पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं, उतनी ही तेजी से कम्पनियों और सरकार का मुनाफा भी। मुनाफे की एक वजह कर निर्ध्ाारण का तरीका भी है। करीब 25 फीसदी कर केंद्र सरकार लगाती है तो करीब 30 फीसदी कर राज्य सरकार लगाती है। उत्पाद शुल्क का एक हिस्सा और राज्य सरकार द्वारा लगाए जा रहे सभी कर 'एड वेलोरम" लगाए जाते हैं यानी ये कर मात्रा पर नहीं बल्कि कीमत पर लगाए जाते हैं। अगर कीमत बढ़ेगी तो कर की दर भी बढ़ेगी। विशेषज्ञ बताते हैं कि मात्रा के आध्ाार पर कर लगाने से दाम में करीब 2 रूपए तक की गिरावट हो सकती है।
घाटा केवल वितरक कंपनियों का
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने पर दाम बढ़ाने के लिए हायतौबा मचती है। दाम बढ़ाने के लिए जिस घाटे का हवाला दिया जाता है वह केवल विक्रेता कम्पनी का घाटा है। तेल उत्पादक कम्पनियाँ तो हमेशा फायदे में रहती है। खुदरा तेल बेचने वाली हिंदुस्तान पेट्रोलियम या भारत पेट्रोलियम जैसी कंपनियां तेलशोधक कारखानों से तेल उस कीमत पर खरीदती हैं, जिस कीमत पर ये तेल उन्हें आयात करने पर मिला होता। इस कीमत में कर और ढ़ुलाई का खर्चा शामिल होता है। इन कम्पनियों को भारत में ही उत्पादित होने वाला तेल आयात वाले दामों पर ही दिया जाता है। तेल के इस खेल में जनता पीसती है और सरकार व कम्पनियाँ मुनाफा कमाती है।
# तेल पर सरकार 'एड वेलोरम" कर लगाती है। यह कीमत पर लगने वाला कर है। अगर इसे मात्रा पर लगाया जाए तो पेट्रोल-डीजल की कीमत कम हो जाएगी।
आरएस तिवारी, अर्थशास्त्री
Wednesday, December 8, 2010
सम्पत्ति राजसात हो तो रूके भ्रष्टाचार
जस्टिस पीडी मूले ने छेड़ी कानून में संशोधन की मुहिम
घोटाले पर घोटाले। हर दिन पिछले से बड़े घोटाले का खुलासा। भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के सारे इंतजाम हर बार बौने साबित हो जाते हैं। कहीं इसकी वजह पक ड़े जाने पर कम सजा का प्रावधान तो नहीं? यह विचार इसलिए कि दोषी सजा पूरी होने के बाद काले धन से वह आराम से जिंदगी बसर करता है। वहाँ सामाजिक लांछन जैसे किसी डर की कोई वजह नहीं होती। एक विचार है कि अगर मामले का खुलासा होते ही दोषी की पूरी सम्पत्ति जब्त कर ली जाए तो कोई भी भ्रष्टाचार करने के पहले दो बार सोचेगा। शायद यह तरीका काम कर जाए।
देवास के विशेष प्रधान अपर सत्र न्यायाधीश पीके व्यास ने भ्रष्ट्राचार के एक मामले में लोक निर्माण विभाग शाजापुर के उपयंत्री प्रीतमसिंह पर 5 करोड़ रूपए का जुर्माना और 3 वर्ष की कठोर कैद की सजा सुनाई है। इस सजा के बाद बहस चल पड़ी है कि भ्रष्टाचार पर कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए। अभी बड़े घोटाले के बाद भी दोषी को कुछ साल की जेल और छोटा अर्थ दंड दिया जाता है। सजा भोगने के बाद घोटाले की सारी रकम जायज हो जाती है और वह ता-उम्र परिवार के संग भ्रष्टाचार का आनंद भोगता है। ऐसे भ्रष्टाचार पर नकेल नहीं कसेगी। भ्रष्टाचार रोकना है तो हमें इसके कानून का सख्त करना होगा। इसी तर्क के साथ उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस पीडी मूले ने इंदौर से एक मुहिम चला रखी है। वे कहते हैं कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1998 में ऐसा प्रावधान है ही नहीं कि दोषी की सम्पत्ति को जब्त या राजसात किया जा सके। जबकि खाद्य, औषधि या अन्य मामलों में अवैध सामान जब्त कर लिया जाता है। बिना विष के साँप से कौन डरेगा? अगर इस कानून को प्रभावी बनाना है तो तत्काल अधिनियम में संशोधन होना चाहिए और सम्पत्ति जब्त करने का बिंदू जोड़ा जाना चाहिए।
श्री मूले अपनी इस एकल मुहिम को बरसों से जारी रखे हुए हैं और वे सांसदों, कानून मंत्री, सर्वोच्च न्यायालय सहित हर संभव मंच पर अपनी इस बात को रखते हैं। उनके इस तर्क पर सभी सहमति जो जताते हैं लेकिन कानून में बदलाव की पहल कोई नहीं करता। अफसर और नेता यह नहीं चाहते क्योंकि बदलाव होगा तो वे ही फँसेंगे। श्री मूले मानते हैं कि यह सही समय है जब जनता व मीडिया को अपनी आवाज बुलंद करना चाहिए।
आपका क्या ख्याल है?
घोटाले पर घोटाले। हर दिन पिछले से बड़े घोटाले का खुलासा। भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के सारे इंतजाम हर बार बौने साबित हो जाते हैं। कहीं इसकी वजह पक ड़े जाने पर कम सजा का प्रावधान तो नहीं? यह विचार इसलिए कि दोषी सजा पूरी होने के बाद काले धन से वह आराम से जिंदगी बसर करता है। वहाँ सामाजिक लांछन जैसे किसी डर की कोई वजह नहीं होती। एक विचार है कि अगर मामले का खुलासा होते ही दोषी की पूरी सम्पत्ति जब्त कर ली जाए तो कोई भी भ्रष्टाचार करने के पहले दो बार सोचेगा। शायद यह तरीका काम कर जाए।
देवास के विशेष प्रधान अपर सत्र न्यायाधीश पीके व्यास ने भ्रष्ट्राचार के एक मामले में लोक निर्माण विभाग शाजापुर के उपयंत्री प्रीतमसिंह पर 5 करोड़ रूपए का जुर्माना और 3 वर्ष की कठोर कैद की सजा सुनाई है। इस सजा के बाद बहस चल पड़ी है कि भ्रष्टाचार पर कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए। अभी बड़े घोटाले के बाद भी दोषी को कुछ साल की जेल और छोटा अर्थ दंड दिया जाता है। सजा भोगने के बाद घोटाले की सारी रकम जायज हो जाती है और वह ता-उम्र परिवार के संग भ्रष्टाचार का आनंद भोगता है। ऐसे भ्रष्टाचार पर नकेल नहीं कसेगी। भ्रष्टाचार रोकना है तो हमें इसके कानून का सख्त करना होगा। इसी तर्क के साथ उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस पीडी मूले ने इंदौर से एक मुहिम चला रखी है। वे कहते हैं कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1998 में ऐसा प्रावधान है ही नहीं कि दोषी की सम्पत्ति को जब्त या राजसात किया जा सके। जबकि खाद्य, औषधि या अन्य मामलों में अवैध सामान जब्त कर लिया जाता है। बिना विष के साँप से कौन डरेगा? अगर इस कानून को प्रभावी बनाना है तो तत्काल अधिनियम में संशोधन होना चाहिए और सम्पत्ति जब्त करने का बिंदू जोड़ा जाना चाहिए।
श्री मूले अपनी इस एकल मुहिम को बरसों से जारी रखे हुए हैं और वे सांसदों, कानून मंत्री, सर्वोच्च न्यायालय सहित हर संभव मंच पर अपनी इस बात को रखते हैं। उनके इस तर्क पर सभी सहमति जो जताते हैं लेकिन कानून में बदलाव की पहल कोई नहीं करता। अफसर और नेता यह नहीं चाहते क्योंकि बदलाव होगा तो वे ही फँसेंगे। श्री मूले मानते हैं कि यह सही समय है जब जनता व मीडिया को अपनी आवाज बुलंद करना चाहिए।
आपका क्या ख्याल है?
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