Tuesday, March 15, 2011

नाशुक्रा रहने का अहसास

किसी के प्रति नाशुक्रा रहने का अहसास कभी-कभी ही होता है लेकिन जब होता है तो सच पूछिए बहुत बुरा होता है। कुछ फिल्मी हो कर कहूँ तो 'माँ कसम" बहुत खराब होता है। अंदर तक चुभता हुआ। दिल को भेदता हुआ। ऐसा कम ही होता है कि छोटी-छोटी सहायताओं के बदले पूरे दिल से ध्ान्यवाद कहने से चूका होऊँ लेकिन कुछ लोग हैं, जिनके प्रति मुझे आभार जताना था लेकिन वे अचानक मेरे जीवन से चले गए। ऐसे जैसे आँख खुलते ही स्वप्न फुर्र हो जाते हैं। कई लोग इतने इत्मीनान से जुड़े थे कि लगा ही नहीं वे अचानक चले जाएँगे और मेरा आभार अनकहा ही रह जाएगा। कभी सोचा ही नहीं था कि वो जो अपने भीतर मैं रख रहा हूँ अनकहा, बिना बोला, वो मुझे इतना सताएगा, परेशान करेगा।


बात कुछ यूँ है कि नया-नया भोपाल आया था, तब एक मेहरबान ने इस शहर के रास्तों को समझने में मेरी मदद की थी। मुझे पूरी घटना याद है, केवल उस बंदें के नाम को छोड़ कर। वह खालिस भोपाली शख्स था। हमारे मार्केटिंग विभाग में किसी असाइनमेंट आधारित काम कर रहा था। मेरा भोपाल में शायद दूसरा हफ्ता था। मेरी तरह 'होम सिकनेस" पीड़ित व्यक्ति ही समझ सकता है कि पराए शहर में इतने दिनों बिना किसी अपने व्यक्ति के टिके रहने कितना जटिल होता है? क्रिकेट की भाषा में कहूँ तो ली की गेंदों को खेलने जैसा।

खैर, मुझे याद है। संगमरमर पर एक स्टोरी करना थी और मैं खाली दिमाग खड़ा था कि कैसे जिंसी तक पहुँचु और स्टोरी करुँ। तभी मियां मेरे पास आए। मेरी उलझन जान मुझे पूरा रास्ता बताया, फिर बोले काम से जा रहा हूँ वरना आपके साथ चलता। इतने से भरोसे ने जैसे मुझे आत्मविश्वास से भर दिया था। उस वक्त उस सहायता के लिए तो मैंने उनका धन्यवाद ज्ञापित किया किंतु वो जो हौंसला मुझे दे गए थे, नए शहर में दोस्त होने का अहसास दे गए थे, उस यकीन के लिए मैं उनका आभार नहीं जता पाया। इसके पहले कि मैं अपने भाव व्यक्त करता, वह अचानक चला गया, किसी ओर दफ्तर में। जो फोन नंबर मेरे पास था, वो भी बदल गया और इस एक चीज के अलावा मैं कोई ऐसी चीज या व्यक्ति को नहीं जानता जो मुझे उस तक पहुँचा दे।

यही नाशुक्रा होने का अहसास मुझे अकसर भिगो देता है। जिन्हें मैं कुछ कहना चाहता था उन लोगों का अचानक चले जाना परेशान कर देता है।

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