गुना के जैन समाज ने फैसला किया है कि मंदिरों में जींस पहन कर नहीं आया जा सकेगा। इस निर्णय का दूसरा पहलू यह कि यह सख्ती केवल युवतियों के लिए है। सवाल यह कि पाबंदी केवल लड़कियों के लिए ही क्यों? मंदिर में अगर अनुशासन चाहिए तो यह नियम सब पर लागू होना चाहिए लेकिन घेरे में आयीं केवल लड़कियाँ। मुझे यकीन है यह फैसला लेने वालों में स्त्रियाँ होती तो वे पुरुषों को इस दायरे से बाहर नहीं रखती। यहाँ यह बताना जरूरी है कि इनदिनों भागीदारी के नाम पर महिलाओं को शामिल किया तो जाता है लेकिन ये भागीदारी महज दिखावा साबित होती है क्योंकि साजिशन उन्हीं महिलाओं को रखा जाता है जो हर बात पर सहमति जताए। असहमति जता सकने वाली महिलाओं को फैसला लेने कि स्थिति तक साथ रखा ही नहीं जाता। यह केवल एक समाज में नहीं होता बल्कि हर जगह का यही आलम है।
तो बात पाबंदी कि गुना ही नहीं समाज कहीं का भी हो वह ऐसे फैसले लेता है और महिलाओं पर दबाव बनाता है कि वे बिना जिरह हर बात मान लें। खैर, फतवे हर बार ही बहस को जन्म देते हैं लेकिन हरबार ही एक बड़े वर्ग की स्वतंत्रता पर आदेश की बेड़ियाँ लगा दी जाती है। अनुशासन तोड़ने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती लेकिन अनुशासन के नाम पर तानाशाही या पक्षपात कैसे सहन हो? क्या यह उचित है कि पुरूष अधनंगे हो कर घूमते रहे लेकिन उनकी गलत दृष्टि से बचने के लिए महिलाएँ स्वयं को लबादे में ढ़ँक कर रखे? क्या महिलाएँ यह माँग नहीं कर सकती कि पुरूष अपनी हद में रहे, यह हद कपड़े पहनने से लेकर चौराहों पर घंटों टाइम पास करने तक की है। लेकिन ऐसा होगा नहीं। फतवे जारी करने वाला समाज भी युवकों के आगे नतमस्तक है। वह लड़कों के मोबाइल प्रयोग करने पर पाबंदी नहीं लगा सकता क्योंकि जानते है कि लड़के उसकी बातें हवा में उड़ा देंगे और इस तरह खुद का मखौल बनना किसी समाज को पसंद नहीं आता। वह तो उसी पर लगाम कसता है जो उसकी सुनता है।
क्या किसी व्यक्ति को अपनी पसंद के कपड़े पहनने का भी अधिकार नहीं है? जरा गहराई से विचार करें तो व्यक्ति अपने कपड़ों सहित रोजमर्रा के साधनों का चयन अपनी सुविधा के मद्देनजर करता है। इसीलिए लगभग हर काम के लिए स्वत: ही परिधान तय से हो गए हैं। दूसरा, व्यक्ति चाहता है कि वह ज्यादा खूबसूरत दिखने के लिए परिधान का एक टूल के रूप में इस्तेमाल करे। वैश्विकरण के साथ हर तरह के परिधान हमारी पहुँच में आ गए हैं और लोग फैशन के बहाने कई तरह के प्रयोग अपनी रोजमर्रा के परिधान में भी कर रहे हैं। यह बहस शाश्वत है कि वेस्टर्न ठीक है या भारतीय लेकिन कमोबेश अधिकांश लोग जानते हैं कि उन्हें कब क्या पहनना है। बेडोल शरीर को अगर वेर्स्टन नहीं फब्ता तो वह कुछ प्रयोग के बाद इस तरह के कपड़े पहनना बंद कर देता है। यानि पूरा मामला व्यक्तिगत पसंद और नापसंद का है। कुछ नियम स्वत: तैयार हो जाते हैं और लोगों पर निर्भर करता है कि वह कपड़े पहनने के अघोषित नियमों का पालन करता है या नहीं।
मेरी आपत्ति केवल इतनी है कि युवतियों के मोबाइल प्रयोग, जींस पहनने, बुरका न पहनने, जोर से हँसने, देर रात बाहर घूमने जैसे कामों पर प्रतिबंध लगाने वाला समाज जरा युवकों की हरकतों पर भी लगाम लगाने का साहस दिखाए, और अगर वह यह नहीं कर सकता तो कम से कम जो उसकी बात सुन-मान रहा है उस महिला वर्ग पर बेवजह की पाबंदियाँ लादना बंद करे।
सुन रहे हैं आप?
क्रमश:
क्रमश:
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